कृष्ण को सुनता कौन? पब्लिक ‘गले में वैजयंती माला’ गाकर मस्त

डॉ. मयंक चतुर्वेदी।
श्रीकृष्‍ण कल आए थे। साक्षात प्रकट हुए और बहुत कुछ कह गए। हम सभी ने बहुत ही स्‍नेह बंधन से युक्‍त होकर उन्‍हें स्‍तुति गान के साथ स्‍नेह डोर से बांधा भी।

सर्वमार्गेषु नष्टेषु कलौ च खलधर्मिणि। पाषण्डप्रचुरे लोके कृष्ण एव गतिर्मम॥
म्लेच्छाक्रान्तेषु देशेषु पापैकनिलयेषु च। सत्पीडाव्यग्रलोकेषु कृष्ण एव गतिर्मम॥

हे प्रभु! कलियुग में धर्म के सभी रास्ते बन्द हो गए हैं, और दुष्ट लोग धर्माधिकारी बन गये हैं, संसार में पाखंड व्याप्त है, इसलिए केवल आप भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे आश्रय हों। हे प्रभु! देश में दुष्ट लोगों का भय व्याप्त है और सभी लोग पाप कर्मों में लिप्त हैं, संसार में संत लोग अत्यन्त पीड़ित हैं, इसलिए केवल आप भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे आश्रय हो।

प्रार्थना के इन शब्‍दों में जो भाव रहा, श्रीकृष्‍ण ने फिर अपना ज्ञान पुन: दिया। हे, सनातन धर्म को माननेवाले मनुष्‍य; ऐसा कोई समय नहीं था कि जब मैं नहीं था या तुम नहीं थे और ये सभी राजा न रहे हों और ऐसा भी नहीं है कि भविष्य में हम सब नहीं रहेंगे। जैसे देहधारी आत्मा इस शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था और वृद्धावस्था की ओर निरन्तर अग्रसर होती है, वैसे ही मृत्यु के समय आत्मा दूसरे शरीर में चली जाती है। बुद्धिमान मनुष्य ऐसे परिवर्तन से मोहित नहीं होते।अनित्य शरीर का चिरस्थायित्व नहीं है और शाश्वत आत्मा का कभी अन्त नहीं होता है। तत्त्वदर्शियों द्वारा भी इन दोनों की प्रकृति के अध्ययन करने के पश्चात निकाले गए निष्कर्ष के आधार पर इस यथार्थ की पुष्टि की गई है। जो पूरे शरीर में व्याप्त है, उसे ही तुम अविनाशी समझो। उस अनश्वर आत्मा को नष्ट करने में कोई भी समर्थ नहीं है। केवल भौतिक शरीर ही नश्वर है और शरीर में व्याप्त आत्मा अविनाशी, अपरिमेय तथा शाश्वत है। अतः हे भरतवंशी! युद्ध करो।

कृष्‍ण जन्मोत्सव पर फिर एक बार हम सभी से कह गए हैं, युद्ध करो…युद्ध करो…युद्ध करो…। ये युद्ध किससे है, क्‍या सिर्फ अपने आप से? या उन तमाम संस्‍कृतियों और परंपराओं के संरक्षण एवं ज्ञान के आलोक को सदैव जागृत रखने के लिए उन तमाम आसुरी शक्‍तियों से जो कि आज नाना रूप धर कर हमारे आस पास मंडरा रही हैं। फिर उन्‍हें आप नाम कुछ भी दो; यथा  – नव साम्राज्‍यवाद, कल्चर मार्क्सिज़्म, बाजारवाद, नारीवाद, नस्‍लवाद, जातिवाद, उपभोक्‍तावाद, सिर्फ मेरी ही विचारधारा अंतिम सत्‍य है, अन्‍य कुछ नहीं, ऐसा फितूरवाद, जिहादवाद। अब युद्ध तो करना है, इन सभी से नित्‍यप्रति बार-बार। यही तो कह रहे हैं श्रीकृष्‍ण….

