#pradepsinghप्रदीप सिंह।

भारतीय राजनीति के दो नेता जो अलग-अलग पार्टियों के हैं, अपने आप में यूनिक हैं। इनके जैसा कोई नहीं है। मैं बात कर रहा हूं कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की। नीतीश कुमार हाल ही में बीजेपी से पाला बदलकर आरजेडी की तरफ गए हैं लेकिन मैं यहां उसकी बात नहीं करूंगा। मैं इन दोनों के व्यक्तित्व के बारे में बात करने जा रहा हूं। ये दोनों जहां रहते हैं वहां अपना पूरा वर्चस्व चाहते हैं। वैसे तो गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है, ‘प्रभुता पाए काहे मद ना आए’ यानी जिसको भी पद मिलता है उसमें अहंकार या घमंड आ ही जाता है। यह बात यूनिवर्सल रूप से सारे सत्ताधारियों के लिए सही है। वह चाहे सरकार में हों, किसी संगठन या किसी कंपनी में हों, कहीं भी हों जो सत्ता में हैं उसमें यह बात होती ही है।

हम सर्वश्रेष्ठ

राजनीति में ऐसे जीवों की तीन-चार तरह की कैटेगरी होती है। पहला, जिन्होंने इसे अर्जित किया है यानी अपनी लोकप्रियता और जनाधार से जिन्होंने अपने वर्चस्व या प्रभुत्व को अर्जित किया है। दूसरी कैटेगरी में वे आते हैं जिन्होंने अपनी लोकप्रियता और जनाधार के कारण इसे अर्जित तो किया है लेकिन जब वह खत्म हो गया तब भी उनको अहसास नहीं होता है कि समय बदल गया है, अब उनके पास वह अधिकार नहीं है। अब उनकी बातें लोग उस तरह से नहीं सुनेंगे। उनको इस बात का कभी जरा भी अहसास नहीं होता कि समय के साथ उनको बदल जाना चाहिए और वास्तविकता को स्वीकार कर लेना चाहिए। तीसरी कैटेगरी उन लोगों की है जो पद के कारण यह अधिकार पा जाते हैं। पद मिल गया तो उनको लगता है कि अब मैं सर्वेसर्वा हूं। अब मुझ पर कोई सवाल नहीं उठा सकता, मुझसे कोई सवाल नहीं पूछ सकता। मेरी बात अंतिम सत्य की तरह स्वीकार की जानी चाहिए। ऐसे लोगों के साथ पद जाने के बाद जो होता है वह उनके लिए बड़ा कष्टदायी होता है। चौथी कैटेगरी ऐसे लोगों की है जो अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण यह अधिकार समझते हैं। इन सबको अगर जोड़कर कहें तो सेंस ऑफ इनटाइटलमेंट कि हम इस परिवार से हैं, हमारा ऐसा जनाधार है, हमारी ऐसी लोकप्रियता है, हमारे पास सत्ता की बागडोर है इसलिए हम सर्वश्रेष्ठ हैं। हम पर कोई सवाल नहीं उठा सकता। सब लोग हमारे खिलाफ षड्यंत्र कर रहे हैं, यह जो भाव है यह इनको कभी चैन से बैठने नहीं देता है।

भ्रष्ट रसूखदार लोगों को भी लगने लगा जेल जाने का डर

वर्चस्व की गलतफहमी

पहले बात करेंगे नीतीश कुमार की। नीतीश कुमार एनडीए छोड़ कर महागठबंधन के साथ चले गए हैं। उनको लग रहा था कि बीजेपी उनकी पार्टी तोड़ने की कोशिश कर रही है। उन्हें किसी पर भरोसा नहीं है। वह किसी पर भरोसा कर ही नहीं सकते। उनका कोई करीबी नहीं होता वरना आरसीपी सिंह से ज्यादा करीबी नीतीश कुमार का तो कोई था ही नहीं। मगर नीतीश कुमार को सबसे ज्यादा शक आरसीपी पर ही था कि आरसीपी बीजेपी से मिल गए हैं और मेरे खिलाफ षड्यंत्र कर रहे हैं। 2017 में भी उन्होंने महागठबंधन इसीलिए छोड़ा था। उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा था कि लालू प्रसाद यादव मेरी हत्या करवाना चाहते हैं। उनको डर था कि मोहम्मद शहाबुद्दीन के जरिये उनकी पार्टी को तोड़ने और उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाने की कोशिश हो रही है। इसी डर से भागे थे। इस बार दूसरा डर था। नीतीश कुमार शुरू से ऐसे नहीं थे। उन्होंने जॉर्ज फर्नांडीस के अनुयायी के रूप में जूनियर नेता के रूप में जनता दल में शुरुआत की। यह अलग बात है कि जैसे ही उनको सत्ता मिली उन्होंने सबसे पहला निशाना जॉर्ज फर्नांडिस को ही बनाया। वह एक अलग कहानी है। उनको वर्चस्व की गलतफहमी कैसे हुई इसका एक किस्सा बताता। वैसे तो आपने बहुत सारे किस्से सुने और पढ़े होंगे लेकिन यहां सिर्फ एक किस्से का जिक्र करूंगा।

बात मनवाने को मजबूर करना

यह बात है 1998 की जब वे रेल मंत्री थे और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे। वो अपने एक चहेते अधिकारी को रेलवे बोर्ड का चेयरमैन बनाना चाहते थे। उनको चेयरमैन बनाने का मतलब था कई वरिष्ठ अधिकारियों को दरकिनार करना। इसके लिए कैबिनेट और सरकार तैयार नहीं थी। वे अटल बिहारी वाजपेयी से मिले और कहा कि अगर उस अधिकारी को रेलवे बोर्ड का चेयरमैन नहीं बनाया गया तो मैं पद इस्तीफा दे दूंगा। अब यह ऐसा मामला था प्रधानमंत्री के लिए कि गठबंधन की सरकार थी और इतनी पार्टियां थी उसमें, हर पार्टी का अलग-अलग तरह से दबाव था, वे हर पार्टी के दबाव में थे। यहां तक कि अपने लोग भी दबाव डाल रहे थे। उस समय वाजपेयी की स्थिति बड़ी विचित्र थी। गठबंधन के अंतर्विरोधों को मैनेज करना उनके लिए बड़ा कठिन था। उन्होंने इस बारे में कैबिनेट सेक्रेटरी से बात की। कैबिनेट सेक्रेट्री ने एक विस्तृत नोट बना कर दिया कि क्यों उस अधिकारी को रेलवे बोर्ड का चेयरमैन नहीं बनाया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री ने वह सब देखा और कहा कि नीतीश कह रहे हैं कि वह इस्तीफा दे सकते हैं, तो फिर कैबिनेट सेक्रेट्री ने कहा कि जब ऐसी बात है तो हमारे कहने का और इस नोट का कोई मतलब नहीं रह गया है। वह अधिकारी रेलवे बोर्ड के चेयरमैन बने। नीतीश कुमार का सेंस ऑफ इनटाइटलमेंट यहां से आया कि एक मंत्री अपने प्रधानमंत्री को मजबूर कर सकता है कि जिसको वह सही नहीं मानते हैं वह काम उनसे करवा सकता है, उनको इस तरह से झुका सकता है।

