उमेश चतुर्वेदी ।
रिपब्लिक टीवी के प्रोमोटर और संपादक अर्णब गोस्वामी की अंतरिम जमानत को बहाल करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने जो कहा है, उसके निहितार्थ बेहद गहरे हैं। हम अपनी जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था का गुणगान करते नहीं थकते, उसने कई बार निराश भी किया है। उसे निजी पूर्वाग्रहवश फैसले लेने या अपने खिलाफ आवाज उठाने वाले को प्रताड़ित करने से परहेज नहीं रहा है। हमारे संविधान निर्माताओं को शायद ऐसी स्थितियों की आशंका थी। शायद यही वजह है कि उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत संवैधानिक उपचार का अधिकार हर नागरिक को दिया था।
नागरिक की स्वतंत्रता की रक्षा
चूंकि यह उपचार अदालतें ही कर सकती हैं, लिहाजा संवैधानिक रूप से इस उपचार की जिम्मेदारी हाईकोर्ट के अधिकार में निहित की गई। लेकिन अर्णब गोस्वामी के मामले में बांबे हाईकोर्ट की भूमिका निराश करने वाली रही है। शायद यही वजह है कि सर्वोच्च न्यायालय को कहना पड़ा है कि बांबे हाईकोर्ट ने एक नागरिक की स्वतंत्रता की रक्षा करने के अपने अधिकार का इस्तेमाल नहीं किया, जिसने उसके समक्ष यह कहा कि अपने टीवी चैनल पर उसने जो विचार जाहिर किए, उसके लिए महाराष्ट्र सरकार उसे निशाना बना रही है।
हाईकोर्ट की भूमिका पर सवाल
अर्णब गोस्वामी को चार नवंबर को मुंबई पुलिस ने इंटीरियर डेकोरेटर अन्वय नाइक की आत्महत्या के मामले में गिरफ्तार किया था। इसके पहले अर्णब को अंतरिम जमानत मिली थी। जिसे मुंबई पुलिस ने हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। हाईकोर्ट ने उसे खारिज कर दिया था। उसके बाद उन्हें गिरफ्तार किया गया। अर्णब ने इसके खिलाफ बांबे हाईकोर्ट में अपील की थी। लेकिन उन्हें हाईकोर्ट से राहत नहीं मिली। तब जाकर उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। जिस पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 11 नवंबर को जमानत दे दी थी। इसी मामले की अगली सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने बांबे हाईकोर्ट की भूमिका पर सवाल उठाए। 27 नवंबर को इस मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बांबे हाईकोर्ट पर जो टिप्पणी की है, वह भविष्य के ऐसे मामलों के लिए ना सिर्फ नजीर बनेगी, बल्कि निजी आग्रहों से कार्रवाई करने वाली कार्यपालिका के अलंबरदारों को चेताती रहेगी। सुप्रीम कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में कहा है, ‘हाई कोर्ट ने अंतरिम जमानत अर्जी को खारिज करते वक्त इस तथ्य की अनदेखी की कि एफआई में दिए गए तथ्यों के मुताबिक, प्रथम दृष्टया अर्नब गोस्वामी के खिलाफ आत्महत्या के प्रयास का मामला नहीं बनता।’
सर्वोच्च न्यायालय में अनु. 32 के तहत याचिकाओं की भरमार
अर्णब के संदर्भ में बांबे हाईकोर्ट की भूमिका की सुप्रीम कोर्ट द्वारा आलोचना किए जाने के संदेश साफ हैं। यह कि कई बार हाईकोर्ट भी नागरिक को मिले संवैधानिक उपचार के अधिकारों का सही तरीके से इस्तेमाल नहीं करते। इस वजह से लोग सीधे सर्वोच्च न्यायालय के पास आ रहे हैं। इस प्रवृत्ति से सर्वोच्च न्यायालय भी चिंतित है। 20 नवंबर को देश के प्रधान न्यायाधीश शरद ए बोबड़े ने इस मामले में हाईकोर्टों द्वारा गंभीरता पूर्वक भूमिका ना उठाए जाने पर चिंता भी जताई थी। उन्होंने कहा था, “सर्वोच्च न्यायालय में अनुच्छेद 32 के तहत दायर याचिकाओं की भरमार हो गई है और लोग अपने मौलिक अधिकारों के हनन की स्थिति में संबंधित उच्च न्यायालय जाने की बजाय सीधे सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दायर कर रहे हैं, जबकि संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालयों को भी ऐसे मामलों की सुनवाई का अधिकार है।”
सर्वोच्च न्यायालय की इन टिप्पणियों से दो बात जाहिर होती हैं। कम से कम अर्णब के मामले में कार्यपालिका ने जहां बदले की नीयत से कार्यवाही की, वहीं हाईकोर्ट ने इस नीयत पर रोक लगाने की कोशिश नहीं की। चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने इस पर कड़ी टिप्पणी की है, इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में ऐसी कार्रवाई करने के पहले कार्यपालिका जहां हिचकेगी, वहीं ऐसी कार्रवाई होने के बाद पीड़ित की बात सुनने के लिए हाईकोर्ट बाध्य होंगे।