कृष्‍ण वर्ष में हर बार हमारे हर घर में आते हैं, हम सभी अर्जुनों को अनेक तरह से सरल भाषा में गीता सुनाते हैं और हम हैं कि बस, हे कृष्ण गोविंद हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेवा…..या श्री गिरिधर कृष्ण मुरारी – तेरे गले में बैजंती माला, बजावै मुरली मधुर बाला, कस्तूरी तिलक, चंद्र सी झलक, ललित छवि कुंजबिहारी की…में मस्‍त होकर सीमित हो जाना चाहते हैं।

कुंजबिहारी का हर सनातनी हिन्‍दू के लिए सीधा संदेश है, जो यह सोचता है कि आत्मा को मारा जा सकता है या आत्मा मर सकती है, वे दोनों ही अज्ञानी हैं। वास्तव में आत्मा न तो मरती है और न ही उसे मारा जा सकता है।आत्मा का न तो कभी जन्म होता है न ही मृत्यु होती है और न ही आत्मा किसी काल में जन्म लेती है और न ही कभी मृत्यु को प्राप्त होती है। आत्मा अजन्मा, शाश्वत, अविनाशी और चिरनूतन है। शरीर का विनाश होने पर भी इसका विनाश नहीं होता।

कृष्‍ण कल जब रात को आए थे तो याद दिला कर गए हैं; जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात पुनर्जन्म भी अवश्यंभावी है। अतः तुम्हें अपरिहार्य के लिए शोक नहीं करना चाहिए। वास्तव में धर्म की रक्षा हेतु युद्ध करने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं होता।

हे पार्थ! वे भाग्यशाली होते हैं जिन्हें बिना इच्छा किए धर्म की रक्षा हेतु युद्ध के ऐसे अवसर प्राप्त होते हैं, जिसके कारण उनके लिए स्वर्ग के द्वार खुल जाते हैं। यदि फिर भी तुम इस धर्म युद्ध का सामना नहीं करना चाहते तब तुम्हें निश्चित रूप से अपने सामाजिक कर्तव्यों की उपेक्षा करने का पाप लगेगा और तुम अपनी प्रतिष्ठा खो दोगे। लोग तुम्हें कायर और भगोड़ा कहेंगे। एक सम्माननीय व्यक्ति के लिए अपयश मृत्यु से बढ़कर है। तुम्हारे शत्रु तुम्हारी निन्दा करेंगे और कटु शब्दों से तुम्हारा मानमर्दन करेंगे और तुम्हारी सामर्थ्य का उपहास उड़ायेंगें। तुम्हारे लिए इससे पीड़ादायक और क्या हो सकता है?

कृष्‍ण कह रहे हैं, यदि तुम युद्ध करते हो फिर या तो तुम मारे जाओगे और स्वर्ग लोक प्राप्त करोगे या विजयी होने पर पृथ्वी के साम्राज्य का सुख भोगोगे। इसलिए हे पुत्र! उठो और दृढ़ संकल्प के साथ युद्ध करो। कर्तव्यों पालन हेतु युद्ध करो, युद्ध से मिलने वाले सुख-दुख, लाभ-हानि को समान समझो। यदि तुम इस प्रकार अपने दायित्त्वों का निर्वहन करोगे तब तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा। इस चेतनावस्था में कर्म करने से किसी प्रकार की हानि या प्रतिकूल परिणाम प्राप्त नहीं होते अपितु इस प्रकार से किया गया अल्प प्रयास भी बड़े से बड़े भय से हमारी रक्षा करता है। हे अर्जुन! सफलता और असफलता की आसक्ति को त्याग कर तुम दृढ़ता से अपने कर्तव्य का पालन करो।

हम सभी श्रीकृष्‍ण के बताए रास्‍ते पर चलकर (1) सनातन हिन्‍दू धर्म की रक्षा के लिए समभाव योग कर सकते हैं, अन्‍यथा (2) अपनी परंपरा, कुल नाश, ज्ञान नाश का कारण बन सकते हैं… इन दो रास्‍तों में से कौन सा चुनना है यह श्रीकृष्‍ण ने हमारे विवेक पर छोड़ दिया है। ठीक वैसे ही जैसे महाभारत के युद्ध में बीच मैदान में अर्जुन को गीता सुनाते वक्‍त उसे विचार करने और अपने स्‍व के लिए किये जानेवाले निर्णय के लिए छोड़ा था।

(लेखक ‘हिदुस्थान समाचार न्यूज़ एजेंसी’ के मध्य प्रदेश ब्यूरो प्रमुख हैं)