दीपक चौरसिया।

केंद्र सरकार की वायु गुणवत्ता निगरानी एजेंसी के मुताबिक दिल्ली के पीएम 2.5 प्रदूषण में पराली जलाए जाने से निकलने वाले प्रदूषकों की हिस्सेदारी 29 अक्टूबर को बढ़कर 36 प्रतिशत हो गई। यह इस मौसम में सर्वाधिक आंकड़ा है। पीएम 2.5 प्रदूषण के पैमाने में वायु में मौजूद 2.5 माइक्रोमीटर से कम व्यास के कणों को शामिल किया जाता है। इसके अलावा 28 मार्च को दिल्ली के पड़ोसी राज्यों में खेतों में पराली जलाए जाने की 2,912 घटनाएं दर्ज की गर्इं। यह भी इस मौसम में सर्वाधिक हैं।


 

पराली कहिए, पुआल कहिए, धान का डंठल कहिए, राइस स्ट्रॉ कहिए, स्टब्बल कहिए… इन शब्दों से अब उत्तर भारत के  लोगों का दम घुटता है। सांस थमने लगती है। जब भी दिल्ली और उसके आसपास सर्दियों में धुएं और धुंध का जहर फैलता है तो क्या नेता, क्या पर्यावरण विशेषज्ञ, सबके सब पराली को इस परेशानी की बड़ी वजह बताने लगते हैं।

Issues of Parali Burning | Indian Govt Scheme - Sarkari Yojna - सरकारी योजना

क्या करें, कटाई-ढुलाई खर्चीला सौदा

ठीक बात है। पराली या पुआल सचमुच एक बड़ी समस्या है। धान की कटाई के बाद अगली फसल के लिए खेत को पूरी तरह साफ करना होता है, इसलिए किसान खेत में ही पराली को जला देते हैं। उनके पास कोई विकल्प नहीं है क्योंकि पराली की कटाई-ढुलाई खर्चीला सौदा है। उसमें मेहनत ज्यादा लगती है और समय भी। दिल्ली में प्रदूषण और स्मॉग यानी धुएं वाली धुंध पर लगातार खबरें दिखाने और उन पर चर्चा करने के बाद भी मेरी समझ में नहीं आया कि धान की खेती तो पहले भी होती थी, फिर समस्या अब विकराल क्यों हुई? इस सवाल का जवाब भी नहीं मिला कि धान की खेती अकेले भारत में तो होती नहीं है। चीन, अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, नीदरलैंड्स और दुनिया के दूसरे देशों में भी तो धान की खेती होती है। धान की खेती होती है, तो वहां भी पराली पैदा होती होगी। फिर उन देशों में पराली का क्या होता है?

पराली जलाने से हवा में कितने तरह का और कितनी मात्रा में जहर घुलता है, इसके बारे में अब तक भारत में कोई अध्ययन नहीं हुआ है और अगर किसी ने अध्ययन किया भी हो तो उसका ब्योरा सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध नहीं है। प्रदूषण पर चिंता जताने के अलावा किसी संस्थान ने अब तक यह जहमत नहीं उठाई कि पहले पता तो कर लें कि एक एकड़ पराली खेतों में राख होकर कितने लोगों की जान लेने भर का जहर उगलती है।

प्राचीन उपयोग

पराली संकट के समाधान की तलाश में मुझे ज्यादा भटकना नहीं पड़ा। एक पीढ़ी पहले के लोगों से बात की, तो जवाब मिला कि पराली या पुआल पहले गाय-बैल और भैंसों को हरे चारे में मिलाकर खिलाया जाता था। पराली चूल्हे में जलावन के रूप में भी इस्तेमाल होती थी। उस जलावन की निकली राख को घूर या घूरे में गोबर के साथ डाल दिया जाता था, जो बाद में खाद के रूप में खेतों में पहुंच जाती थी। मिट्टी को उपजाऊ बनाती थी। जहां जानवर बांधे जाते थे, उस जगह भी पराली या पुआल को बिछा दिया जाता था। पशुओं के गोबर और मूत्र के साथ उस पुआल को इकट्ठा करके घूरे में छोड़ दिया जाता था और गोबर के साथ मिलकर पराली की भी कंपोस्ट खाद बन जाती थी। थोड़ी बहुत पराली तो छप्पर बनाने और दीवार बनाने के लिए मिट्टी में भी मिलाई जाती थी, ताकि मिट्टी को मजबूती मिले। गांवों में कुम्हार मिट्टी के बर्तन बनाते थे जिन्हें पकाने के लिए पराली जलाते थे।

