50 की उम्र में अचानक नौकरी जाने की आपदा को अवसर में कैसे बदला

Govind Singh, Journalistगोविन्द सिंह।

पिछले हफ्ते मैंने अपने फेसबुक पन्ने पर एक छोटी-सी कथा पोस्ट की थी, राकेश जी की। तो देखते ही देखते हमारे अनेक मित्रों ने न सिर्फ उसे पसंद किया बल्कि राकेश जी की हिम्मत, धैर्य और जन्मभूमि के प्रति उनके लगाव की जम कर सराहना की। कुछ मित्रों ने उनकी पूरी कथा लिखने का भी आग्रह किया। उसी के फलस्वरूप यह कथा प्रस्तुत है।

राकेश डेंड्रियाल वर्ष 2000 से ‘आजतक’ में काम कर रहे थे। उसके रिसर्च और रेफरेंस विभाग के प्रभारी थे। पांच साल पहले एक दिन अचानक उन्हें पता चला कि उनकी कंपनी में छंटनी हो रही है, जिसमें उनका भी नंबर आ गया है। तब उनकी उम्र 50 साल की थी। अब आप सोचिए कि तीन बच्चे कॉलेजों में पढ़ रहे हों- परिवार में एक ही व्यक्ति नौकरीपेशा हो- तो उसके ऊपर क्या गुजरेगी। यही नहीं, उसी बीच उन्हें एक अजीब सी बीमारी ने भी आ घेरा। काफी पूंजी उसमें भी खर्च हो गयी। पत्रकारिता के नए दौर में 50 की उम्र में नई नौकरी मिलनी भी मुश्किल होती है। दूसरी जगह कोई उतनी तनख्वाह देने को राजी नहीं होता। दो-एक जगह उन्हें नौकरी मिली भी, लेकिन मन नहीं लगा। अंत में उन्होंने अपने गाँव की बंजर हो रही जमीन पर काम करने का मन बनाया। इसमें उनकी पत्नी ने भी उनका साथ देने का वादा किया। हालांकि यह फैसला भी आसान नहीं था। 30-32 साल दिल्ली में रहते हुए हो गए थे। बच्चे यहीं पले- बड़े हुए। लेकिन कोई विकल्प भी नजर नहीं आ रहा था। इस तरह एक नई यात्रा शुरू हुई।

नई पहल की हिम्मत

उनका गाँव अल्मोड़ा जिले के स्याल्दे ब्लाक के कुमाऊं-गढ़वाल के बॉर्डर पर बसा हुआ है। गांव का नाम है- घटबगड़। यह इलाका लखोरा घाटी के नाम से जाना जाता है। गांव के ज्यादातर युवा रोजगार की तलाश में देश के विभिन्न शहरों की ओर रुख कर चुके हैं। गांव में अगर कोई रुके हैं तो वो हैं रिटायर्ड फौजी या फिर उनकी पत्नियां। उत्तराखंड के ज्यादातर गांवों में अब बड़े-बूढ़े ही नजर आते हैं। खेती से लोगों का अजीब-सा मोहभंग हो चुका है। गांव की अधिकतर जमीन बंजर हो चुकी है। तो राकेश जी ने अपने परिवार की बंजर होती जमीन पर सेब लगाने की ठानी। उत्तराखंड में सेब उत्पादन की सारी स्थितियां मौजूद हैं। 50 साल पहले अलग-अलग ब्लोकों में सरकारी स्तर पर बागवानी के प्रयास हुए भी। कुछ जगहों पर सेब का उत्पादन भी होने लगा। रानीखेत, मुक्तेश्वर, रामगढ़, और उत्तरकाशी के हिमाचल से सटे गांवों में सेब का वाणिज्यिक उत्पादन हुआ भी। लेकिन धीरे-धीरे सब सिमटने लगा। ऐसे में किसी नई पहल के लिए हिम्मत चाहिए।

सेब पूर्ण रूप से आर्गेनिक

राकेश जी ने सबसे पहले हिमाचल प्रदेश के कई सेब बागान मालिकों से संपर्क किया। अंत में उन्होंने सोलन की रजत बायोटेक नाम की संस्था से 100-100 पौधे तीन किस्तों में 350 रुपये की दर से खरीदे। पेड़ दिल्ली पहुंचे, यहाँ से उन्हें बस के जरिये गांव तक पहुँचाया गया। पति-पत्नी, बच्चों व गांव के तीन युवकों ने पेड़ लगाने में उनकी सहायता की। खैर जैसे-तैसे दंपती ने 2019 के दिसंबर में 200 पेड़ों को लगाया, जिन पर पिछली अप्रैल में सेब की पहली फसल देखने को मिली… और इस बार 300 पेड़ों में फल लगे हैं। अगले साल तक उम्मीद है कि सारे 300 पेड़ों में फल लगेंगे। अभी तक राकेश जी इनका व्यावसायिक इस्तेमाल नहीं कर पाए हैं। अगले साल से करेंगे। ये सेब देखने में एकदम कश्मीरी सेब जैसे दिखते हैं। स्वाद में भी काफी अच्छे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि ये सेब पूर्ण रूप से आर्गेनिक हैं। गोबर की खाद के अलावा इसमें समय समय पर पानी के अलावा कुछ नहीं दिया गया है।

हिलोरें ले रहा नया जोश

राकेश जी को इन तीन वर्षों में अनेक दिक्कतों का सामना करना पड़ा है। दुर्भाग्य से पिछले 50 वर्षों में पहाड़ी लोगों के दिलो-दिमाग से उद्यमिता की भावना पूरी तरह से तिरोहित हो चुकी है। आप कितना ही अच्छा आईडिया लेकर जाइए, लोग आपको हतोत्साहित ही करेंगे। फिर बाहर से जाने वाले लोगों को, चाहे वे अपने ही क्यों न हों, वे बहुत पैसे वाले समझते हैं। उनसे कोई ख़ास सहयोग नहीं मिलता। मजदूर मिलना भी मुश्किल होता है। ऊंचे पहाड़ों में भी आपको नेपाली मजदूर मिल जायेंगे, लेकिन पहाड़ी नहीं। युवक दिल्ली, लखनऊ जाकर होटलों में बर्तन साफ़ करना अच्छा समझते हैं, अपने गाँव में रहकर काम करने में उन्हें शर्म आती है।

लेकिन अब जब ये ही लोग फलों से लदे पेड़ देख रहे हैं तो उनके अन्दर भी नया जोश हिलोरें ले रहा है। यही राकेश दम्पति की कामयाबी है। इसलिए उम्मीद है कि राकेश जैसे और युवा भी बागवानी को अपनाएंगे और उत्तराखंड को एक सफल बागवानी-प्रदेश बनायेंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मास कम्युनिकेशन (आईआईएमसी), दिल्ली में प्रोफेसर हैं)