रमेश शर्मा।
भारतीय स्वाधीनता संग्राम में हमें चार प्रकार के संघर्ष पढ़ने को मिलते हैं। एक स्वत्व और स्वाभिमान का संघर्ष, दूसरा समाज उत्थान के लिये संघर्ष, तीसरा पराधीनता से मुक्ति या सत्ता में सहभागिता के लिये संघर्ष और चौथा राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा के लिए संघर्ष और बलिदान। स्वामी श्रृद्धानंद (22 फरवरी 1856 – 27 दिसम्बर 1926) उन बलिदानियों में अग्रणी हैं जिन्होंने तीन प्रकार का संघर्ष किया। स्वत्व और स्वाभिमान जागरण का संघर्ष, समाज उत्थान का संघर्ष एवं राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा के लिए संघर्ष। इसी राह में उनका जीवन समर्पित रहा और इसी राह पर उनके प्राणों का बलिदान हुआ।
स्वामी श्रद्धानंद का जन्म 22 फरवरी 1856 जालंधर में हुआ था। उनके पिता उत्तरप्रदेश में पुलिस में अधिकारी थे। पर पिता स्वामी दयानंद सरस्वती के संपर्क में आ गये थे। इस नाते उनके घर का वातावरण शुद्ध वैदिक सनातनी था। पिता नानक राम विंज ने अंग्रेजों द्वारा 1857 का दमन उन्होंने अपनी आँखो से देखा था। जिसे देखकर उनके मन में अंग्रेजों और अंग्रेजी राज्य के प्रति घृणा का भाव आ गया था। वे इसलिये भारतीयों में आत्मवोध संगठन और दूरदर्शिता का अभाव मानते थे। इसलिये वे चाहते थे कि उनका बालक बड़ा होकर भारतीय परंपराओं के अनुरूप ढले। उन्होंने अपने बालक का नाम मुंशीराम विज रखा गया। पुलिस अधिकारी पिता नानक राम विंज की मानसिकता से तत्कालीन प्रशासनिक अधिकारी अवगत थे इसलिए उनके बार बार स्थानांतरण हुये। इस कारण बालक मुंशीराम की आरंभिक सारी पढ़ाई उत्तर प्रदेश और पंजाब के विभिन्न नगरों में हुई। इससे मुंशी राम विंज अलग-अलग नगरों के अलग-अलग मनौवैज्ञान से अवगत होते गये और उनके मन में भारतीय जनों की दुर्दशा का दर्द पनपता गया। समय के साथ उन्होंने वकालत पास की। वे चाहते तो वकालत से अपना भविष्य बना सकते थे। पर पिता के प्रोत्साहन के बाद भारत को समझने केलिये हिन्दी-अंग्रेजी संस्कृत तथा उर्दू भाषा का आधिकारिक ज्ञान भी प्राप्त किया। उनकी यह विशेषता थी कि जब वे जिस भाषा में लिखते या बोलते थे तो केवल उसी भाषा के शब्द उपयोग करते थे। किसी और भाषा का कोई शब्द उपयोग नहीं करते थे। समय के साथ विवाह हुआ उनकी पत्नि का नाम शिवादेवी था।
एक दिन पिता अपने युवा पुत्र मुंशी राम को स्वामी दयानंद सरस्वती के प्रवचन सुनने के लिये साथ ले गये। प्रवचन में तर्क सहित भारतीय वैदिक परंपरा सुनकर युवा वकील मुंशीराम बहुत प्रभावित हुये और आर्य समाज से जुड़ गये। यद्यपि उन्होंने अभी संयास न लिया था पर स्वामी दयानंद सरस्वती ने उन्हें श्रद्धानंद नाम दिया चूँकि वे श्रद्धा से जुड़े थे। इसके साथ जालंधर में आर्य समाज के जिला अध्यक्ष का भी दायित्व मिला। 1891 में पत्नि शिवादेवी का निधन हो गया। उन दिनों उनकी आयु 35 वर्ष थी। दो पुत्र थे। परिवार ने दूसरा विवाह करने का प्रस्ताव किया पर वे न माने और अपना पूरा जीवन राष्ट्र और संस्कृति को समर्पित करने के संकल्प के साथ उन्होंने विधिवत सन्यास ले लिया और स्वामी दयानन्द द्वारा दिया गया नाम ही अपनी पहचान बनाया। अब उनके जीवन, चिंतन और लेखन की दिशा बदल गई उन्होंने समाज सेवा, वैदिक संस्कृति के प्रचार, कुरीतियों के निवारण और समाज में फैली भ्रांतियों के निवारण का अभियान चलाया। अनेक शिक्षा संस्थान स्थापित किये। उन्होंने 1901 में गुरुकुल काँगड़ी की स्थापना हरिद्वार में की। यह समय की बात है जब गाँधी जी दक्षिण अफ्रीका में संघर्ष कर रहे थे। तब यह जानकारी में आया कि गाँधी जी को अपने संघर्ष के लिये अर्थाभाव हो रहा है। स्वामी श्रृद्धानंद जी ने गुरुकुल में पढ़ रहे अपने विद्यार्थी परिवारों से धन संग्रह किया पन्द्रह सौ रुपया गाँधी जी को भेजा। अपने इतने सभी कार्यों के साथ वे स्वाधीनता संग्राम में भी सक्रिय हिस्सा लेने लगे। वे कांग्रेस के सदस्य बने और सन्यासी वेष में ही कांग्रेस के अधिवेशनों में भाग लेते थे। स्वामी श्रृद्धानंद जी कांग्रेस में कितने महत्वपूर्ण थे इसका संकेत इस बात से मिलता है कि 1919 में काँग्रेस के 34 वें अधिवेशन में वे स्वागत अध्यक्ष थे। और उन्होंने अपना स्वागत भाषण हिन्दी में दिया था।
