सत्यदेव त्रिपाठी

पृथ्वी थियेटर के पास वाले जुहू तट (मुंबई) पर सुबह-सुबह प्रवेश करते ही जो बिल्कुल सामने का सबसे पहला दृश्य आप देखेंगे, वह होगा- एक साइकिल पर बिकती हुई चाय।


साइकिल के कैरियर पर स्टील के टोंटी वाले डिब्बे में 35-40 कप चाय और आगे टंगे एक स्टील के बड़े थर्मस में 12-15 कप कॉफी व सिर पर तेल लगाकर संवारे हुए बाल लिए एक गौर वर्ण व छोटाहे कद का सुचिक्कण रूप का धनी आदमी आपको खड़ा मिलेगा जुहू तट पर। गढ़न ऐसी कि उत्तर प्रदेश-बिहार की चटक प्रतिलिपि… और चाय का शौकीन तो क्या, लती मैं। लिहाजा आज से लगभग तीन दशक पहले उसे देखते ही लपक पड़ा और सिर मुंडाते ही ओले पड़े- चाय भी शर्बत की हमराही… सिद्ध हो गया खांटी भइया… और चटकन लगा- दिस इज नॉट माइ कप आॅफ टी- यह अपनी चाय का प्याला नहीं। सो, फिर कभी उधर न रुख किया, न उधर से कभी ग्राहकी का इशारा मिला। मैं उसे चाय बेचते हुए अवश्य देखता रहा, पर वह तो सिर्फ चाय बेचता रहा- सालों-साल बगल से आने-जाने का गोया उस पर कोई असर नहीं, पर कोई अकड़ भी नहीं।

तीन दशकों की साधना

इस दौरान मैं तो बीच-बीच में सालों साल के लिए गोवा-पूना-बनारस भटकता रहा, पर यह मुंहधोआ बन्दा डटा रहा। लेकिन उसकी इन तीन दशकों की साधना ने इस लेखन के लिए इधर पहुंचा दिया फिर उसके ढिग एक सुबह। मुखातिब होते ही चाय न मांग कर छूटते ही नाम पूछ डाला। दो मिनट के ठहराव (पॉज) के बाद जवाब आया- राजू। उत्तर भारतीय होने का मेरा कयास उछाल मार उठा- कवन गांव?

अब उसके चेहरे पर उभरी नासमझी को बेगानापन समझकर किंचित खीझ निकली- अरे, मुलुक का गांव पूछ रहा हूं। और तब सचमुच के बेगानेपन भरी कंजूसी से निकला- चेन्नई… और मैं गिरा अपने अन्दाजेयकीन के पहाड़ से सामने के दरिया में। विश्वास न हुआ, बल्कि अविश्वास हुआ। सो, पूछा विनम्रता से- भाई राजू, तुम रहने वाले कहां के हो, यह पूछ रहा हूं। उसने फिर पॉज लेके कहा- वही तो बताया- चेन्नई का हूं। फिर भी मन न माना, तो पूरा नाम पूछने की जुगत भिड़ाई। फिर सिर टकराया- राजू ‘यादव’ के चौखट से। बहुत समय लगा पचाने में कि शक्ल-सूरत, नाम, जातिनाम सब उत्तर का होते हुए भी आदमी दक्षिण का हो सकता है- भारत की एकता का एक रूप यह भी? या ‘मर्जी गोविन्द की केराव (मटर) फरे भेली’ की तान! बहरहाल, खोज यह मिली कि चेन्नई के तन्नलवेली का है राजू यादव और वहां भी यादव होते हैं, पर वे तमिल बोलते हैं। लेकिन कम बोलना, बुलाने पर भी रुककर जवाब देना और धन्धे के लिए ग्राहकी का बुलावा न देना… आदि यही राजू यादव करता है, तन्नलवेली का, कोई और (यादव) नहीं। और ऐसा न करके भी इसका धन्धा चलता है- या जितना चलता है, उतने से संतुष्ट रहता है राजू। इसलिए उसकी बात-व्यवहार में ‘अच्छी चाय है, पी के ही जाइये’ का विज्ञापन नहीं रहता। हां, आंखें मिल जाने पर ‘चाय तैयार है’ का भाव अवश्य उभर जाता है।

