#pradepsinghप्रदीप सिंह।
पिछले कुछ समय की घटनाओं, बयानों और जो कुछ अदालतों में और सरकार के बीच हो रहा है उसे ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट केंद्र सरकार से दो-दो हाथ करने को बड़ा बेचैन है। सुप्रीम कोर्ट के फैसलों, टिप्पणियों या कोर्ट के बाहर विभिन्न कार्यक्रमों में चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) या दूसरे जज जो बोलते हैं उनसे ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट सरकार भी चलाना चाहता है, सरकार के राजनीतिक अधिकारों में अनाधिकार घुसना चाहता है। साथ ही वह कानून भी बनाना चाहता है। यह सार्वभौम देश है, यहां कानून बनाने का अधिकार संविधान ने संसद को दिया है। मगर सुप्रीम कोर्ट भी कानून बनाना चाहता है और खासतौर से ऐसे मामलों में जिन पर अभी कानून नहीं है। उसका यह रवैया रहता है कि जब तक आप कानून बनाएंगे तब तक हम जो कानून तय कर रहे हैं उसके मुताबिक चलिए।
सुप्रीम कोर्ट को इस बात की चिंता नहीं है कि बेतहाशा बढ़ती जा रही लंबित मुकदमों की संख्या को कैसे कम किया जाए। वह इस पर चिंता तो जताता है लेकिन उसका नतीजा कुछ निकलता नहीं है। ताजा विवाद मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति का है। सुप्रीम कोर्ट चाहता है कि उनकी नियुक्ति में भी सुप्रीम कोर्ट का दखल हो। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि सरकार उनकी नियुक्त करती है इसलिए जिसकी भी नियुक्ति होगी वह सरकार का वफादार होगा। जो अफसर आपके मनमाफिक होंगे, जो आपकी चमचागिरी करेंगे आप उनकी नियुक्ति करेंगे। मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति नहीं होती है, चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति होती है। उनमें से जो सबसे वरिष्ठ होता है उनको मुख्य चुनाव आयुक्त बनाया जाता है। 1991 में जो कानून बना उसके जरिये मुख्य चुनाव आयुक्त का अधिकतम कार्यकाल 6 साल या 65 साल की उम्र तक तय कर दिया गया। यानी इनमें से जो भी पहले होगा वह मान्य होगा। मुख्य चुनाव आयुक्त को सीधे हटाया नहीं जा सकता। उनको हटाने की पद्धति वही है जो सुप्रीम कोर्ट के जजों और सीजेआई की है यानी महाभियोग के जरिये। अब आप देखिए कि सुप्रीम कोर्ट किस तरह से परस्पर विरोधी बातें कर रहा है। वह बड़े अफसोस के साथ कह रहा है कि काश टीएन शेषन जैसा कोई चुनाव आयुक्त हो जो प्रधानमंत्री के खिलाफ कार्रवाई कर सके। यह बात सुनवाई के दौरान टिप्पणी में कही गई है। आखिर सुप्रीम कोर्ट को ऐसे मुख्य चुनाव आयुक्त की तलाश क्यों है जो प्रधानमंत्री के खिलाफ कार्रवाई कर सके। जबकि ऐसा चुनाव आयुक्त होना चाहिए जो जहां जरूरत है वहां कार्रवाई करे, न कि फलां के खिलाफ करे और दूसरे के खिलाफ न करे।

मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति पर बेवजह रार

सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान पीठ इस मामले की सुनवाई कर रही है जिसका नेतृत्व कर रहे हैं जस्टिस जोसेफ। कहा यह जा रहा है कि मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए एक पैनल बने और उसमें सीजेआई भी हों। जिन टीएन शेषन की इतनी तारीफ हो रही है अगर उस समय पैनल होता और उसमें सीजेआई रहे होते तो उनकी नियुक्ति ही नहीं होती। टीएन शेषन गांधी परिवार के करीबी माने जाते थे। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहते कैबिनेट सचिव के रूप में उनका जिस तरीके का राजनीतिक हस्तक्षेप था पूरे देश में चर्चा का विषय बना था। उनका तो नाम ही खारिज हो जाता। सुप्रीम कोर्ट यह भूल जा रहा है कि शेषन की नियुक्ति पॉलिटिकल एग्जीक्यूटिव ने ही की थी। साथ ही दुनिया भर में भारत के चुनाव आयोग की निष्पक्षता की चर्चा होती है। चुनाव आयोग जिस तरह से चुनाव आयोजित कराता है उसकी दुनिया भर में प्रशंसा होती है। कई देशों में हमारे मुख्य चुनाव आयुक्त को चुनाव कराने के लिए या सुपरवाइज करने के लिए बुलाया जाता है। इसके बावजूद इस व्यवस्था में सुप्रीम कोर्ट को घुसना है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट को पॉलिटिकल एग्जीक्यूटिव के बराबर होना है, प्रधानमंत्री के साथ बैठना है। कहीं न कहीं उसके मन में यह भाव है कि हम प्रधानमंत्री से ऊपर हैं। चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया को एक तरह से दैवीय शक्ति प्राप्त है कि वह जहां पहुंचेंगे वहां सब कुछ ठीक हो जाएगा, किसी तरह की गड़बड़ी नहीं होगी, सब कुछ पारदर्शी होगा। अरे हुजूर, आप अपने यहां जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता लाइए। कॉलेजियम सिस्टम जिस तरह से काम करता है उसमें पारदर्शिता लाइए। जस्टिस रूमा पाल ने एनजेएसी (नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइटमेंट कमीशन) की सुनवाई के बाद कहा था कि कॉलेजियम सिस्टम आई स्क्रैच योर बैक, यू स्क्रैच माईन (यानी मैं तेरी पीठ खुजाऊंगा, तू मेरी खुजा) के सिद्धांत पर चलता है। उन्होंने एक बात और कही थी। उन्होंने कहा था कि इस सिस्टम में जजों की नियुक्ति पर जो सहमति बनती है वह लेनदेन के आधार पर बनती है। अगर किसी एक जज की नियुक्ति पर कॉलेजियम में मतभेद हो गया तो वह दूसरे से कहता है कि आपका भी एक कैंडिडेट ले लेते हैं। कॉलेजियम में शामिल सभी जजों का अपना-अपना कैंडिडेट होता। इस तरह लेनदेन से समझौता हो जाता है। कॉलेजियम पर भाई-भतीजावाद का आरोप लगता है।

कॉलेजियम की खामियों पर चुप्पी

सुप्रीम कोर्ट सरकार से कह रहा है कि हाल ही में मुख्य चुनाव आयुक्त की जो नियुक्त आपने की है उनकी नियुक्ति से संबंधित फाइल दिखाइए कि उसमें क्या लिखा है। मगर सुप्रीम कोर्ट कभी यह नहीं बताता है कि उसके कॉलेजियम की जो बैठक होती है उसमें क्या फैसला होता है, कैसे होता है और किस आधार पर होता है। उसके कोई मिनट्स नहीं बनते हैं। अगर कोई 5-10 साल बाद यह जानना चाहे कि किसी जज की नियुक्ति क्यों और कैसे हुई थी, क्या योग्यता देखकर उसका चुनाव किया गया था तो आपको पता नहीं चलेगा। यह सिस्टम पूरी तरह अपारदर्शी है। इसमें जवाबदेही का अभाव नजर आता है। अब दूसरा मामला देखिए कि सीजेआई के आने से क्या होता है। सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति का जो पैनल है उसमें तीन सदस्य होते हैं। प्रधानमंत्री, चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया और लोकसभा में विपक्ष के नेता। अभी हाल ही में इस पैनल ने सुबोध कुमार जयसवाल को सीबीआई के निदेशक के रूप में चुना है। इसके लिए जो नाम आ रहे थे उनके लिए सीजेआई की ओर से कहा गया कि जिनका रिटायरमेंट करीब है उनका नाम हटा दीजिए। अब आप देखिए कि सुप्रीम कोर्ट में क्या होता है। वर्ष 2000 से लेकर अब तक 22 साल में ऐसे सीजेआई नियुक्त हुए हैं जिनका कार्यकाल 30 दिन से लेकर छह महीने तक का भी रहा। तब सुप्रीम कोर्ट को यह ख्याल नहीं आया कि उनका कार्यकाल इतना कम क्यों रहा। अगर वह किसी तरह का बुनियादी बदलाव या नीतिगत बदलाव लाना चाहें तो इतने कम समय में काम कैसे करेंगे। इस पर कभी सुप्रीम कोर्ट कुछ नहीं बोलता। दूसरी बात सुनवाई के दौरान जस्टिस जोसेफ ने कही कि 26 साल में 15 मुख्य चुनाव आयुक्त बने हैं। सुप्रीम कोर्ट को यह चुनाव आयोग की स्वतंत्रता, निष्पक्षता पर खतरे के रूप में नजर आता है। उन्हें पूरे इंस्टिट्यूशन को अंडरमाइंड करने जैसा लगता है। अब आप देखिए कि सुप्रीम कोर्ट का क्या हाल है। पिछले 24 साल में 22 सीजेआई बन चुके हैं। कार्यकाल की गारंटी चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया की क्यों नहीं होनी चाहिए। इस पर सुप्रीम कोर्ट कुछ नहीं बोलेगा।