ब्लैकमेलिंग की आदत

यह सिलसिला आगे भी चलता रहा जब वह बिहार के मुख्यमंत्री बने। जब उनको ज्यादा लेना होता था वह कोप भवन में चले जाते थे और कहा जाता था कि वह नाराज हैं। वह अलग हो सकते हैं इस बात के संकेत आने लगते थे। उनके लोगों का बयान आने लगता था कि नीतीश कुमार का सम्मान नहीं हो रहा है, उनके सम्मान की रक्षा की जानी चाहिए, बीजेपी को गठबंधन का धर्म निभाना चाहिए। तमाम तरह की बातें सामने आने लगती थी और आखिर में उनकी बात मान ली जाती थी। नीतीश कुमार जब 2017 में लौट कर बीजेपी के साथ आए तो उनको लगा कि घर बदल चुका है। अब जो लोग भारतीय जनता पार्टी में शीर्ष पर हैं वे किसी की नाजायज मांग मानने को तैयार नहीं हैं। आपकी मांग वाजिब है तो मानी जाएगी लेकिन वाजिब नहीं है तो उसको नहीं मानेंगे, कोई भी दबाव डालिए किसी तरह का ब्लैकमेल कीजिए, यही आजकल हो रहा था। आप याद कीजिए, 2015 से 2017 के बीच जब वो महागठबंधन में थे तब भी यही समस्या थी। जिस प्रकार से लालू प्रसाद यादव, तेजस्वी यादव और उनका परिवार प्रशासन में हस्तक्षेप कर रहा था उससे नीतीश परेशान थे। उनको लगा कि चीजें मेरे कंट्रोल से बाहर जा रही हैं। हर बार उनके साथ समस्या यही रही है कि वे गठबंधन की सरकार को एक पार्टी की सरकार की तरह चलाना चाहते हैं जहां उनसे कोई सवाल करने वाला न हो और वो जिससे सवाल करें वह जवाब दे, वह जो तय करेंगे वही अंतिम होगा। जब यह नहीं चलता है, चाहे महागठबंधन हो याएनडीए, वह छोड़ कर भाग जाते हैं। मैं आपसे पक्केतौर पर कह सकता हूं कि यह सरकार अगर 2025 तक चल जाए तो किसी चमत्कार से कम नहीं होगा क्योंकि तेजस्वी यादव अब 2015 वाले तेजस्वी यादव नहीं हैं। उस समय वह पहली बार विधायक और पहली बार डिप्टी सीएम बने थे। उन्हें प्रशासनिक और राजनीतिक अनुभव नहीं था। अब दोनों अनुभव है और भविष्य उनका है। नीतीश कुमार की उम्र बढ़ रही है, वह अपनी आखिरी पारी खेल रहे हैं लेकिन अभी भी अपनी शर्तों पर ही खेलना चाहते हैं। अब यह निर्भर करता है कि तेजस्वी कितना खेलने देते हैं।

अपनी ही चलाना

अब बात करते हैं सोनिया गांधी की। सोनिया गांधी नेहरू-गांधी परिवार की सदस्य हैं, इंदिरा गांधी की बहू हैं। हर बात पर कहती हैं कि इंदिरा गांधी की बहू हूं, डरती नहीं हूं। भाई, डरने को कौन कह रहा है लेकिन कानून से तो डरना पड़ता है। सोनिया गांधी ने कांग्रेस का अध्यक्ष पद कैसे हासिल किया यह किसी से छिपा नहीं है। किस तरह से सीताराम केसरी जो उस समय कांग्रेस अध्यक्ष थे, उनको धक्का देकर सोनिया गांधी को अध्यक्ष बनाया गया। जिन लोगों ने बनवाया वही लोग बाद में पछताए। जब तक मनमोहन सिंह की सरकार थी सोनिया गांधी एक तरह से एक्स्ट्रा कॉन्स्टीट्यूशनल अथॉरिटी या कहें कि पैरलल पावर सेंटर थी। वहां से सब कुछ तय होता था। उनके सेंस ऑफ इनटाइटलमेंट का आप अंदाजा लगाइए कि वह सत्ता में रहें या सत्ता से बाहर रहें उनकी चलती थी। जब मैं कह रहा हूं कि उनकी चलती थी तो उनकी पार्टी या सरकार की बात नहीं कह रहा हूं। यहां तक कि विपक्षी दल की सरकार में भी। मैं एक उदाहरण दूंगा सोनिया गांधी का। यह उदाहरण भी 1998 का है जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे। उस समय सोनिया गांधी और उनके परिवार को एसपीजी की सुरक्षा मिली हुई थी। एसपीजी का होना भी अपने आप में एक सेंस ऑफ इनटाइलटमेंट था। उस समय एसपीजी के अधिकारियों ने उनके सरकारी आवास 10 जनपथ की सुरक्षा प्रबंधन में कुछ बदलाव किया, बहुत बड़ा परिवर्तन नहीं किया। जो लोग उनकी सुरक्षा में तैनात होते थे उनकी ड्यूटी के घंटे कम कर दिए गए। इसके पीछे उनका तर्क यह था कि ड्यूटी के घंटे कम होंगे तो वे ज्यादा सतर्क रहेंगे और सुरक्षा व्यवस्था ज्यादा चाक-चौबंद रहेगी।