लेकिन अब वक्त बदल गया है। गांवों में भी सीमेंट-रेत से पक्के मकान बनते हैं। चूल्हे की जगह केरोसिन वाले स्टोव और एलपीजी सिलेंडर आ गए हैं। पराली से खाद बनाने में वक्त बहुत ज्यादा लगता है। मवेशी भी पराली नहीं खाते। ले-देकर फलों की पैकिंग के लिए थोड़ी बहुत पराली बिकती है। कुछ पराली र्इंट भट्ठे वाले खरीद लेते हैं। फिर भी औसतन 80 फीसदी पराली बच जाती है, जिसे ठिकाने लगाने के लिए खेत में जलाना पड़ता है।

दुनिया के जिस भी देश में धान की खेती होती है, वहां पराली की परेशानी एक जैसी ही है। चीन से लेकर अमेरिका तक खेतों में पराली जलती रही है। फर्क सिर्फ एक है। अमेरिका और यूरोप के देशों ने पराली संकट को वक्त रहते भांप लिया और उसका समाधान तलाशना शुरू कर दिया। जबकि भारत में पराली से निकली आग बुझाने का खयाल तब आया, जब जिंदगी झुलसने लगी।

अमेरिका का सबक

अमेरिका के सबसे बड़े धान उत्पादक राज्य कैलिफोर्निया में 1990 के दशक में पराली जलाने से निकले धुएं ने जब लोगों की सेहत और पर्यावरण का सत्यानाश शुरू किया, तब वहां के प्रशासन ने पराली जलाने के नियम तय कर दिए। नियंत्रित तरीके से पराली जलाने की कोशिश कामयाब नहीं हुई तो तय हुआ कि पराली का इस्तेमाल बिजली संयंत्रों में बायोमॉस के रूप में किया जाएगा। किसानों के लिए बिजलीघरों तक पराली पहुंचाना किफायती सौदा नहीं था। यह फैसला किया गया कि खेतों के आसपास ही बारह से पंद्रह मेगावाट क्षमता वाले बिजलीघर बना दिए जाएं। प्रयोग सफल रहा। सदी की शुरुआत में ही कैलिफोर्निया के धान उत्पादक इलाकों में ऐसे दस बिजलीघर बना दिए गए जो पराली को बायोमॉस के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। इसके अलावा पराली का उपयोग मिट्टी का क्षरण रोकने के लिए भी किया जा रहा है। सड़कों के किनारे पराली लगाई जाती है ताकि मिट्टी सूखकर हवा के साथ न उड़े।

Fossil fuels are the economic powerhouse of California – Orange County Register

अमेरिका की ही आयोवा स्टेट यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर डॉन हॉफस्ट्रैंड के अक्टूबर 2009 में प्रकाशित शोधपत्र में बताया गया कि हम जिस पराली को परेशानी समझ रहे हैं वह ऊर्जा का बेशकीमती स्रोत है। धान, मक्का, गेहूं जैसी फसलों के अवशेष का इस्तेमाल फाइबर बोर्ड और कागज बनाने में किया जा सकता है। अगर पेपर इंडस्ट्री में इसका इस्तेमाल हो तो कागज बनाने के लिए जरूरी फाइबर का चालीस फीसदी हिस्सा फसलों के अवशेष से मिल सकता है। पराली को बायोमॉस के रूप में जलाकर बिजली बनाना तो संभव है ही, प्रो. हॉफस्ट्रैंड ने बताया कि फसलों के अवशेष को सिंथेटिक गैस बनाने के लिए गैसिफिकेशन में फीड स्टॉक के रूप में भी इस्तेमाल किया जा सकता है। सिंथेटिक गैस से बिजलीघर चलाए जा सकते हैं, कई तरह के केमिकल्स का उत्पादन हो सकता है और इथेनॉल, पेट्रोल और डीजल भी बनाया जा सकता है। फसलों के अवशेष का इस्तेमाल बायोगैस के रूप में भी हो सकता है क्योंकि पराली या दूसरी फसलों के डंठल में मीथेन और कार्बन डाई आक्साइड भरपूर मात्रा में होती है। इस बायोगैस का उपयोग खाना बनाने में हो सकता है और इसे अगर प्राकृतिक गैस की तरह उच्च दाब के साथ सिलेंडर में भर दिया जाए, तो इसे सीएनजी के विकल्प के रूप में मोटर गाड़ियों में भी इस्तेमाल किया जा सकता है।