क्या सीजेआई को दैवीय शक्ति प्राप्त है?

मैं यह सवाल उठा रहा हूं कि क्या सीजेआई को कोई दैवीय शक्ति प्राप्त है। अगर मान लीजिए कि दैवीय शक्ति प्राप्त है, उनके आने से सब कुछ ठीक हो जाएगा, परिस्थितियां बदल जाएंगी, सब कुछ पारदर्शी हो जाएगा तो एनजेएसी में सीजीआई के रहने से ऐसा क्यों नहीं हो रहा था। जब 2015 में नेशनल ज्यूडिशल अपॉइंटमेंट कमीशन (एनजेएसी) बना था जो संसद से सर्वसम्मति से पास हुआ था और जिसमें सीजेआई भी थे उसे सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया। बहुत कम कानून हैं जो संसद में सर्वसम्मति से पास होते है। उस कमेटी में सीजेआई के रहने से सिस्टम क्यों नहीं पारदर्शी हो गया। जबकि जिस सुबोध कुमार जयसवाल को सीजेआई वाले पैनल ने सीबीआई निदेशक नियुक्त किया है उन्हीं के कामकाज के तरीके पर सुप्रीम कोर्ट सवाल उठा चुका है। सीजीआई के कमेटी में रहने से इस बात की गारंटी कैसे हो सकती है कि जो भी नियुक्ति होगी वह बिल्कुल पारदर्शी होगी। जिसका चयन होगा वह योग्यता के हर मापदंड पर खरा उतरेगा। ऐसा न पहले हुआ है और न अब हो रहा है। 1950 में जब सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया का गठन हुआ उसके बाद के 48 सालों में यानी 1988 में जब कॉलेजियम सिस्टम शुरू हुआ उससे पहले उन 48 सालों में 28 सीजेआई की नियुक्ति हुई। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि सीजेआई के कार्यकाल को पॉलिटिकल एग्जीक्यूटिव ने ज्यादा सुरक्षित किया या कॉलेजियम सिस्टम ने। कॉलेजियम सिस्टम ने सुप्रीम कोर्ट के 111 जजों की नियुक्ति की है। जब वह नियुक्ति करता है तो उसी दिन से उसको मालूम होता है कि इनमें से कौन चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया बनेगा। सुप्रीम कोर्ट के जज के रूप में और सीजेआई के रूप में उसका कार्यकाल क्या होगा। ऐसे जजों की नियुक्ति क्यों होती है जिसका कार्यकाल 30 दिन, 60 दिन, 90 दिन, 3 महीने या 6 महीने हो। इसके बारे में सुप्रीम कोर्ट की कोई राय नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट-सरकार में तकरार लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं

अटॉर्नी जनरल और सॉलिसिटर जनरल ने कहा है कि मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति राष्ट्रपति करते हैं। यह पॉलिटिकल एग्जीक्यूटिव का फैसला है। अगर अदालत इसमें दखल देती है तो यह संविधान की शक्तियों का बंटवारा होगा, न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के अधिकारों का अतिक्रमण होगा। यह अतिक्रमण अब अपवाद की बजाय एक नियम बनता जा रहा है। पॉलिटिकल एग्जीक्यूटिव और संसद के अधिकारों के दायरे में सुप्रीम कोर्ट के घुसने और उसमें अतिक्रमण करने का एक तरह का नियम बनता जा रहा है। यह दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। इसको कहीं तो रोकना पड़ेगा। यह मानना कि सुप्रीम कोर्ट के जज या सीजेआई जो भी फैसला करेंगे वह पारदर्शी होगा, निष्पक्ष होगा, सदाशयता से सारे फैसले होंगे और जो पॉलिटिकल एग्जीक्यूटिव करेगी उसमें सब बेमानी होगी, पक्षपात होगा, भाई-भतीजावाद होगा ऐसे डेमोक्रेसी नहीं चल सकती। यह डेमोक्रेसी के लिए बड़े खतरे की बात है। प्रधानमंत्री का जो पद है उसकी एक अथॉरिटी होती है। वह चुनकर आता है। जनता के प्रति उसकी जवाबदेही होती है। हर पांच साल में उसको जनता के सामने जाकर अपने कामकाज का लेखा-जोखा देना होता। वह संसद के प्रति जवाबदेह होता है। जबकि सुप्रीम कोर्ट संविधान के प्रति जवाबदेह होता है। संविधान में यह कहीं नहीं लिखा है कि मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति में सुप्रीम कोर्ट या सीजेआई का कोई दखल होगा। संविधान में जो लिखा है आप उसको मानने को तैयार नहीं हैं, संसद में सर्वसम्मति से जो कानून बने आप उसको मानने को तैयार नहीं हैं, आप पॉलिटिकल एग्जीक्यूटिव के फैसले को मानने को तैयार नहीं हैं तो आप देश को किस ओर ले जाना चाहते हैं। यह भारतीय जनतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है। अच्छा हो कि सुप्रीम कोर्ट अपने को वही तक वहीं तक सीमित रखे जो अधिकार उसको संविधान ने दिया है, यानी संविधान की व्याख्या करना, कानून को उस कसौटी पर कसना कि जो संविधान के प्रावधान हैं उन पर खरा उतरता है कि नहीं, इसके अलावा मुकदमों का फैसला त्वरित गति से कैसे हो, कैसे गरीब आदमी भी अदालत से न्याय पा सके इसकी कोशिश करना।
मैं पहले भी यह कह चुका हूं कि दुनिया में कहीं भी ऐसा नहीं होता कि जज ही जज की नियुक्ति करें। यह सिर्फ भारत में हो रहा है। कानून मंत्री किरण रिजूजू कई बार कह चुके हैं कि कॉलेजियम सिस्टम ठीक नहीं है। यह पारदर्शी नहीं है, इसको बदला जाना चाहिए। शायद सुप्रीम कोर्ट उसका जवाब देने की कोशिश कर रहा है कि हम आपके फैसलों पर सवाल उठाएंगे, जो हमारा दायरा नहीं है उसके बाहर जाकर सवाल उठाएंगे। यह जो टर्फ वार है यह डेमोक्रेसी के लिए अच्छा नहीं है। सुप्रीम कोर्ट को, खासतौर से सीजेआई को इस बात को समझना चाहिए कि उन्हें कोई दैवीय शक्ति प्राप्त नहीं है। जितना भाई-भतीजावाद राजनीति में है उससे कम  हमारी न्याय व्यवस्था में नहीं है। सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट के जज इसके बारे में कुछ क्यों नहीं करते। यह क्यों होता है कि जो नियुक्ति आपके हाथ में है उसमें परिवारवाद, भाई-भतीजावाद चलता है। पॉलिटिकल एग्जीक्यूटिव के हाथ में नियुक्ति होती और तब आप सवाल उठाते तो भी समझ में आता। अब आप खुद ही जजों की नियुक्ति करते हैं, उसमें इस तरह की गलतियां क्यों होती है, उसमें इस तरह का मनमानापन क्यों होता है? ये ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब देश अपनी न्यायपालिका से जानना चाहता है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ न्यूज पोर्टल एवं यूट्यूब चैनल के संपादक हैं)