करियवा-उजरका

सत्यदेव त्रिपाठी ।

अन्धत्त्व और इससे उपजी बेपरवाही का ख़ामियाज़ा एक बार खूब भुगतना पड़ा करिया पण्डित को। बरदौर (पशुशाला) में बारिश के मौसम में पशुओं को मच्छरों से बचाने के लिए धुआँ सुलगाया जाता, जिसे ‘धुआँ देना’ कहते। इसके लिए सूखे करसी-कंडा (गोहरी (उपले) बनाने से बचे गोबर के टुकडे व भुर्रे) प्रवेश द्वार के किनारे की दीवाल के पास छह इंच की चौडाई में फैला दिये जाते और उसके एक सिरे पर आग सुलगा दी जाती। वह जलती नहीं थी, रात भर धुँधुआती रहती, जिसके कडवे धुएं से मच्छर भागते रहते और बैल-गायें सुख से सो पाते।


 

रातों को 2-4 बार उठके उसे बेना (हाथ के पंखे) से हौंकना (हवा देना) पडता, ताकि आग बुझ न जाये। काका के रहते तो किसी को चिंता ही नहीं रहती थी – वे बार-बार उठते रहते। उनकी इस नींद को कुकुरनिंदिया कहा जाता था – वही श्वान-निद्रा, जो अच्छे विद्यार्थी के पाँच लक्षणों में से एक है। लेकिन उनके न रहने पर मैं-माँ-बड़ी बहन मिलकर ख्याल रखते – जो भी उठता, जाके हौंक आता। संयोग से उसी दीवाल के सामने सबसे पहले करियवा का खूँटा पडता था, क्योंकि उस नाँद में बड़ी सींग के नाते उजरके का मुँह जाता ही नहीं था। उसके लिए चौडा बयाला दूसरे सिरे पर बना था। यह व्यवस्था करिया पहलवान के अन्धे होने का पता चलने के पहले की थी और तब तक तो उससे बच के बैठने-सोने की उसकी आदत पड गयी थी।

सबसे आनन्ददायक दिन होते त्योहारों के, जब होली-दीवाली-पचइंया (नागपंचमी) पर पूरे गाँव के लोग अपने बैलों को तालाब में ले जाके नहलाते। नहलाते वैसे भी, पर महीनों बाद कभी-कभी और सब लोग अपनी फुर्सत-जरूरत से अलग-अलग। लेकिन त्योहारों को तो सबका साथ में गोया ‘पशु-नहान’ लग जाता, जिसके मुक़ाबले हमारे कुम्भआदि नहानों के दृश्य तो निहायत गलबल ही कहे जायेंगे। पहले तो घुटने भर पानी में खडे करके हम पुआल से उनका पूरा बदन घिसते। कालांतर में जब मुम्बई में अपने पालतू कुत्तों-चूहों को उनके लिए ख़ास बने अलग-अलग शैम्पू से नहलाया, ब्रश से मला – अब भी वहाँ रहते हुए बीजू-चीकू (कुत्तों) को करता हूँ,  तो करियवा-उजरका के लिए मन बहुत तरसता है।

न आह भरी, न उफ़ किया

लेकिन उस रात कैसे वह जान न पाया और आँच लगने पर भी उठ न पाया – थका था, नींद गहरी थी कौन जाने! कहीं उसी बेपरवाही की इंतहा तो नहीं? पर सुबह बाहर निकालते हुए देखके सब हैरान-परेशान। पूरा दायां पट्ठा (पैर का बाहरी-ऊपरी हिस्सा) जल गया था, पर कुशल थी कि असर हड्डी तक नहीं पहुँचा था। देखकर माँ तो धार-धार रोने ही लगी। पशु-चिकित्सा तब गाँवों तक नहीं पहुँची थी। सो, सहारा था सिर्फ़ खरबिरैया (पेड-पौधे, घास-पात) के इलाज़ का। इसमें जो कोई जो भी बता दे, वह जहाँ भी मिले, जाके काका वहाँ से ले आयें। गज़ब का जीवट व जांगर (श्रम-कौशल) था उनमें। सब कुछ हुआ और पूरा सूखने तक उसे रातों को उस खम्हिया (कच्चे बरामदे) में सुलाया गया, जहाँ हम सोते थे। मच्छरों का बन्दोबस्त यहाँ भी वही था, लेकिन यह जगह बहुत बड़ी थी। पर कहना होगा कि तब भी करिया ने अद्भुत सहन शक्ति व अपार धैर्य का परिचय दिया – न दर्द की आह भरी, न दवा-इलाज़ के दौरान उफ़ किया। ख्याल आ रहा कि उसके कुछ ही सालों बाद हमारे देहात के नेता त्रिवेणी राय की पशु-शाला में पंखे लगे। सुनकर हम अपने हाल पर तरसे, अपने घर रहने के लिए अभिशप्त उजरका-करियवा की बदनसीबी पर तडपे और नेतागीरी के पैसे की उनकी अय्याशी पर बहुत खौले भी।