जागो भारत जागो

भारत में पराली जलाकर पिंड छुड़ाने की मानसिकता बदलने में पहले ही बहुत देर हो चुकी है। बायोइथेनॉल की जरूरत 2003 में ही महसूस कर ली गई थी लेकिन बायोइथेनॉल पैदा करने के लिए गन्ने के अलावा पराली भी विकल्प है, इसके बारे में किसी ने नहीं सोचा।

भारत में सिर्फ यातायात के साधनों को चलाने के लिए 2015 में 134 अरब लीटर पेट्रोल की खपत हुई थी। अनुमान है 2026 तक यहां पेट्रोल डीजन की खपत बढ़कर 225 अरब लीटर हो जाएगी। हमें आज 142 अरब डॉलर से ज्यादा का कच्चा तेल आयात करना पड़ रहा है। ऐसे में यह जरूरी हो गया है कि हम अपने भविष्य की खातिर पेट्रोल-डीजल के विकल्प के रूप में इथेनॉल को बढ़ावा दें। कच्चे तेल की खरीद डॉलर में होती है। गंभीरता से सोचेंगे तो इथेनॉल का फायदा आसानी से समझ में आ जाएगा। दस साल आगे की सोचेंगे तो महसूस होगा कि अगर जल्दी से जल्दी पेट्रोल-डीजल में बीस प्रतिशत बायोइथेनॉल मिक्स करने की योजना पूरे देश में लागू हो गई तो देश को बीस फीसदी कम तेल आयात करना पड़ेगा। कच्चा तेल खरीदने के लिए डॉलर पर निर्भरता कम होगी तो डॉलर की कीमतें औकात में रहेंगी। बायोइथेनॉल के उत्पादन की क्षमता का दोहन बढ़ेगा। देश में बायोइथेनॉल उत्पादन करने वाले प्लांट लगेंगे तो रोजगार के अवसर भी पैदा होंगे और पराली जैसे फसली अवशेषों को जलाने की नौबत नहीं आएगी।

मत जलाओ, इससे बाइक चलाओ

Bioethanol Production from Rice Straw | Indian Industry Plus

पुणे के पास एक कंपनी ने राइस और कॉटन स्ट्रॉ से बायोइथेनॉल बनाने का प्लांट चालू किया है। इथेनॉल को पेट्रोल-डीजल का विकल्प दुनिया का कई देशों की तरह भारत ने भी मान लिया है। इसलिए अब टीवीएस कंपनी ऐसी मोटरसाइकिलें बना रही है, जिनमें फ्लेक्सी इंजन है। ऐसा इंजन जो पेट्रोल से भी चलता है और इथेनॉल से भी।

अब तक देश में इथेनॉल को लेकर नीति ही साफ नहीं रही है। अब सरकार ने नई इथेनॉल नीति बना ली है। नितिन गडकरी का अनुमान है कि अगर पराली और दूसरे बायोमॉस (फसलों के अवशेष) का पूरा इस्तेमाल किया जाए तो एक हजार बायोइथेनॉल बनाने वाले प्लांट तुरंत शुरू हो सकते हैं। एक प्लांट की औसत लागत 200 करोड़ रुपये आती है। दो लाख करोड़ का उद्योग खड़ा हो सकता है। यह 20 लाख लोगों को प्रत्यक्ष और 30 लाख लोगों को अप्रत्यक्ष, यानी करीब पचास लाख लोगों को रोजगार देने में सक्षम है।

(लेखक इलेक्ट्रानिक मीडिया के जाने-माने पत्रकार हैं)


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