अजय विद्युत।
शिक्षक दिवस की बात हम उस समय में कर रहे हैं जहाँ शिक्षा संस्कार नहीं एक कमोडिटी भर रह गई है। अब छात्र विद्यार्थी से कंज्यूमर बन गया है। और शिक्षक फैसिलिटी प्रोवाइडर। अब छात्र को शिक्षक को संतुष्ट, प्रसन्न नहीं करना है। पैर छूना और सेवा करना तो वैसे भी आश्रमों की या बीते युग की बात हो गयी। शिक्षा व्यापार है। स्टूडेंट ग्राहक। अब शिक्षक के सामने जिज्ञासु नहीं ग्राहक खड़ा है। कोई भी व्यापार ग्राहक से ही चलता है।

लेकिन इस नयी कॉर्पोरेट चकाचौंध से अलग भी एक दुनिया है। अभी वह पूरी पीढ़ी मौजूद है जिसे अंग्रेजी नाम वाली एकेडमीज नहीं विद्यालय में शिक्षा मिली है। कोई सवाल पूछ सकता है कि आज के दौर में जब क्लासरूम एसी हो गए हैं, स्कूलों के भवन पांचतारा होटलों जैसे भव्य हो चुके हैं… शिक्षक और शिक्षक दिवस की बात करना जरूरी है क्या? हाँ, क्योंकि शिक्षा को सिर्फ करियर से नहीं जोड़ा जा सकता। करियर के चक्कर में कोचिंगनगरी कोटा में छात्रों की बढ़ती आत्महत्याएं क्या कहती हैं? यही कि संस्काररहित शिक्षा आपको कामयाब, लालची, कायर तो बना सकती है, संयमी, दृढ़ और चरित्रवान नहीं। आइये अब शिक्षा और शिक्षकों को लेकर त्रिआयामी अनुभवों की लघु यात्रा शुरू करते हैं।

1D- पहला आयाम

शिक्षक वो जो भुलाए न भूले

#santoshtiwariडॉ. संतोष कुमार तिवारी।
मैंने देश के कई विश्वद्यालयों में पढ़ाया। मैंने ब्रिटेन में भी पढ़ाया। कहने का मतलब यह कि मेरी जेब में देश और विदेश के तमाम शिक्षकों और विद्यार्थियों का अनुभव है। बुरे लोग भी कई मिले और कुछ अच्छे लोग भी मिले।

जो बहुत अच्छे लोग मिले उनमें थे ब्रिटेन में मेरे पीएच.डी. सुपरवाइजर जेफ मंझम और वहां मेरे विभाग के डायरेक्टर नार्मन कैटनेक। इन दोनों के बारे में फिर कभी बात करूंगा। भारत में जिन शिक्षकों से मेरा वास्ता पड़ा, उनमें जो सबसे ज्यादा याद मुझे आता है वह नाम है प्रोफेसर वेपा राव (Vepa Rao) का। ये सभी तीनों लोग अब दिवंगत हो चुके हैं।

वेपा राव मेरे शिक्षक नहीं थे। हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी में मेरे डिपार्टमेंट में मेरे सहयोगी थे। उनके दिमाग में सदैव यह रहता था कि उनके छात्रों को पढ़ाई के बाद नौकरी कैसे मिले। वह लगभग रोज शाम को शिमला के आशियाना रेस्त्रां में बैठते थे। हमेशा उनके साथ चार-पांच-छह छात्र भी बैठे होते थे। शिमला के माल इलाके के बीचोबीच में स्थित आशियाना रेस्त्रां वहां का बहुत मशहूर रेस्त्रां रहा है। वहां कभी कदा कोई फिल्म स्टार भी बैठा दिखाई दे जाता था। वेपा राव बहुत साधारण हैसियत वाले आदमी थे। कोई धनी व्यक्ति नहीं थे।

जो सबसे खास बात वेपा राव के बारे में बताने वाली है, वह यह है कि वह हमेशा आशियाना रेस्त्रां का अपना और अपने छात्रों का पूरा बिल अपनी जेब से देते थे। वह उनके ऊपर कोई वजन नहीं डालते थे। शिमला में मेरा वेपा राव का साथ कोई डेढ़-पौने दो साल का रहा। फिर मैं असम यूनिवर्सिटी, सिलचर, चला गया था। बाद में मैंने महाराजा सायाजी राव यूनिवर्सिटी ऑफ बड़ौदा में लम्बी पाली खेली और सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ़ झारखण्ड, रांची से रिटायर हुआ।

वेपा राव से मैंने यह सीखा कि अपने छात्रों के हित को सबसे अधिक प्राथमिकता दो और उनका शोषण न करो।

