साधु-सेठ संवाद ।
डॉ. संतोष कुमार तिवारी।
जब कई साधु इक्ट्ठे होते हैं तो प्रायः वे अपनी-अपनी यात्राओं के अनुभव एक दूसरेको सुनाया करते हैं। कनखल (हरिद्वार) सन्यासियों में से एक विरक्त महात्मा के मुंह से स्वामी अखंडानंदजी सरस्वती ने एक बात सुनी थी। इस बात की चर्चा स्वामीजी ने अपनी पुस्तक ‘भक्ति रहस्य’ के पृष्ठ 28-29 पर की है।
वह विरक्त स्वामी बोले – ‘एक बार गंगा तट पर विचरता हुआ मैं कलकत्ते पहुँच गया। मन में आया चलें शहर में कुछ खिलवाड़ खेलें। जब मैं एक करोड़पति सेठ की गद्दी में पहुँचा, तो वहाँ के सभी लोग चकित रह गये। कहां मैं लंगोटी लगाये काला कलूटा भिक्षुक और कहां वे सेठ साहूकार! सेठजी ने अपनी आंखें बही (खाते) के पन्ने पर गड़ा लीं । मैंने पुकारा – ‘सेठजी! परन्तु (मेरी) सुने कौन? वे तो हिसाब में मशगूल हो रहे थे। एक-दो बार पुकारने पर (उन्होंने अपने) मुनीम से कहा- ‘खजांचीजी, इसे एक पैसा दे दो और दरबान को कहला दो, आइन्दा ऐसे भिखमंगे अंदर न आने पायें।‘
मैंने कहा- मुझे पैसा नहीं चाहिये सेठजी! मेरी बात तो सुनो। परन्तु फिर भी सेठजी की जगह मुनीम ही बोले – ‘तब क्या गिन्नी लेगा? भाग जा यहां से। नहीं तो दरबान (सेक्यूरिटी गार्ड) को बुलाता हूं।‘
अन्ततः दरबान आया। मेरा गला पकड़कर वह ले जाने वाला ही था कि मैंने कहा- ‘सेठजी, मैं तो जा रहा हूँ। न मुझे पैसे की जरूरत है और न तो तुम्हारी कोठी ही दखल करनी है। हां, एक बात कहे देता हूं – एक साल के भीतर तुम्हारी मौत हो जायगी। सिर्फ यही कहने के लिये मैं तुम्हारे पास आया था। अब जाता हूं।‘ इतना कह कर जो मैं वहां से चला तो सेठजी ने आकर मेरे पांव पकड़ लिये। मैं वहां से जाने का हठ करता और वे (मेरे) ठहरने का।
अन्ततः उन्हें मैंने समझाया- ‘इस धनको अपना मत समझो। यह गरीबों को बांटने के लिये तुम्हें दिया गया है। यद्यपि तुम्हें अपनी स्थिति में सन्तुष्ट रहना चाहिये फिर भी तुम अपने कर्तव्य से विमुख क्यों हो रहे हो?’
उन्होंने हाथ जोड़ कर मृत्यु से बचने का उपाय पूछा। तो मैंने उन्हें प्रतिदिन नाम जप करने, दान करने, सेवा और स्वाध्याय करने को कहा।
एक संन्यासी क्या दान कर सकता है?