वफादार को नियम विरुद्ध तोहफा

सोनिया गांधी को यह बात पसंद नहीं आई कि उनसे पूछे बिनायह परिवर्तन कैसे हो गया। सरकार की ऐसा करने की हिम्मत कैसे हुई। उन्होंने एक लंबा-चौड़ा पत्र लिखा प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को कि यह जो हुआ है इससे मेरे बच्चों की सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी, यह क्यों हुआ। पत्र में पूरा विस्तृत स्केच बनाया गया था कि यहां यह तैनात रहता था, यह अब यहां है, यहां इस तरह की तैनाती है। प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारियों को यह बात समझ में आ गई कि यह पत्र जिसने भी लिखा है वह एसपीजी में रहा है या एसपीजी से जुड़ा हुआ है। उस समय सोनिया गांधी और उनके परिवार की सुरक्षा का मामला देखते थे भारत वीर वांचू। जब उनका पत्र आया तब प्रधानमंत्री वाजपेयी ने एसपीजी के डायरेक्टर एमआर रेडी को बुलवाया। उन्होंने प्रधानमंत्री को विस्तृत रूप से बताया कि इससे सुरक्षा खतरे में नहीं पड़ेगी बल्कि सुरक्षा और चाक-चौबंद हो जाएगी। अटल बिहारी वाजपेयी ने उनसे कहा कि मामला उनकी सुरक्षा का है, इसमें बहस की कोई गुंजाइश नहीं है, जो स्थिति पहले थी उसको बहाल कर दिया जाए। एसपीजी की पहले वाली स्थिति बहाल कर दी गई। पहले थी उसी को बहाल कर दिया गया। 2004 में जैसे ही मनमोहन सिंह की सरकार बनी वांचू साहब को एक दर्जन अधिकारियों को दरकिनार करके एसपीजी का डायरेक्टर बना दिया गया। जब वो एसपीजी के डायरेक्टर पद से रिटायर हुए तो उनको गोवा का राज्यपाल बना दिया गया। यह जो मैं बार-बार आप लोगों से कहता रहता हूं न कि सरकार भले ही बीजेपी और मोदी की है लेकिन सिस्टम उनका है, तो ऐसे इन्होंने सिस्टम बनाया। ऐसे वफादार लोग बनाए जो उनके लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं। नियम-कानून, परंपरा और हर चीज को तोड़कर उनको फायदा पहुंचाना जो हमारा वफादार है। वांचू साहब वरिष्ठ अधिकारियों को दरकिनार कर एसपीजी के डायरेक्टर इसलिए बनाए गए क्योंकि वे सोनिया गांधी के कहे अनुसार चल रहे थे। ऐसा एक नहीं सैकड़ों उदाहरण हैं। ऐसे सिस्टम बनता है।