वेपा राव की वसीयत

वेपा राव एक बार रांची आए थे। वहां उन्होंने अपनी वसीयत मुझे दिखाई थी। उस वसीयत में कई खास बातें थीं। उनमें से एक यह थी कि उनकी मृत्यु के बाद उनका जो भी बैंक बैलेंस हो, उसमें से पच्चीस हजार रूपए निकाल कर उनके पूर्व छात्रों की एक पार्टी शिमला के आशियाना रेस्त्रां में की जाए। वेपा राव की मृत्यु सन् 2022 में हैदराबाद में हुई। वह 76 वर्ष के थे।  वह शिमला में बीमार रहते थे, तो अन्तिम चार-छह दिनों के दौरान वह अपने गृह नगर हैदराबाद चले गए थे और वहीं उनका एक अस्पताल में निधन हुआ। वेपा राव का शिमला में या देश में कहीं भी अपना कोई निजी घर नहीं था।

उनके निधन के बाद उनकी वसीयत के अनुसार शिमला के आशियाना रेस्त्रां में उनके छात्रों के लिए वह पार्टी की गई। देश के अनेक शहरों से उनके छात्र उस पार्टी में भाग लेने के लिए शिमला आए। इनमें से कुछ को मैं जानता हूँ जैसे कि मुम्बई से वृंदा बाली आई थीं, सोलन से राजीव खन्ना आए थे, शिमला से प्रकाश भारद्वाज समेत तमाम अन्य लोग आए थे। ऐसे वेपा राव की मुझे अक्सर याद आती है।
(लेखक सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर हैं।)

2D- दूसरा आयाम

दो शिक्षकों ने मुझे आलसी और अहंकारी बनने से रोक दिया

सुरेंद्र किशोर।
बात तब की है जब मैं हाई स्कूल का छात्र था। मेरे सेक्शन में एक उर्दू छात्र भी पढ़ता था। उर्दू शिक्षक उसे हर वार्षिक परीक्षा में उर्दू में (पूर्णांक सौ में ) 98 और फारसी में 99 अंक दे देते थे। दूसरी ओर, हमारे संस्कृत शिक्षक ने कभी मुझे सौ में 35 से अधिक अंक नहीं दिए। नतीजतन वह उर्दू छात्र हमारे साइंस सेक्शन में फर्स्ट आता था और मैं सेकेंड।

इस पर उस स्कूल के एक शिक्षक तिवारी जी हमारे संस्कृत शिक्षक पर सख्त नाराज रहा करते थे। पर, उनसे वे कुछ बोल नहीं सकते थे क्योंकि संस्कृत पंडित जी विशाल शरीर वाले दबंग शिक्षक थे।

‘पांचजन्य’ पढ़ने वाले तिवारी जी की चिंता थी कि इस सालाना अन्याय से सेकेंड करने वाले छात्र के दिमाग पर बुरा असर पड़ सकता है। (हालांकि मुझ पर उसका कोई असर नहीं पड़ रहा था।) पर, संस्कृत शिक्षक का तर्क था कि यदि अभी ही अधिक अंक दे दूंगा तो वह यहां फर्स्ट कर जाएगा और उससे इस छात्र में आलस और अहंकार का भाव आ सकता है। वैसे भाव आ जाने के बाद मैट्रिक बोर्ड की परीक्षा में इससे फर्स्ट डिविजन छूट सकता है। हमें उम्मीद है कि सुरेंद्र जरूर फर्स्ट डिविजन से पास करेगा ही और उससे स्कूल का नाम होगा।

अब उर्दू शिक्षक महोदय को तो कोई कुछ कह नहीं सकता था। उनकी सोच रही होगी कि अधिक अंक देने से उस उर्दू छात्र का मनोबल बढ़ेगा और वह बोर्ड परीक्षा में अच्छा करेगा।

खैर, मुझे तो बोर्ड परीक्षा में फर्स्ट डिविजन मिला ही। इतना ही नहीं, उस परीक्षा में संस्कृत में मुझे सौ में 84 अंक मिले। उस उर्दू छात्र का बोर्ड परीक्षा में क्या हुआ, यह तो मुझे नहीं मालूम। किंतु बाद में पता चला कि वह प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक बन गया था।
इस तरह मैं संस्कृत और उर्दू शिक्षकों का संयुक्त रूप से शुक्रगुजार हूं कि उन लोगों ने अलग-अलग तरीकों से मुझमें आलस्य या अहंकार नहीं पनपने दिया।

मैं परीक्षाकक्ष  में सो गया

यह एक रोचक प्रकरण है। बोर्ड की परीक्षा का सेंटर जिला स्कूल में पड़ा था। पहली बार बिजली और सिनेमा हाॅल वाले स्थान में लगातार कई दिन रहने का मौका मिला था। नतीजतन संस्कृत की परीक्षा से पहले की शाम और अंग्रेजी की परीक्षा से पहले की शाम मैंने दो-दो शो सिनेमा देखे। संस्कृत की परीक्षा का पेपर लिख लेने के बाद मुझे परीक्षा भवन में ही तेज नींद आ गयी। टेबल पर सिर रखकर सो गया।

