बालेन्दु शर्मा दाधीच।
क्या आपने जियोसिटीज, ट्राइपॉड और सिक्स डिग्रीज का नाम सुना है? अगर इन्हें वर्ल्ड वाइड वेब पर मौजूद पहली सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटें माना जाए तो सोशल मीडिया को हमारी जिंदगी में आए लगभग तीस साल बीत चुके हैं। इतने बरसों में सोशल मीडिया हमारे भीतर इतना पैठ गया है कि अब मोबाइल फोन, फेसबुक, यूट्यूब, लिंक्डइन और ट्विटर के बिना अपनी जिंदगी की कल्पना करना मुश्किल लगता है। वह इतना सर्वव्यापी है कि अब हम चाहकर भी सोशल मीडिया से दूरी नहीं बना सकते। यहाँ पर मुझे एक दिलचस्प ऑब्जर्वेशन याद आता है- “अगर आप सोशल मीडिया पर कुछ नहीं बोल रहे तो आपकी चुप्पी भी एक अभिव्यक्ति है।“ इसके भीतर छिपा हुआ अर्थ यह हुआ कि सोशल मीडिया पर तो आप हैं ही, भले ही आपको पता हो या नहीं।
सोशल मीडिया ने हमें एक अलग समाज दिया है- आभासी या वर्चुअल समाज। और इसके साथ ही दी है एक वर्चुअल आइडेंटिटी- एक अलग पहचान, जो ज़रूरी नहीं कि घर, परिवार और दफ्तर में प्रचलित आपकी पहचान जैसी हो। इसने आपको आजादी दी है उस पहचान की बेड़ियों से मुक्त होकर स्वच्छंद उड़ान भरने की। जिन विचारों और इच्छाओं को आपने न जाने कब से दबाए रखा था उन्हें बिन्दास सामने लाकर रख देने की। संकोचों और हीनता के बोध से आज़ाद होकर नए लोगों से जुड़ने की। लेकिन चूँकि असली दुनिया के दोस्त और रिश्तेदार भी आपके इस वर्चुअल समाज में मौजूद हैं इसलिए एक अंकुश भी मौजूद है कि कहीं आप उड़ान भरते-भरते कहीं दूर न निकल जाएँ। इस समाज के अपने नियम, कायदे, सीमाएँ और मूल्य हैं जो स्वच्छंदता के बीच भी एक किस्म का अनुशासन सुनिश्चित करते हैं।
यहाँ हर एक व्यक्ति का अपना समाज है- जो खुद को फ्रेंड्स, फॉलोवर्स या कनेक्शंस की शक्ल में पेश करता है। ऐसा समाज, जिसमें किसी किस्म की दीवारें नहीं है, और कोई हायरार्की भी नहीं है। अगर अमिताभ बच्चन के कुछ करोड़ फॉलोवर्स हैं तो खुद अमिताभ भी कुछ सौ या हजार लोगों के फॉलोवर हैं। प्रधानमंत्री हों या कोई कॉलेज छात्र, दोनों को अपनी बात कहने का हक है और दोनों को एक-दूसरे से संपर्क करने तथा बहस करने का हक है। काश, हमारा ऑफलाइन समाज भी ऐसा समावेशी और बराबरी पर आधारित होता! वहाँ तो एक आईपीएस, एक मंत्री के जूते उतारने पर मजबूर है। वहाँ तो दलित-पिछड़े समाज का एक व्यक्ति घोड़ी पर बैठने का अधिकार पाने के लिए जूझ रहा है। वहाँ तो महिलाएँ इस बात पर खुश हो रही हैं कि किसी देश में उन्हें पहली बार स्टेडियम में आकर मैच देखने का, याद रखिए खेलने का नहीं सिर्फ देखने का, हक मिल गया है।
सोशल मीडिया हमारी सोशल पूंजी भी है। हमारी हर एक टिप्पणी, हर एक रचना और हर एक संवाद हमारे भीतर कुछ न कुछ जोड़ रहा है, हमें समृद्ध कर रहा है। हम अपना खुद का मीडिया साथ लेकर बैठे हैं जिसका हम जिस तरह से प्रयोग करना चाहें कर सकते हैं, हालाँकि बुद्धिमत्तापूर्ण प्रयोग करें तो ज्यादा अच्छा है। वह आपके विज्ञापन का प्लेटफॉर्म भी है और आपका अपना न्यूज़ बुलेटिन भी है। अगर आप प्रतिभावान हैं तो यह अपनी प्रतिभा को दिखाने का मंच है। आप कारोबारी हैं तो सेल्स, मार्केटिंग, समीक्षा और फीडबैक का माध्यम भी है। राजनेता हैं तो लोगों को बहलाने-फुसलाने का एक और विकल्प है। अगर फेसबुक, ट्विटर, लिंक्डइन, व्हाट्सएप्प आदि न होते तो क्या आप कभी सपने में भी सोच सकते थे कि आपके पास पाँच-सात या पचास हजार समर्पित दर्शकों, पाठकों या श्रोताओं का अपना समूह होगा। इसकी बदौलत हमने नई दुनिया को जाना है, नए कौशल पैदा किए हैं, नए अवसरों तक पहुँचे हैं, नया आत्मविश्वास हासिल किया है।
(लेखक जाने माने तकनीकीविद हैं और माइक्रोसॉफ़्ट में ‘निदेशक-भारतीय भाषाएं और सुगम्यता’ के पद पर कार्यरत हैं)