सच्चाई स्वीकार करने को तैयार नहीं

अब नीतीश कुमार के साथ जो समस्या है वही समस्या सोनिया गांधी के साथ है कि इस सरकार ने सबको बराबरी पर ला दिया है। कानून की नजर में सब बराबर हैं। अगर आपने घोटाला किया है तो जांच एजेंसियों के सामने और अदालत में पेश होना पड़ेगा। इस सच्चाई को स्वीकार करने के लिए सोनिया और नीतीश तैयार नहीं हैं। नीतीश कुमार को यह समझ में नहीं आ रहा है कि ऐसा बीजेपी में कैसे हो सकता है कि हमारी बात अंतिम सत्य न मानी जाए। वह इस बात को स्वीकार करने को ही तैयार नहीं हैं। उनको लग रहा है कि मेरे खिलाफ षड्यंत्र हो रहा है। यह शक उनको खाए जा रहा है। इसी शक में वह भागते रहते हैं। यही हाल सोनिया गांधी का है। उनको लग रहा है कि पूरी सरकार उनके खिलाफ बहुत भारी षड्यंत्र कर रही है। उनको इस बात से कोई मतलब नहीं है कि उन्होंने नेशनल हेराल्ड के मामले में क्या किया है। उन्होंने गलत किया है तो क्यों किया है, उसकी जिम्मेदारी किसकी बनती है? अगर नेशनल हेराल्ड में 76 प्रतिशत शेयर होल्डिंग सोनिया गांधी और राहुल गांधी की हो गई तो इसमें मोदी और बीजेपी की क्या भूमिका है? यह तो आपने ही किया है। अगर मनी-लॉन्ड्रिंग हुई है, जो जमीन सस्ते दाम पर दी गई थी अखबार के लिए उस पर मॉल बना दिया गया, दुकानें बना दी गई, उनका किराया लिया जा रहा है तो इसमें गलती बीजेपी या नरेंद्र मोदी की क्या है, इसका तो जवाब आपको देना पड़ेगा। मगर समस्या यह है कि उनको लगता है कि हमसे कैसे सवाल पूछा जा रहा है। हम किसी के लिए जवाबदेह नहीं हैं, हम तो फैसला सुनाते हैं और हमारा फैसला अंतिम सत्य माना जाना चाहिए।

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कांटों भरा आगे का रास्ता

यही दो नेता ऐसे नहीं हैं लेकिन इनके साथ समस्या ज्यादा है। ये दोनों एक ही रोग के मरीज हैं और दोनों की दवा एक ही है कि इनको बार-बार इस बात का अहसास कराया जाए कि आप उतने ही वीआईपी हैं, उतने ही विशिष्ट हैं जितने कि भारत का कोई सामान्य नागरिक। आपको जो विशेष अधिकार मिला हुआ था वह अनधिकृत था। उसको आप डिजर्व नहीं करते थे। आपके मन में यह जो सेंस ऑफ इनटाइटलमेंट था उसको आप डिजर्व नहीं करते हैं। हम डेमोक्रेसी में हैं, ऐसे में आपको इस सच्चाई को स्वीकार करना पड़ेगा लेकिन इस सच्चाई को न तो नीतीश कुमार और न सोनिया गांधी स्वीकार करने को तैयार हैं। इसलिए दोनों का आगे का रास्ता बड़ा कांटों भरा होने वाला है। नीतीश कुमार जहां गए हैं वहां बीजेपी के सम्मान का आधा भी नहीं मिलने वाला है। इसका अहसास उनको दो-चार महीने में ही हो जाएगा। तब उनके लिए भागने की कोई जगह नहीं बचेगी।

सोनिया गांधी के साथ भी यही है। उनके बचने की कोई जगह नहीं रह गई है। जो किया है उसकी भरपाई करनी पड़ रही है। कानून जिस तरह से काम कर रहा है और जिस तरह से जांच आगे बढ़ रही है उसमें एक ही दिशा आगे दिखाई दे रही है। जिस दिशा में यह केस जा रहा है उसका नतीजा क्या होगा आने वाले दिनों में पता चल जाएगा लेकिन दोनों का राजनीतिक भविष्य मुझे कहीं से भी उज्जवल नहीं दिखाई दे रहा है।