दिनेश श्रीनेत।

क्रांतियों से ज्यादा तकनीक ने समाज को बदला है। जब भी कोई नई तकनीक आती है तो उसका समाज पर प्रभाव पड़ता ही है।


 

सन दो हजार की बात है। इकोनोमिस्ट मैगजीन ने पिछले सौ साल की घटनाओं पर विशेषांक निकाला था। तो उसमें ट्रेन के बारे में लिखा था कि जब ट्रेन आई तो वह न केवल लोगों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने का माध्यम बनी बल्कि विचारों को भी एक जगह से दूसरी जगह ले जाने का माध्यम बनी।

अभिव्यक्ति की छटपटाहट बहुत ज्यादा

सोशल मीडिया ने यह किया कि व्यक्ति को व्यक्ति से कनेक्ट करने की एक और खिड़की खोल दी है। भारतीय समाज में इसका नशा इतना ज्यादा इसलिए दिख रहा है क्योंकि हमारे यहां अभिव्यक्ति की छटपटाहट बहुत ज्यादा है।

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भारतीय समाज की संरचना बहुत जटिल है। न तो यह मध्य पूर्व या पाकिस्तान की तरह बंद समाज है और न यूरोपीय देशों की तरह बहुत खुला समाज है। हमें भोजकाल की भी परंपराएं मिल जाएंगी, मुगलकाल की भी और फिर ब्रिटिशकाल की भी। तो हमसे कोई चीज छूटी नहीं है। यह एक ट्रांजेक्शन फेज है जिसका चरम बिंदु हम आज देख रहे हैं। इसमें बहुत सी अच्छी चीजें भी होती हैं और बुरी भी। अच्छी चीजों में मैं बहुत छोटा सा उदाहरण दूंगा- निर्भया मामला। उसमें इतने सारे लोग दिल्ली ही नहीं पूरे देश में इसलिए इकट्ठे हो सके क्योंकि सोशल मीडिया पर वह मुद्दा छाया रहा था। वरना एक रैली तक करने में राजनीतिक दलों को कितने पसीने छूट जाते हैं और कितने से लोग आते हैं आप सब जानते हैं।

पश्चिम का संतुलित समाज

पश्चिम का समाज बहुत ही संतुलित समाज रहा है। वहां विकास हमसे बहुत पहले हुआ। प्रकाशन उद्योग जिनसे उपन्यास और तमाम कलाओं को बढ़ावा मिला और संपर्क व संवाद के लिए अखबार निकले तथा टेलीविजन- वे सब वहां बहुत पहले आ चुके थे। यह साठ के दशक में अपने चरम पर था। उसके बाद यहां इंटरनेट और सोशल मीडिया आया।

भारतीय जनमानस और तकनीक

भारत के संदर्भ में यह हुआ जब तक यहां का जनमानस किसी चीज के लिए तैयार हो पाए उससे पहले ही तकनीक आ जाती है और उसे अपनी पकड़ में ले लेती है, चाहे वह मोबाइल फोन हो या सिनेमा। यूं समझिए कि हमारी तमाम जनता इतनी भोलीभाली थी कि वह सिनेमा के परदे पर दिखाई जा रही चीज को असली समझ बैठती थी। जब ट्रेन आती थी तो कई लोग घबरा जाते थे। वैसे ही जब गोलियां चलती थीं तो डर जाते थे। आज वही समस्या सोशल मीडिया को लेकर भी है।

पश्चिम सोशल मीडिया और ऐसी तमाम चीजों से दूर भाग रहा है। वहां जितने भी नए विचारक हैं वे इस बात पर जोर दे रहे हैं कि कृत्रिम दुनिया के बजाय हमें वास्तविक दुनिया और समाज में अधिक रहना चाहिए। सोशल मीडिया एक कृत्रिम समाज बनाता है जिसके तमाम मित्र हमारे वास्तविक मित्र नहीं हो सकते।

समाज पर दुष्प्रभाव के कारण

भारत में यह एक लत तो बन ही गया है जो आगे चलकर मेरी समझ में साइकोलॉजी की एक धारा ही बन जाएगी। दूसरे तमाम एडिक्शनों में सोशल मीडिया को भी एक एडिक्शन मान लिया जाएगा। यह सभी उम्र के लोगों में नशा बन चुका है। बच्चों-युवाओं को क्या कहें, बुजुर्ग भी जो इंटरनेट का इस्तेमाल जानते हैं इसके भीषण प्रभाव में हैं। जब हमारा समाज किसी चीज के लिए तैयार नहीं होता और वह तकनीक आ जाती है तो उसके दुष्प्रभाव भी ज्यादा दिखते हैं। आज वही हो रहा है।

Social Media Addiction: What It Is and What to Do About It

स्वाभाविक सी बात है कि जब तकनीक आएगी तो लोग उसका इस्तेमाल करेंगे ही। अब मेट्रो आ गई है तो आप बस से जाना पसंद नहीं करते। यहां सोशल मीडिया तो आया लेकिन उसके लिए समाज में, लोगों में जो जहनी मजबूती होनी चाहिए थी, मन का जो संस्कार विकसित होना चाहिए था, वह नहीं हो पाया। ऐसे में मेरा मानना है कि आप फेसबुक उपयोग करते हैं तो आपको इतनी समझ हो जानी चाहिए कि इस माध्यम की अपनी सीमाएं हैं और यहां जो दोस्त हैं वे वास्तविक नहीं हैं।

हम बहुत ज्यादा आत्मकेंद्रित

दुनिया के विकसित देशों में देखें तो जहां हम वहां के समाज को मशीनों पर आधारित पाते हैं वहीं उनमें ‘कम्युनिटी फीलिंग’ समाज के लिए कुछ करने का जज्बा भी है। रिटायर्ड लोग अपना समय समाज को देते हैं- चाहे ट्रैफिक नियंत्रण के क्षेत्र में या दूसरों के बच्चों को पढ़ाना और देखभाल की बात हो, अपने आसपास की सफाई आदि को भी देखते हैं। काफी हद तक अपने देश में दक्षिण भारत में भी इस तरह की संस्कृति है। लोग अपने समाज से ज्यादा जुड़ते हैं। बाकी भारत में दिक्कतें ज्यादा हैं क्योंकि उदारीकरण के बाद के दौर में हम बहुत ज्यादा आत्मकेंद्रित होते चले गए। अपना घर, अपना करियर, अपना पैसा… यह सब अधिक महत्वपूर्ण हो गया और फिर सोशल मीडिया ने आकर उसमें आग में घी वाला काम कर दिया।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह आलेख उनकी अजय विद्युत के साथ हुई बातचीत पर आधारित है)


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