प्रश्न यह उठता है कि एक विरक्त महात्मा या साधु संन्यासी क्या दान कर सकता है? उसके पास कोई धन-दौलत तो होती नहीं। वह भगवान के नाम जप और अध्यात्म-ज्ञान का दान कर सकता है। लेकिन इस दान को ग्रहण लोग तभी करने का प्रयास कर पाते हैं जब मृत्यु सामने आकर खड़ी हो जाती है।
यूट्यूब पर नाम जप और भजन करने के बारे में श्री प्रेमानन्दजी महाराज के असंख्य वीडियो अत्यन्त लोकप्रिय हैं। लाखों करोड़ों लोग उन्हें देखते और सुनते हैं। वे जो सीख देते हैं, वे प्रतिदिन प्रतिक्षण व्यवहार की बाते हैं; अभ्यास की बाते हैं। उन्हें व्यवहार में लाने के लिए मृत्यु का इन्तजार नहीं करना है।
स्वामी अखंडानंदजी सरस्वती की 179 पृष्ठ वाली ‘भक्ति रहस्य’ नामक जिस पुस्तक ऊपर जिक्र किया गया है, वह इन्टरनेट पर फ्री में उपलब्ध है। उसे कोई भी इस URL पर क्लिक करके से फ्री में पढ़ सकता है:
https://archive.org/details/
सन्त एकनाथजी द्वारा दिया गया दान
गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित हिन्दी मासिक पत्रिका कल्याण के जनवरी 2011 (विक्रम संवत् 2067) के अंक में पृष्ठ संख्या 128 से 130 पर ब्रह्मलीन श्री जयदयालजी गोयन्दका का एक लेख छपा है – दान का रहस्य। इस लेख में उन्होंने लिखा है:
दान में महत्त्व है त्याग का है, वस्तु के मूल्य या संख्या का नहीं। ऐसी त्याग बुद्धि से जो सुपात्र को, यानी जिस वस्तु का जिसके पास अभाव है, उसे वह वस्तु देना और उसमें किसी प्रकार की कामना न रखना, उत्तम दान है। निष्काम भाव से किसी भूखे को भोजन और प्यासे को जल देना सात्त्विक दान है। सन्त श्रीएकनाथजी की कथा आती है कि वे एक समय प्रयाग से काँवर पर जल लेकर श्रीरामेश्वर चढ़ाने के लिये जा रहे थे। रास्ते में जब एक जगह उन्होंने देखा कि एक गदहा (गधा) प्यास के कारण पानी के बिना तड़प रहा है, उसे देख कर उन्हें दया आ गयी और उन्होंने उसे थोड़ा-सा जल पिलाया, इससे उसे कुछ चेत-सा हुआ (चेतना सी हुई)। फिर उन्होंने थोड़ा-थोड़ा करके सब जल उसे पिला दिया। वह गदहा उठकर चला गया। साथियों ने सोचा कि त्रिवेणीका जल व्यर्थ ही गया और यात्रा भी निष्फल हो गयी। तब एकनाथजी ने हंस कर कहा- ‘भाइयों, बार-बार सुनते हो, भगवान् सब प्राणियों के अन्दर हैं, फिर भी ऐसे बावलेपन की बात सोचते हो! मेरी पूजा तो यहीं से श्रीरामेश्वरको पहुँच गयी। श्रीशंकरजी ने मेरे जल को स्वीकार कर लिया।‘
निर्धन द्वारा दिया गया दान
दान के सम्बन्ध में एक बात और समझने की है। बड़े धनी पुरुष के द्वारा दिये गये लाखों रुपयों के दान से निर्धन के एक रुपये का दान अधिक महत्त्व रखता है; क्योंकि निर्धन के लिये एक रुपये का दान भी बहुत बड़ा त्याग है। भगवान् के यहाँ न्याय है। ऐसा न होता तो फिर निर्धनों की मुक्ति ही नहीं होती।
कल्याण का उपर्युक्त अंक एक विशेषांक है। पांच सौ से अधिक पृष्ठों वाले इस दान-महिमा अंक में तरह-तरह के दान की चर्चा है, जो गरीब अमीर सभी कर सकते हैं। जैसे कि क्षमा दान, अन्न दान, जल दान, आरोग्य दान (अर्थात रोगी की सेवा करना), तुला दान, प्राण दान, अभय दान, आदि। इस संसार में गरीब-अमीर सभी के पास दान करने योग्य कुछ न कुछ अवश्य है।
श्री जयदयालजी गोयन्दका ने वर्ष 1923 में गीता प्रेस की स्थापना गोरखपुर में की थी। बाद में सन् 1926 में हिन्दी मासिक पत्रिका कल्याण का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। और पिछले 98वे वर्षों से यह पत्रिका प्रकाशित हो रही है।
कल्याण के दान-महिमा अंक में बताया गया है कि प्रत्येक धर्म में दान का महत्व है। और दान ही मुक्ति का मार्ग है। लेकिन दान सदैव सुपात्र को ही देना चाहिए, कुपात्र को नहीं।
(लेखक सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर हैं।)