करियवा-उजरका
सत्यदेव त्रिपाठी ।
यदि करियवा-उजरका न होते, तो मेरा बचपन वैसा ही न होता, जैसा हुआ और शायद मेरा जीवन भी ऐसा ही न होता, जैसा आज है। मिसाल के तौर पर यदि आज भी मैं सुबह पाँच से साढ़े पाँच बजे के बीच उठ ही जाता हूँ, तो वह करियवा-उजरका की ही देन है।
1967 के अक्तूबर का महीना था – कातिक। रबी की फसल (जौ-गेहूं-चना-मटर) की बुवाई का महीना, जब घर के कर्त्ता-धर्त्ता काका स्वर्गवासी हो गये और सारा कार्यभार मेरे जिम्मे आ गया, तो उन दोनों को खिलाने के लिए मुझे इतनी सुबह उठना होता था कि हल जोतने ले जाने के लिए हमारे हलवाह मंतू भइया आयें, तो ये दोनों दोपहर तक जुतने के लिए खा-पी के तैयार रहें। तीन-चार बार चारा-दाना डालने के बीच पढ़ता तब भी था। तब की पढ़ाई दसवीं की परीक्षा के लिए थी, लेकिन वह बानि आज तक पढ़ने-लिखने के अच्छे समय के रूप में कायम है।
वे कब-कैसे-कहाँ से आये
अब तो आप जान ही गये होंगे कि करियवा-उजरका दोनों हमारे बैल थे – उजला (सफेद) होने से उजरका और काला होने से करिअवा। वे कब-कैसे-कहाँ से आये, का मुझे कुछ पता नहीं, क्योंकि मैंने होश ही सँभाला इन्हीं नामों की पुकार व इन्हीं की चर्चा-गुणगान सुनते-सुनते और बड़ा हुआ इन्हें पक्खड (बलवान प्रौढ़) होते देखते-देखते भिन्न-भिन्न रूपों में – खाते-पीते, उठते-बैठते-सोते से खेतों में हल खींचते, कूएं पर सिंचाई के लिए पुरवट खींचते, गन्ना पेरने की कल खींचते एवं पुआल से धान निकालने व जौ-गेहूँ के डाँठ (डण्ठलों) को भूसा बनाने के लिए दँवरी में चलतेदिन-दिन भर और जरूरत पड़ने पर रात-रात को भी कर्मठता की अप्रतिम मिसाल के रूप में और कभी मेरे भयहर्त्ता के रूप मेंजब आपात्कालीन मौकों पर घर से दूर सिवान में अकेले रहट हाँकते हुए उनके बदन पर हाथ रखकर ही वहाँ मौजूद ढेरों भूत-प्रेतों से बच पाता| फिर किशोरावस्था में हमें छोड़कर करुण प्रयाण करते हुए भी। बचपन में माँ-काका-बडके बाबू बात-बात पर इन्हीं की बातें करते, कई-कई बार इनसे ही बतियाते हुए दिखते। इन्हीं की देख-भाल करते, खिलाते-पिलाते, खिलाने-पिलाने की फिक्र करते। याने इन्हीं की नींद जागते-सोतेजो किसान-स्वभाव या सुभाव ही है। कुछ दृश्य बतौर नमूने पेश हैं:
मंतू ने आके नादे लगाया है या नहीं
– हम भाई-बहनें तैयार हैं काका के साथ बाज़ार जाने के लिए। हमारे लिए कपड़े-जूतादि खरीदना है। ऐसे मौके साल में एकाध बार आते हैं, जिससे बेहद उतावली है हमें। काका धोती पहन रहे हैं और कुर्त्ता पहनने के पहले ‘अरे बरधा त हउदिये किहन रहि गइलें रहा, हटवले आईं (अरे बैल तो हौदी (खाने के लिए मिट्टी की बड़ी हौद) की जगह ही रह गये, रुको – जरा हटा के आता हूँ) कहते हुए करियवा-उजरका को उनके आराम करने की जगह पर बाँधने चले जाते और हम इस व्यवधान से कुढ़ने लगते।
– गाँव के बाहर आते ही चमटोल बस्ती का कोई दिख जाता है और काका उसको सहेजते हैं – तनिक मंतू से कह देना, सुरुज डुबानी एक चक्कर मार ले और मैं न आया हूँ, तो बरधन (बैलों) को कोयर (चारा) डाल के नादे (हौद पे) लगा दे।
– समय से आ गये, तो काका कुर्त्ता तक निकालने के पहले उन्हें चारा डालके नादे लगाने चले जाते और आने में देर होती, तो रास्ते पर भुनभुनाते – ‘पता नहीं मंतुआ आया या नहीं! बरध बेचारे ताक रहे होंगे भूखे होंगे आदि-आदि’ कहते-पछताते, अपने को कोसते हुए आते। फिर पहुँचते ही घर में न आके उधर जाके देख आते कि मंतू ने आके नादे लगाया है या नहीं।
– इतना ही नहीं, लगाया है, तो नाँद के पास जाके देखते कि डाला हुआ चारा कितना खा चुके हैं। फिर चारे की जगह आके जाँचते, अन्दाज़ा लगाते कि मंतू ने कितना चारा डाला होगा, क्योंकि उन्हें दोनों की भूख और ख़ुराक का पता होता कि उजरका दो छींटा (कच्चे बाँस की खपाचियों का झीना बुना बड़े आकार का) खाता है, पर करिअवा का पेट ढाई से तीन छींटा से कम में नहीं भरता।
– फिर कपड़े बदल के, हाथ-मुँह धोके कुरुई (कास को रँगके हाथ से बुनी छोटी-सी खुली डलिया) में दाना (लाई-चने..आदि का चबेना) लेके खाते हुए दुआरे (घर के सामने की जगह) के उस सिरे पर बैठ जाते, जहाँ से दोनों बैल खाते हुए दिखते।
– आदि-आदि।
बचपन उनसे बतियाते-खेलते बीता
वैसे काका का यह तो प्राय: रोज़ का नियम था कि खेत-बारी के काम से आने के बाद दाना खाते… प्राय: हर किसान खाता – किसानी आदत, पर काका वहीं बैठकर खाते हुए उनको देखते रहते। ज्यों ही वे नाद से बाहर मुँह निकालते, दाना खाना छोड़के जाके देख आते। कोयर (चारा) खत्म हआ हो, तो छींटा उठाते, और डाल आते। यदि नाँद में कोयर होता, तो कहते – ‘अभी तो इतना पड़ा है, खाते क्यों नहीं? ताक क्या रहे हो!!’ – गोया वे आदमी हों। और फिर भी न खायें, तो स्वाद बढाने के लिए भूसी (आटे के चालने से बचा हुआ) या खुद्दी (कूटे हुए चावल का पछोरन) तथा भूसी-खुद्दी न होने पर पिसान (आटा) ही डाल आते। खरी-दाना तो अतिरिक्त खिलाने व ताकत के लिए अंतिम चलावन (चारा देने) के साथ दिया जाता – हमारे घी-दूध की तरह। सरसो-तीसी से तेल निकालने के बाद बचे पदार्थ को खरी कहते व मटर-चने के दलने से निकले टुकडे को दाना, लेकिन बैलों के लिए जौ का दर्रा भी बनवाते – याने पिसाते नहीं, दराते (दलन करते)। और यह सब बोरों में भरकर बैलों के लिए अनिवार्य रूप से रखा जाता। अधिक दूध पाने के लिए खरी तो नहीं, पर दाना-पिसान दिया जाता दूध देती गाय-भैसों को भी।
वो पिछली सदी के छठे दशक के अंतिम वर्ष थे। फिर दस सालों तक मेरा बचपन उनसे इसी तरह बतियाते-खेलते और काका के बाद दो-ढाई साल उनके साथ काम करते भी बीता।
शालीन बैल था अपना उजरका
अब बताते चलूँ कि हमारे घर से बाहर जाते हुए मंतू भइया को बुलाने की बात क्यों आती। असल में उजरका तो बडके बाबू (जो घर बहुत कम रहते), काका व मंतू भैया के अलावा किसी को अपने पास फटकने ही नहीं देता, तो कौन बाँधे-छोडे उसे? इसलिए तमाम इंतजाम करने पडते। लेकिन उसके बैठे रहने पर मैं और मुझसे बड़ी वाली बहन बचपन से ही उसके ऊपर लोटते-पोटते, फिर भी हमें कुछ न बोलता – शायद बच्चा समझ के। बच्चों का ऐसे ख्याल रखते मैंने पालतू पशुओं को काफी देखा है। एक बार तो पूरब टोले की एक सरनाम मरकही भैंस किसी तरह छूट कर मेरे घर के सामने से पश्चिम टोले की ओर भागी। हम सब बाहर निकलकर तमाशा देखने लगे, तब तक आगे दिखा बीच रास्ते पर बैठा एक अबोध बच्चा। सब सकते में आ गये कि जान गयी बच्चे की। लेकिन भैंस उसके सामने पहुँचते ही अचानक रुकी और फिर बायें से घूमकर आगे निकली और दौड़ने लगी। मूर्खता-नासमझी-बेपरवाही के लिए मुहावरा (भैस की आगे बीन बजावे, भैंस बैठ पगुरायेजैसे) बन चुकी भैंस का आवेश में भी जब हाल यह है, तो अपना उजरका तो शालीन बैल था और हम घर के बच्चे। (जारी)