शोधकर्ताओं ने 2000-2018 के बीच 10 से 60 वर्ष के 61 लाख लोगों पर अध्ययन किया। इनमें से 55 लाख को चिकित्सकों ने एंटीबायोटिक दवाओं का परामर्श दिया था। एंटीबायोटिक खाने वाले लोगों में 36,017 में अल्सरेटिव कोलाइटिस व 16,881 में क्रोहन डिजीज के लक्षण विकसित हुए। जिन लोगों को एंटीबायोटिक नहीं दी गई उन लोगों की तुलना में एंटीबायोटिक खाने वाले 10-40 वर्ष के लोगों में आईबीडी की आशंका 40 फीसदी ज्यादा पाई गई। वहीं, 40 से 60 वर्ष के लोगों में यह जोखिम 48 फीसदी ज्यादा पाया गया।
अध्ययन में यह भी सामने आया कि 1-2 वर्ष तक एंटीबायोटिक लेते रहने के बाद आईबीडी का जोखिम उच्चतम स्तर पर था। इस दौरान 10-40 वर्ष के लोगों में आईबीडी का जोखिम 40 फीसदी ज्यादा पाया गया। वहीं, 40 से 60 वर्ष के लोगों के 48 फीसदी लोगों में आईबीडी का जोखिम पाया गया। इसके अलावा अध्ययन में एंटीबायोटिक प्रकारों पर भी गौर किया गया। आईबीडी का उच्चतम जोखिम नाइट्रोइमिडाजोल और फ्लोरोक्विनोलोन से जुड़ा था। आम तौर पर इनका इस्तेमाल आंतों के संक्रमण के इलाज में होता है।
नाइट्रोफ्यूरेंटोइन से नहीं बढ़ा आईबीडी का जोखिम
नाइट्रोफ्यूरेंटोइन एकमात्र एंटीबायोटिक दवा थी, जिससे आईबीडी का जोखिम नहीं बढ़ा। नैरो स्पेक्ट्रम पेनिसिलिन भी आईबीडी का जोखिम देखा गया। इस अध्ययन से यह साफ हो जाता है कि एंटीबायोटिक से आंतों के माइक्रोबायम में बड़े बदलाव होते हैं। हालांकि, इसकी वजहें क्या हैं यह अभी साफ नहीं है। एक अनुमान यह है कि उम्र बढ़ने के साथ आंतों के माइक्रोबायोम में रोगाणुओं की लचीलापन और सीमा दोनों में प्राकृतिक ह्रास बढ़ता, जिससे एंटीबायोटिक का ज्यादा गंभीर असर होने की संभावना रहती है। (एएमएपी)