बंसी कौल नाट्योत्सव -3
सत्यदेव त्रिपाठी ।
पहली कड़ी में नाट्योत्सव के पहले मंचन ‘बुद्धं शरणम् गच्छामि’ के संदर्भ में चांडाल व दलित तथा स्त्री व दलित आदि के साथ उसमें बौद्ध धर्म के योगदान की चर्चा हो चुकी है। और आज के दौर में इस विषय की कालबाह्यता (आउट आफ डेट होने) का सकारण उल्लेख भी हुआ है। हाँ, टैगोर काल तक इन विषयों की प्रासंगिकता अवश्य बनी रही, किंतु तब के लिखे को आज मंचित करने में भी टैगोरजी के सोच व क्लासिक सृजन के पुनरस्मरण के सिवा समकालीन संदर्भों में और कोई प्रासंगिकता बचती नहीं। 

दलित-कन्या होने की त्रासदी

नृत्य-नाटिका का रूप विधान अपने आप में क्लासिक होता है। और इस प्रदर्शन में तो शुभ्रा वर्मा की जैसी दीवानगी दिखी, वह तो चिर काल में क्लासिक होती है, जिसे फ़ैज़ साहब ने सदा सार्थक कहा है- ‘जुनूँ में जितनी भी गुजरी, ब-कार गुजरी है’। यह प्रस्तुति उनके सपने के साकार होने (ड्रीम प्रोजेक्ट) जैसा मंजर लगता है। प्रस्तुति के बाद की असीम परितृप्ति उनके समस्त हाव-भावों व देहगतियों -पग-चालन तक- में बिहँस रही थी। वही इस प्रस्तुति की परिकल्पक हैं, निर्देशक हैं, प्रकृति की मुख्य भूमिका में हैं। दलित-कन्या हैं। सबके लिए अस्पृश्य- सबसे उपेक्षित। इस अछूत व उपेक्षा के लिए दही-चूड़ी आदि के विक्रेता नियोजित हैं, जो सबको तो बेचते हैं, पर प्रकृति को वंचिता बनाकर ठगी-सी छोड़कर चले जाते हैं। इतनी-सी कथा के अति सत्वर रूपायन में दलित-कन्या होने की पूरी त्रासदी मुखर ही नहीं होती, सालने भी लगती है। ऐसे में जब बौद्ध भिक्षु प्रकृति के दरवाज़े पर पानी-पानी पुकारता है, तो दूध से जली बिल्ली के छाछ को भी फूंक-फूंक कर पीने की तरह वह पानी देने में हिचकती है- विस्मित-सवालिया नज़रों से खड़ी रह जाती है। फिर उनकी साग्रह माँग पर पानी ही नहीं पिलाती- गोया सब कुछ अर्पित कर देती है। आप कल्पना कर सकते हैं पूरी दुनिया से नितांत निराद्रित-अवहेलित उस लड़की की मनोदशा की, जिसे मिले इस एकमात्र स्वीकार ने उसे सब कुछ दे दिया और गुन सकते हैं उस मनोविज्ञान को, जिसने उसे अपना सबकुछ देने के लिए सहसा सहर्ष तैयार कर दिया। अब शेष है उसकी आतुर प्रतीक्षा, जिसे पूरी होने के लिए ही थी टैगोर-कथा- वह युग ही ऐसा था, जहां ऐसी त्रासदियों के लिए सुधारवादी सदाशयी भवितव्य ही जीवन के असधार रह गए थे और साहित्य के श्रेय-प्रेय। प्रकृति के उक्त सारे अवसरों पर गीत-संगीत हैं- गीतिनाट्य की विधा के अनुरूप कथा ही नृत्य-गीत-संगीतमय है। खेद है कि नृत्य के सदाबहार आनंद को मैं लूट तो सकता हूँ- लूटा भी छककर, लेकिन उस पर कुछ कहना अपनी बालिशता के प्रदर्शन के सिवा कुछ न होगा।

जीवन-शैली का मर्म

दलित-कन्या प्रकृति अपनी मां के साथ रहती हैं। रहन-सहन की जो विलासिता दिखती है मंच पर, उसके स्रोतों का उल्लेख या तो हुआ नहीं है या तो मुझसे नज़र-अन्दाज़ हो गया है। उस युग और ऐसी स्थिति में कलानेत्रियों को अपनी कला के विक्रय के साथ या उसके नाम पर जिन हालात से गुजरना होता है, उसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है और इस जीवन-शैली का मर्म या मर्मांतक पीड़ा को समझा जा सकता है। मां बनी रीताकुमार के व्यक्तित्त्व में जो आभिजात्य है, गरिमा है और हमेशा मंच-पार्श्व में या पीछे के हिस्से में मौन-शांत, पर सजग-तत्पर रूप में वे सदा विराजमान हैं, वह पूरी प्रस्तुति का सबसे आकर्षक आयाम है। उनकी छिपती-सी, पर दिखती-सी जो (छुपाते-छुपाते बयां हो जाने वाली) मौजूदगी है, वह ‘हाफ़ कंसील्ड, हाफ़ रिवील्ड’ के मानक वाली कलात्मकता  का  सिद्ध प्रतिमान है।