सबसे आनन्ददायक दिन होते त्योहारों के, जब होली-दीवाली-पचइंया (नागपंचमी) पर पूरे गाँव के लोग अपने बैलों को तालाब में ले जाके नहलाते। नहलाते वैसे भी, पर महीनों बाद कभी-कभी और सब लोग अपनी फुर्सत-जरूरत से अलग-अलग। लेकिन त्योहारों को तो सबका साथ में गोया ‘पशु-नहान’ लग जाता, जिसके मुक़ाबले हमारे कुम्भआदि नहानों के दृश्य तो निहायत गलबल ही कहे जायेंगे। पहले तो घुटने भर पानी में खडे करके हम पुआल से उनका पूरा बदन घिसते। कालांतर में जब मुम्बई में अपने पालतू कुत्तों-चूहों को उनके लिए ख़ास बने अलग-अलग शैम्पू से नहलाया, ब्रश से मला – अब भी वहाँ रहते हुए बीजू-चीकू (कुत्तों) को करता हूँ,  तो करियवा-उजरका के लिए मन बहुत तरसता है। काश, तब अपने लिए भी शैम्पू-ब्रश का पता होता और उनके लिए साबुन खरीदने की औकात व प्रथा होती। महीनों-महीनों बाद नहलाने के कारण दोनों के बदन से मैल खूब निकलता और एक बार पूरा भींग जाने के बाद वे बड़े चाव से नहलवाते – रगडते हुए पूँछ खडी कर लेते, अँगडाई लेने लगते और बाहर निकलने पर उजरका तो कुलाँचे भर-भर के मज़े लेता।

मालिश का शृंगार

सबसे मज़ेदार होता साफ कर लेने के बाद उन्हें बीच तालाब में ले जाके पौंडाना (तैराना)। होली में तो सिंचाई के चलते तालाब में पानी बहुत कम रह जाता, लेकिन दीवाली में तालाब भरा रहता और ठण्ड उतनी ज्यादा न रहतीसो पगहा पकड के दोनों को बारी-बारी से खूब पौंडाता। यह काम करते काका या बडके बाबू को कभी नहीं देखा मैंने, जबकि पौंडने दोनों को आता था – बडके बाबू तो हमारे साथ तैरने का मुकाबला भी करते। पौंडता करियवा भी, पर वही कि अपने अँधेरे के कारण सहमा रहता। जिधर पगहे को ले जाते, उधर ही जाता अहटियाते-अहटियाते (टोह लगाते हुए)। पर उजरका पौंडने के खूब मज़े लेता। तैराकी स्पर्धाओं में तो सिर्फ गति नज़र में लायी जाती है, वरना मनुष्य हों या पशु, मज़े लेते हुए मंथर-मंथर तैरने में अन्दर-अन्दर पानी को पीछे टालने की गति की एक लय होती है, जो पानी के बाहर वाले बदन के हिस्से पर नुमायां होती है (गोवा के स्वीमिंग पूल में बेटे को तैराते हुए उसकी गति की लय भी याद आ रही है)। और उजरके की बड़ी-बड़ी सुन्दर सींगों और धुलने से चमकती हुई रोमावलियों वाली गर्दन, ड्रिल और पीठ के ऊपरी हिस्से की गति से जो लय बनती और इन सबसे मिलकर जो छबि दृश्यमान होती, उसकी नयनाभिरामता के आगे रूपक बन गये ‘हंस की गति’ भी पानी भरे – बेशक़, मेरी नज़र से व मेरे उजरके के सामने। और नौका के लिए ‘मधुर हंसिनी-सी सुन्दर’ कहने वाले पंतजी ने तो बैल को तैरते शायद देखा भी न हो। साथ तैरते हुए के अनुभव की तो बात ही क्या!

