करियवा-उजरका
सत्यदेव त्रिपाठी ।
एक ऐसा हादसा उजरके का मेरे साथ हुआ, जो अविस्मरणीय है। बगल वाले गाँव में एक बीघा खेत था अपना। दूर होने के कारण सुबह बैलों को खेत तक पहुँचाने और दोपहर को लाने के लिए मंतू भैया के साथ किसी को जाना होता था। कन्धे पर जुआठ लेके एक बैल का पगहा हाथ में लिये चलना होता था। उस दोपहर मैं गया था – 10-11 साल का रहा हूंगा।
खेत जुत गया था। हेंगाया (पाटा से समतल किया) जा रहा था। एक-दो फेरे ही बचे थे। मैं इंतज़ार में मेंड पर खडा हो गया। जब हेंगा मेरी तरफ से गुजरा, अचानक रोककर उजरके के पास जुआठ से लटकती एक रस्सी को इंगित करके मंतू भइया ने मुझसे कहा – ‘बचवा, उहै रसरिया तनी उप्पर कै दा(बच्चा, वो रस्सी जरा ऊपर कर दो)। और मैं तो हुलसा हुआ पहुँचा कि उजरके को सहला भी लूँकि तब तक गरदन नीचे करके उसने मुझे सींग पर उठा ही तो लियाऔर मंतू भइया हाँ-हाँ, हाँ-हाँ करें, तब तक 3-4-फिट उठते ही झट धीरे से रख भी दिया। मैं तो भौंचक। सब कुछ पलक झपकते हो गयामंतू भइया ने आके शर्ट हटाके देखा, तो पेट में दो इंच लम्बे में चमडी छिल के खून चुहचुहा आया था। बाकी संयोग अच्छा था कि सींग का नुकीला भाग मेरे ‘हॉफ पैण्ट’ के खींचकर हुक लगाने वाले फ्लैप के नीचे से होकर ऊपर जाते हुए बाहर निकल आया था, वरना पेट फट जाता और लादी-पोटी बाहर निकल आयी होती।
पूरे टोले में कुहराम
हल-बैल तो अगल-बगल के लोगों ने घर पहुँचाये, मुझे तो मंतू भइया कन्धे पर उठाके घर लाये। कन्धे पर आते देख पूरे टोले में कुहराम मच गया। पर मुझे याद आता है कि मैं डरा न था, बल्कि कडू तेल में चुराकर बाँधी गयी हल्दी-प्याज के साथ शाम को उजरके के साथ खेला भी था। उजरके की यह हरकत समझ में तब आयी, जब महादेवीजी का अपनी घोडी पर लिखा संस्मरण पढ़ा – ‘रानी’। वह भी एक बार आठ साल की महादेवीजी को पीठ पर लेके भाग चली थी, लेकिन उनके गिरते ही वहीं ऐसे खडी रह गयी ‘जैसे पश्चात्ताप की प्रस्तर प्रतिमा हो’। हुआ इतना ही था कि पीछे से पाँच साल के भाई ने उसके पाँवों में पतली सण्टी से छू भर दिया था और रानी की ‘न जाने कौन सी दु:स्मृति जाग उठी थी’। इधर उजरके का तो ऐसा हुआ था कि उस दिन न जाने किस रौ में मंतू भैया ने हेंगे से जुआठ में बाँधी जाने वाली रस्सियां छोटी बाँध दी थीं और लम्बे होने के कारण उजरके का पिछला पैर हर बार उठते हुए हेंगे के नीचे दब रहा था (यह सुनकर मंतू भइया की खूब लानत-मलामत हुई थी)। तो उसी दर्द और बेबसी में गुस्से से बिलबिलाया हुआ क्रोधान्ध उजरके ने मुझे उठा तो लिया, लेकिन पलक झपकते ही रख दिया। उसे भी अवश्य याद आ गया (क्या गन्ध-स्पर्श से!!) कि वह तो मैं हूँ, वरना फेंक भी सकता था, कुचल भी सकता था। अब उतने नन्हें से मुझको क्या भान, वरना शाम को अपने बदन पर खेलते पाकर उसके भावों में रानी के समान ‘प्रायश्चित्त की मुखर प्रतिमा’ के भाव अवश्य रहे होंगे। बड़े होकर ऐसी ही वारदातों के बाद अपनी बच्ची (बिल्ली) और अपने गबरू (कुत्ते) के मार्मिक भावों को पढ़ पाया था (कभी उन पर लिखा, तो व्योरा दूँगा)।
काका ने उस दिन पहले करियवा को छोड़कर पगहा पीठ पर रख दिया – यही चलन है। बैल ख़ुद चले जाते हैं। और वह कूयें से आगे बढकर दायें मुडने के पहले ही कूयें की तरफ बढने लगातब तक काका उजरके को छोड़के चलने का रुख कर चुके थेउसे उधर बढते देखकर ‘हट-हट, अरे वहर कहाँ’ चिल्लाते हुए दौडे, तब तक उसके अगले पाँव कूएँ में लडखडा चुके थेकि पहुँचकर काका ने पूँछ पकड लीअब गर्दन तक करिरियवा कूएँ में और पूँछ खींचे काका बाहरदृश्य अटका हुआ (फ्रीज़)काका कभी दंगल मारने वाले पहलवान थे, बदन में खूब पैरुख (बल पौरुष) था। पढे-लिखे कम थे। शायद उन्हें करियवा को बाहर खींच लेने का यक़ीन था। उधर दुआर पर खडे हम यह देखते ही जाने क्यों जोर-जोर से चिल्लाने क्या, रोने लगे थे शायद जिसे सुनकर उस तरफ सामने की अपनी मण्डई से बूढे बिसराम दादा निकले और काका को डाँटते हुए चिल्लाये – ‘अरे छोड़ दे जैनथवा, नहीं त तहूँ गिरि जइबे’और काका ने सचमुच छोड़ दिया, वरना आधे मिनट तक तो रोके (होल्ड किये) रहे।
वहाँ से छूटते ही मैं सरपट दौड़ता
खैर, उजरके के साथ इसी खेलने के विश्वास पर उसे बाँधने-छोड़ने का काम भी मैं थोडा बड़ा होते ही करने लगा था, लेकिन उसके स्वभाव से डरी माँ व बड़ी बहन सुरक्षा की दृष्टि से डण्डा लेकर हमारे आसपास रहते, जिसका कोई मतलब नहीं था – सिवा उनके अपने भय-निवारण के, जो मुझे बड़े होने पर ही समझ में आया। तभी यह भी जाना कि उजरका मरकहा बिल्कुल नहीं था, बल्कि बहुत सुद्धा (सीधा) था, लेकिन किसी को भी –खासकर अपरिचित को- देखकर उसकी तरफ मूँडी झाँटना (सर चलाना) या झौंकना हर पशु की आदत होती है – पशु-स्वभाव। लेकिन आकार में बड़े और शरीर से हृष्ट-पुष्ट होने से उसकी विशालता और लम्बे चेहरे के अग्र भाग पर स्थित गदराये नथुने, बड़ी-बड़ी आँखें तथा प्रशस्त माथे पर कुदरत-प्रदत्त डेढ-डेढ फिट की मोटी-मोटी ऊपर की ओर उठीं दो सींगे उसके धवल रंग (उजरका नाम) की शृंगार थीं – सुरूप-सुन्दर था हमारा उजरका। पर 16 मुट्ठी (बैलों के माप का पैमाना) की ऊँचाई के साथ यही विशाल सम्भार गरदन झटकारते ही किसी को भी डराने के लिए काफी था। इसका ख़ामियाज़ा भी वह भुगतता । और यही बात काका के जाने के बाद ग्यारहवीं-बारहवीं में पढ़ते हुए तब मेरे लिए तनाव व नैतिक संकट का कारण बनती। मैं कॉलेज की कबड्डी-टीम में रहता। खेल-शिक्षक श्री धनुषधारी सिंह अंतर-महाविद्यालयीन स्पर्धाओं के पहले लम्बे अभ्यास कराते। अँधेरा होने तक छोड़ते नहीं और उजरके के लिए मैं विह्वल होता रहता कि वह खाने से वंचित पड़ा होगा। उस समय जो साँसत और थकन-पछतावे का सबब होता, उसी को याद करके आज मज़ा आता है कि वहाँ से छूटते ही मैं सरपट दौड़ता और तीन किलोमीटर दूर घर जाकर उजरके को नाँदे लगाके ही दम लेता। तब तक वह पगहा खिंचा-खिंचा के और खूँटे के चारो तरफ खाँच-खाँचके खुर से सारी मिट्टी निकाल चुका होता और उदास-असहाय माँ घर के सामने बैठी होती.।
एक दिन वह कूएँ में गिर गया
लेकिन अपने करियवा को ऐसे मूँडी झाँटते मैंने कभी नहीं देखा। बहुत बाद में पता चला कि उसे दिखता नहीं। देख ही नहीं पाता था, तो गरदन से झपटे कैसे? अन्धा तो वह न जाने कब से था!! पता तब चला, जब एक दिन वह कूएँ में गिर गया। बड़ी यादगार घटना है वहतब मैं बहुत छोटा था – प्राय: 6-7 साल का। याद आता है कि उस दिन भी हम कहीं जाने के लिए ही तैयार थे और काका उसी तरह उन्हें नादे लगाने चल पडे – पीछे-पीछे उतावले हम भी चल पडे। गर्मी के दिन रहे होंगे, तभी हमेशा की तरह दोनों अपने घर के पीछे बाँसों की छाया में बाँधे गये थे। वहाँ से सामने की तरफ आने के रास्ते में तब एक कुआँ हुआ करता था, जिससे हम उन्हें रोज़ दो बार पानी डालते – तीन-तीन गगरी (घडे)। ‘बुढवा इनार’ कहते थे – बहुत पुराना, टूटा-फूटा; पर बहुत चौडा। काका ने उस दिन पहले करियवा को छोड़कर पगहा पीठ पर रख दिया – यही चलन है। बैल ख़ुद चले जाते हैं। और वह कूयें से आगे बढकर दायें मुडने के पहले ही कूयें की तरफ बढने लगातब तक काका उजरके को छोड़के चलने का रुख कर चुके थेउसे उधर बढते देखकर ‘हट-हट, अरे वहर कहाँ’ चिल्लाते हुए दौडे, तब तक उसके अगले पाँव कूएँ में लडखडा चुके थेकि पहुँचकर काका ने पूँछ पकड लीअब गर्दन तक करिरियवा कूएँ में और पूँछ खींचे काका बाहरदृश्य अटका हुआ (फ्रीज़)काका कभी दंगल मारने वाले पहलवान थे, बदन में खूब पैरुख (बल पौरुष) था। पढे-लिखे कम थे। शायद उन्हें करियवा को बाहर खींच लेने का यक़ीन था। उधर दुआर पर खडे हम यह देखते ही जाने क्यों जोर-जोर से चिल्लाने क्या, रोने लगे थे शायद जिसे सुनकर उस तरफ सामने की अपनी मण्डई से बूढे बिसराम दादा निकले और काका को डाँटते हुए चिल्लाये – ‘अरे छोड़ दे जैनथवा, नहीं त तहूँ गिरि जइबे’और काका ने सचमुच छोड़ दिया, वरना आधे मिनट तक तो रोके (होल्ड किये) रहे।
बिसराम दादा की बेटी बाहर निकली
पानी में गिरने की जोर की छपाक से काका सहित हम सब सन्न हो गये थे, पर इतने में बिसराम दादा की बेटी बंसराजी बहिनी घर से बाहर निकली और जोर-जोर से ऐसा बम देना (चिल्लाना) शुरू किया कि आनन-फानन में सगरो गाँव जुट गया। फटाफट नार (खूब मोटी रस्सियां) लाये गये। 3-4 लोग कूएँ में उतरे, करियवा की गरदन और पेट से निकालकर पीठ पर नार बाँधा और ऊपर से 15-20 लोगों ने मिलकर खींच लिया। आधे घण्टे में ‘करिया पहलवान’ सही-सलामत बाहर। कुछ देर थसमसाये (अवसन्न) खडे रहे, फिर धीरे-धीरे चलने-फिरने लगे और हौदी से बाँधे गये, तो खाने भी लग गये। घटना महीनों तक गाँव में चर्चा का विषय रही – जैसा कि हर घटना होती है, लेकिन इस बार करिया के गिरने से अधिक सरनाम हुआ काका का पूँछ पकडके खींचना तथा बिसराम दादा का उन्हें डाँटना। और पूरी चर्चा से काका की बावत सारांश स्वरूप दो निष्कर्ष निकले – ‘भई, अच्छे पहलवान हैं, तभी तो इतने बड़े बरध को थामे रहे’ और दूसरा यह कि ‘पहलवानी बुद्धि न होती, तो भला कोई ऐसा करता’!! फिर तो करिया महराज को इधर-उधर ले-ले जाकर, तरह-तरह से दिखा-चला कर यह पक्का कर लिया गया कि वे अन्धे हैं – मोतियाबिन्द हो गया है उन्हें। लेकिन उस वक्त तो आदमियों के मोतियाबिन्द का ऑपरेशन भी आँखों का सपना था, बैल की तो क्या कहना!! इसके बाद करीब नौ-दस साल जीवित व कर्म-रत रहे करिया, पर न मोतिया फूटा, न तब तक मोतिया के फूटने का किसी को पता ही था शायद। हाँ, तब से उन्हें कहीं जाने के लिए छोडा नहीं जाता, पगहा पकडकर लाया-जाया जाता था। खेतों में लेके जाते हुए आगे गड्ढा-मेंडआदि आने पर हम जोर से कहते – ‘डाँक (पार कर) ले, आगे मेंड हौ’और वह अगले पैर उठा-उठाकर बड़े-बड़े डग भरने लगता। लेकिन जाडे में धूप लेने के लिए खडे करते, तो गरदन उधर ही उठाता, जिस तरफ से सूरज की किरनें आती होतीं। माँ जब रात को खाने के बाद दोनों को रोटी खिलाने निकलती, तो करियवा पहले जान जाता और ठीक उसी तरफ ताकता, जिधर से माँ आती होती तथा माँ के हाथ से रोटी यूँ लपक लेता, गोया दीदे का भरपूर हो। (जारी)
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