कण-कण में बंगला संस्कृति

यह भले सोद्देश्य आयोजित न हो, लेकिन पूरी प्रस्तुति की वेश-भूषा, साज-सज्जा, रहन-सहन, आचार-व्यवहार आदि के कण-कण में बंगला संस्कृति का लोमहर्षक समावेश अवश्य सुनियोजित है। यह प्रस्तुति का सबसे मनोरम पक्ष है। और उसका शीर्ष परिपाक रीताकुमार के मंच पर होने में है – एक किनारे रहकर मंच के सबकुछ को नज़र में रखे है। इस निगाहबानी का कारण और मक़सद बेटी की स्थिति-गति से बावस्ता है। और इस विवश जीवनवृत्ति का सात्त्विक आनंद अंत में आनन्द के आने और बेटी की अंतरिम इच्छा-पूर्त्ति में लबा-लब ही नहीं होता, छलक-छलक भी पड़ता है। यह सुखांत ही क्लासिक कलारूपों की स्थायी निहित प्रवृत्ति है। और ‘हज़ार रंग से मुझको तेरी खबर आयी’ की मानिंद ‘चांडालिका’ अपने समस्त रंगो में इसे साकार करती है।

प्रभावी शुरुआत

शिवस्तोत्र के गायन पर एक अद्भुत नृत्य-दृश्य से शुरुआत बहुत ही प्रभावी रही। उसे सौरभ श्रीवास्तव ने क्या ही सधा-मधुर तरंगित स्वर दिया है, पर हमने ‘नमामी शमीशान निर्वाण रूपम’ की श्रृंखला में आगे आए सारे अनुस्वारों को आधा म के अच्चारण से गाया-सुना है, जिसे यहाँ आधा न के उच्चारण में सुनना खटकता भी रहा, लेकिन यह अवश्य ही गीत- संगीत- स्तोत्र- उच्चारण की मर्यादा के तहत ही हुआ होगा।

सबकुछ नृत्य-गीतमय

इस प्रस्तुति में अभिनय की बात क्या करनी! सबकुछ तो नृत्य-गीतमय होता है। रूप व व्यक्तित्त्व वस्त्र-श्रिंगार की अपनी रंगीनी और सज्जित सौंदर्यबोध से आच्छादित होते हैं। पदगति व देह-संचालन- यहाँ तक कि हाव-भाव-चितवन आदि सब कुछ कलमर्मज्ञों द्वारा प्रशिक्षित- आभासित होकर शास्त्र-संचालित होता है। समूह में हुआ, तो अवश्य कुछ ‘को बड़-छोट कहत अपराधू’ के बावजूद अवश्य कुछ इंगित किया जा सकता है, पर वह भी इतना हस्ब-मामूल कि कहना-न कहना बराबर। यह अवश्य कह सकते हैं की यत्किंचित ही सही, संवाद ही अगर रेकार्डेड न होते, तो एकरसता कुछ तो टूटती और शास्त्र-सिद्धता में से निकलकर कुछ वास्तविक होता- जीवनमय होता, वरना सब शास्त्रमय और यंत्रमय (मैकेनेकिल-मशीनी) होकर रह जाता है।
प्रस्तुति के विभिन्न उपांगों के कर्त्ता, जो ऊपर अलिखित रह गए,  इस प्रकार हैं –
मंच परिकलन- अरुण जैन
संगीत : विश्वजित चटर्जी
प्रापर्टी-रूप व सज्जा : अभिषेक बसाक
सेट : कृष्णा गुप्ता
प्रकाश प्रबंध : देवेन वर्मा
संवाद : पुष्पा बनर्जी, शुभ्रा वर्मा
वस्त्र-विन्यास : अभिषेक बसाक, अलका अस्थाना
नृत्य संयोजन : वर्षा राय, वैष्णवी सेठ
पात्र:
बौद्ध भिक्षु- राज गौतम, आदित्य
दही वाला- अभिषेक वसाक
चूड़ी वाला- कृष्णा सोनकर
ग्रामीण महिलाएँ- वैष्णवी, दीपिका, जागृति, आस्था, आर्या, कीर्त्ति
ग्राम पुरुष- जयप्रकाश, सतीश, गोविन्दा,यतीश, विशाल, कृष्णा, विशेश्वरनाथ
(क्रमशः)