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चाय-कॉफी दोनों 15 रुपये कप

ऐसा ही निरपेक्ष और तर्कातीत भाव उसके दाम में भी- चाय-कॉफी दोनों का 15 रुपये कप। क्यों दोनों का एक ही दर, और चाय का इतना ज्यादा क्यों… आदि पूछने का कोई अर्थ नहीं- पीने के लिए बुलाया तो है नहीं। जितनी चाय-कॉफी लेके आता है, उतनी ही बेच के चला जाता है, बिक्री के हिसाब से बढ़ाना या घटाना उसकी फितरत नहीं। नहीं बिकी, तो सुबह 6 से 10 बजे और शाम को 4 से 9 बजे तक वहां रहेगा। और तब तक नहीं बिका, तो लेकर वापस लौट जायेगा और बिक गया, तो जल्दी चला जायेगा… कुछ और समय तक रहने या बीच में कुछ और करने की न उसे जरूरत लगते, न इच्छा होती- रोजी-रोटी चल जाती है, तो क्यों…?

और सचमुच इतने से ही वह नेहरूनगर की झोपडपट्टी में अपनी खोली लेकर रह लेता है। बेटे को दहाणुकर जैसे स्तरीय व नामी कॉलेज में बी.कॉम करा सकता है। लड़की को सरनाम मीठीबाई कॉलेज में 12वीं में पढ़ा सकता है। 24 साल का हुआ बेटा अब दक्षिण में जाकर नौकरी करता है और अपना हिसाब-किताब अलग रखता है, जिससे वह सहमत नहीं, पर आहत भी नहीं। बेटी की शादी गांव जाकर ही करने का इरादा रखता है, जहां वह दो साल में एक बार 10-15 दिनों के लिए जाता रहता है। यानी सब कुछ नपा-तुला, तयशुदा- उसमें तरमीम-तकसीम की कोई गुंजाइश नहीं। भगवद्गीता ने ऐसों के लिए ही कहा है- स्थितप्रज्ञ।

चाय पिलाने की राजू को कोई गरज नहीं

जुहू के सभी धन्धे वालों की तरह राजू को हफ्ता नहीं देना पड़ता पुलिस या महानगरपालिका को। क्योंकि कोई पहचान का है, जिसके कारण कोई उससे मांगता नहीं। और वह आदमी जब जायेगा, तो आने वालों से कह देगा, तो कुछ नहीं देना पड़ेगा, को लेकर मुतमइन है राजू यादव।

उस दिन बात करते हुए लगभग 30 सालों बाद मैंने दूसरी बार उसकी चाय पी और वह उतनी ही मीठी निकली- यानी कोई समझौता या सुधार चाय को लेकर भी नहीं। चलते हुए 15 रुपये पकड़ाये, जो उसने निठुरे मन से ले लिये। वहीं बगल में बिहार निवासी नारियल वाला है, जिस पर लिखा, तो रोज दूर से चिल्लाकर प्रणाम करता है और नारियल पीने का जोरदार आग्रह भी। पर नारियल मैं पीता नहीं, और चाय पिलाने की राजू को कोई गरज नहीं। हां, तब से आते-जाते कभी नजर मिल जाती है, तो पूरी कंजूसी भरे निर्विकार भाव से होंठ या गरदन जरा सा हिल भर जाता है। महीनों हो गये, उसने पूछा नहीं कि मैंने उस पर लिखा या नहीं- न कभी पूछेगा… पर मैं उसे दिखाऊंगा जरूर- जैसे सबको दिखाता-देता हूं।
क्योंकि चचा गालिब कह गये हैं- ‘वो अपनी खू न छोड़ेंगे, हम अपनी वजअ क्यों छोडें’?


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