जिला स्कूल के जो शिक्षक गार्डिंग कर रहे थे,उन्होंने मुझे जगाया। वे मेरे गांव के बगल के ही मूल निवासी थे। मुझे और मेरे बाबू जी को जानते थे। जगकर मैंने उनसे कहा कि मैं पेपर लिख चुका हूं। तब उन्हें संतोष हुआ। ध्यान रहे कि सन 1963 में परीक्षाओं में चोरी नहीं होती थी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

3D- तीसरा आयाम

शिक्षक दिवस: मेरे अनुभव मीठे नहीं हैं

अशोक कुमार झा।
मिडिल स्कूल की याद थोड़ी कम है पर हाईस्कूल की बातें स्पष्टतः याद हैं। इस दिन शिक्षक सिर्फ़ हमारे सीने पर एक पिन से शिक्षक दिवस का स्टाम्प टाँक देते थे और हमें उन्हें पैसे देने पड़ते थे। यह राशि स्वैच्छिक नहीं होकर मास्टरों द्वारा तय होती थी, और यह सबको देना ही होता था।

राशि कितनी होती थी, मुझे अब याद नहीं है। पर मैं इस दिन से एक दो दिन पहले जब बाबा से कहता था कि शिक्षक दिवस पर स्कूल में पैसे देने हैं, तो वे सीधे कहते: हम कत’ स’ देब! मुझे अपनी ज़ेब से पैसे देने पड़ते थे। शायद इस पैसे को नहीं चुकाने की छूट किसी को नहीं थी सो, जो छात्र यह समझकर उस दिन स्कूल नहीं आते थे कि पैसे देने से बच जाएँगे, उन्हें पछतावा होता था। हर दिन हाज़िरी लेते हुए शिक्षक उन छात्रों को खड़ा करता था जिनके नाम पर पैसे बकाया होते थे। फिर इन छात्रों से जिस लहजे में तगादा किया जाता था वह कहीं से भी एक शिक्षक के लिए शोभनीय नहीं होता।

मुझे यह याद नहीं है कि इस दिन के महत्व के बारे में छात्रों को विस्तार से शिक्षकों ने कभी बताया हो। बस राष्ट्रपति राधाकृष्णन से यह संबद्ध है- इतना भर हमें मालूम था या बताया गया था। हाँ, इस दिन स्कूल में शिक्षकों में ग़ज़ब का उत्साह दिखता था।

शिक्षक की अहमियत क्या है यह उन शिक्षकों को याद करने से पता चलता है जिनकी कुछ बातें आज भी हमारा मार्गदर्शन करती हैं। पर यह भी उतना ही बड़ा सच है कि शिक्षकों के एक बड़े तबक़े के दुर्व्यवहार के कारण बहुत सारे बच्चे स्कूल से दूर ही रहे। शिक्षक ईश्वर नहीं है। वह भी सभी तरह की मानवीय कमज़ोरियों का शिकार होता है। बहुत कम शिक्षक इनसे बाहर आ पाते हैं।

हमारे हाईस्कूल के सारे शिक्षक ( हेडमास्टर को छोड़कर) स्कूल के सेक्रेटरी के घर चूड़ा-दही खाने के लिए किसी भी समय जाने को लालायित रहते थे। और उस सेक्रेटरी के बेटे को कभी स्कूल में किसी क्लास में परीक्षा देते हुए नहीं देखा, पर वह हमेशा ही अगली कक्षा में प्रोमोट होता रहा। मुझे सेक्रेटरी के बेटे से कोई शिकायत नहीं है। उन दिनों हम सहपाठी हुआ करते थे। उन दिनों तो वह शायद जानता भी नहीं होगा कि यह सब क्यों और कैसे हो रहा है। यह सहपाठी इस समय दिल्ली विश्वविद्यालय के किसी कॉलेज में शिक्षक है। पता नहीं उसने अपने छात्रों को बिहार के फ़्यूडल समाज के वास्तविक चेहरे से कभी वाक़िफ़ भी कराया कि नहीं क्योंकि वह उस व्यवस्था में साँस लेते हुए बड़ा हुआ। बड़ी बात यह कि आज वह भी एक शिक्षक है।

शिकायतें तो शिक्षकों के पास भी बहुत होंगी। अच्छे शिक्षकों के दर्द को समझा जा सकता है। पर पढ़ाकू छात्र नहीं मिलने से किसी शिक्षक का जीवन उन अर्थों में ‘नष्ट’ नहीं होता जिस तरह एक नालायक और अयोग्य शिक्षक की वजह से सैकड़ों छात्रों की ज़िंदगी नष्ट हो जाती है। ऐसे ही नालायक और अयोग्य शिक्षकों के कारण जिन छात्रों को कक्षा में होना चाहिए था, वे राजनगर के मंदिर परिसर में लताम तोड़कर काली और कामाख्या मंदिर के बेसमेंट में उन्हें खाते हुए छुट्टी का समय होने का इंतज़ार करते!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)