उन्होंने पूरे देश में सामाजिक समरता का अभियान चलाया। यह अभियान हिन्दु समाज में कुरीतियों के निवारण, जाति भेद समाप्त करने तक ही सीमित न था। वे हिन्दु और मुसलमानों के बीच भी समरस वातावरण बनाना चाहते थे। उनका तर्क था कि भारत में निवासरत मुसलमानों के पूर्वज भी वैदिक आर्य हैं। इसके लिये उन्होंने मुस्लिम समाज में अनेक सभायें की और समझाया कि पूजा पद्धति बदलने से पूर्वज नहीं बदलते। लोग अपने पंथ में अपनी पद्धति से जियें पर यह ध्यान रखें कि पूजा उपासना पद्धति के बदलाव से संस्कृति और राष्ट्र के क्षय नहीं होना चाहिए। उन्होंने तर्कों, तथ्यों के संदर्भों से प्रमाणित किया कि भारत में निवास करने वाले सभी लोगों के पूर्वज एक हैं। वे अकेले विद्वान थे जिन्होंने 1919 में दिल्ली की जामा मस्जिद प्रांगण में वेद की ऋचाओं से अपना संबोधन प्रारंभ किया और समापन अल्लाहो अकबर के उद्घोष से हुआ। तभी मलकान राजपूतों ने उनसे संपर्क किया इस समाज ने समय के साथ इस्लामिक धर्म तो अपनाया पर रूपांतरित न हो सके। उनके आग्रह पर स्वामी ने 1920 से शुद्धिकरण अभियान आरंभ किया। उत्तर प्रदेश, गुजरात, बंगाल, पंजाब, राजस्थान आदि अनेक प्रांतों में असंख्य लोगों की घर वापसी हुई। इससे कुछ कट्टरपंथी लोग उनसे भयभीत हो गये और उन्हे मार्ग से हटाने का षड्यंत्र रचने लगे। तभी 1922 आया। गाँधी जी ने असहयोग आंदोलन के साथ खिलाफत आँदोलन को जोड़ने का निर्णय ले लिया। स्वामी जी इससे सहमत नहीं हुये। उनके अतिरिक्त कांग्रेस में ऐसे अनेक नेता थे जिनके इस विषय मतभेद हुये। स्वामी जी का तर्क था खलीफा परंपरा का भारत का कोई संबंध नहीं। हमें सभी वर्गो को एक करके राष्ट्र संस्कृति के लिये काम करना चाहिए। तभी मालाबार में भयानक हिंसा हुई। वह हिंसा एकतरफा थी। मरने वाले हिन्दु थे जिन पर योजना बनाकर सशस्त्र हमला किया गया था। गाँव के गाँव लाशों से पट गये थे। लूट और स्त्रियों का अपहरण भी हुआ। स्वामी श्रृद्धानंद ने डाॅ हेडगेवार और डाॅ मिन्जे के साथ मालावार की यात्रा की। सत्य को सबके सामने रखा। पर बात न बनी। इस घटना के बाद वे कांग्रेस से दूर हो गये और पूरी तरह साँस्कृतिक जागरण और शुद्धि आंदोलन में लग गये। जो लोग भय या लालच में धर्मांतरित हो गये थे, ऐसे हजारों लोगों को सनातन धर्म में वापस लाये गये। स्वामी जी को मार्ग से हटाने के लिये कट्टरपंथियों ने एक योजना बनाई। अब्दुल रशीद नामक युवक को तैयार किया। युवक अब्दुल रशीद ने स्वामी जी के पास आना जाना आरंभ किया परिचय बढ़ाया और विश्वास भी अर्जित कर लिया और फिर अवसर देखकर 27 दिसम्बर 1926 को उसने गोली मारकर स्वामीजी की हत्या कर दी थी। इस प्रकार इस राष्ट्र और संस्कृति की रक्षार्थ उनका बलिदान हो गया।
स्वामी श्रद्धानन्द द्वारा वैदिक सिद्धांतों से सम्बंधित अनेक आलेख लिखे, व्याख्यान दिये और पुस्तकें लिखीं। उनमें प्रमुख रूप से आर्य संगीतमाला, भारत की वर्ण व्यवस्था, वेदानुकूल संक्षिप्त मनुस्मृति, पारसी मत और वैदिक धर्म, वेद और आर्यसमाज, पंच महायज्ञों की विधि, संध्या विधि, आर्यों की नित्यकर्म विधि, मानव धर्म शास्त्र तथा शासन पद्धति, यज्ञ का पहला अंग आदि हैं। इसके अतिरिक्त उर्दू में ‘सुबहे उम्मीद’ इसमें स्वामीजी ने मैक्समूलर के वेद मन्त्रों की व्याख्या की स्वामी दयानन्द के वेद भाष्य से तुलना कर महर्षि के भाष्य को श्रेष्ठ सिद्ध किया था। अंग्रेजी में द फ्यूचर ऑफ आर्यसमाज – ए फोरकास्ट पुस्तक में स्वामी जी ने आर्यसमाज के भविष्य की योजनाओं पर दिये गये विचार हैं। स्वामी जी ने उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी में पत्र-पत्रिकाएं निकाली गईं, जिनमें सद्-धर्म प्रचारक, श्रद्धा, तेज, लिबरेटर आदि हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)