घर लाके उनके माथे (दोनों सींगों के बीच के छोटे गड्ढे) पर तेल की मालिश करते। यह काम बडके बाबू ही करते, जब कभी घर रहते – वरना तो कोई भी करता। लेकिन उनका करना मालिश का शृंगार बन जातावे उसमें रस लेते। मुझे अच्छी तरह याद है कि यदि बैल खडे भी रहते, तो सर नीचे करके गोया मालिश कराते। और बैठे होने पर की तो बात ही क्या, आँखें मूँद ही लेते – शायद बड़ी राहत मिलती होगी उन्हें। हाँ, सींग में तेल पोतते हुए अवश्य सर हिलाकर बचना चाहते, पर हम जबर्दस्ती पोतते हीजिसके बाद कई दिनों तक सींगे अच्छी लगतीं। कुछ शौकीन लोग तो सीगों को रँगते भी, किंतु मुझे न रँगना अच्छा लगता, न रँगी हुई सींग को देखना ही। इन सबके बाद कभी-कभी काका कालिख में अपना हाथ डुबाके उजरके के दोनों तरफ गदोरी का ठप्पा लगा देते और धीरे से कहते – नज़र न लगे बेटे को। फिर यूँ ही गदोरी करिया पर भी चिपका देते, पर उस पर कोई फर्क़ न पडता – ‘चढे न दूजो रंग’। उजरके की गरदन अपेक्षाकृत नाजुक थी शायद। कातिक में जब हलवाही ज्यादा होती, उसमें सूजन आ जाती। इसके लिए पुआल जलाकर उसकी राख घडे में रखी रहती। और उसे पानी में मिलाकर सुबह हल के लिए जाने के पहले और दोपहर को लौटने पर उसकी गरदन पर छोपते। इससे उसे राहत मिलती होगी, तभी वह सहर्ष छोपवाता।

जाडे में मठार, गर्मी में छाछ

जाडे के मौसम में उन्हें मठार पिलाया जाता। मठार याने गाढा छाछ, जिसमें घी को खरवने के बाद नीचे जमा काला पड गया घी भी मिला होता। लेकिन गर्मी में मठार नहीं, शुद्ध छाछ पिलाते – शायद इसलिए कि घी गर्म करेगा। जाडे भर उन्हें खिलाने के लिए एक अलग खेत मे गाजर बोया जाता। गाजर धोकर काटा जाने लगता, तभी से दोनों मचलने लगते – इतना प्रिय लगता होगा। भूसे का चारा तो बारहमासा होता, लेकिन पुआल व ठेंठा (मक्के का सूखा तना) भी लगभग नौमासे छमासे होते ही। ये सूखे चारे होते, जिनमें हरा चारा डाल के स्वास्थ्यकर व स्वादिष्ट करने के लिए अलग-अलग मौसम में अलग-अलग चारों का इंतजाम क़ुदरत ने किया है। बारिश के समय तो खूब हरी-हरी घासों से सारी धरती भर जाती। सनई-बाजरे भी होते। बस, काटके लाना भर पडता। उन दिनों बाँस भी हरे पत्तों से लद जाते और उन्हें लटकाकर पत्तियां तोड लेना आसान होता। मैं और मेरे खान्दान के स्व. रामाश्रय भाई घास करने में ज्यादा विश्वास न करके या जांगर न लगाके पत्तियां ही तोडते – 20-20 आँटी (जूडी- बण्डल)। इसे घास की तरह ही चारे की मशीन में बालके (छोटा-छोटा काटके) भूसे में मिला देने पर हमारे दोनों वीर खरी-दाना की परवाह न करते – सब चाट जाते। फिर तो हरे धान काटके आते, बैलों की तो चम्म होती ही, उसे लतिया के जो धान निकलता, उसे नवान्न के रूप में हम भी खाके तृप्त होते। रबी की फसल शुरू होते ही अगहन-पूस (प्राय: नवम्बर-दिसम्बर) में अँकरी-सरसो हो जाते। माघ-फागुन (जनवरी-फरवरी) में मटर के झंगडे और गन्ने के गेंडे (ऊपर का हरा हिसा) तो चारा ही बन जाते। फिर चैत (मार्च) में लतरी हो जाती। यह ऐसी ग्रामीण-कृषि संस्कृति थी, जो आज लुप्त हो गयी। ट्रैक्टर ने बैलों को खत्म कर दिया। अब गायों के बाछे मारे-मारे फिरते हैं, जिनका पैदा होना कभी किसानों का इष्ट हुआ करता था, लेकिन आज ‘पुत्रीति जाता’ जैसी ‘महनीय चिंता’ और ‘कस्मै प्रदेयेति’ (किसे दें) के ‘महान वितर्क:’ बन गये हैं। ऐसे में अब इस हरियाली और हरे चारे को कौन पूछे? (जारी)


ये भी पढ़ें

तीन बैलों की कथा – 1

तीन बैलों की कथा – 2

तीन बैलों की कथा – 3

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments