करियवा-उजरका
सत्यदेव त्रिपाठी ।
चैत में कटिया (जौ-गेहूँ कटने) के बाद दँवरी शुरू हो जाती। वैशाख-जेठ भर चलती। इस दौरान कितना हू हरकने के बावजूद ना-ना करते भी बैल इतना जौ-गेहूँ उदरस्थ कर लेते कि दँवरी से छूटने पर तालाबों-कुओं पर, फिर घर पर सिर्फ पानी ही पानी पीते और बैठ-सो जाते।
हाल यह होता कि खडा दाना पचता नहीं और गोबर के बदले निछान (बिना किसी मिलावट के) दाना ही बाहर निकलता और इसे उनके जिन्दा रहने की त्रासदी कहें या विकल्प कि भूमिहीन मज़दूर वर्ग की औरतें उसे बीन-बटोरकर ले जातीं और धो-सुखाके पीस-पो के खातीं-खिलातीं। तब यह सब रोज़ देखते, उसी में पलते-बढते-जीते हमें सामान्य (नॉर्मल) ही लगता, लेकिन बड़े होकर पढ़ते हुए इसका दंश गहरे चुभा – ख़ासकर दलित-लेखन, जहाँ यह मामला खूब रोशन हुआ है।
लगभग दो साल बाद जो गिरा, तो उठा नहीं
यह सब देखते-साझा करते हुए काका के रहते बड़े मज़े से कट रही थी। उनके जाने के बाद भी करने का मज़ा तो आता, पर पढ़ाई और इन सारे कामों के बीच तन-बिन जाना पडता – दोनों की हानि के साथ दोनों को निभाना फिर भी उतना मुश्किल न होता, यदि घाटा-नफा की चिंता न होती। घाटा ही ज्यादा था, क्योंकि काका जैसी खेती करके कम में से ज्यादा पैदा कर लेना मुझ अनुभव-विहीन नौसिखिये को आता न था। बहनों की शादियों में तमाम खेत रेहन थे और घर का कोष एकदम रिक्त – ऋण से लदा। ऐसे में करियवा-उजरका को वैसी रातिब (ख़ुराक) भी न मिल पाती, जिसकी अब इस उम्र में उन्हें ज्यादा ज़रूरत होती। बिना भरपूर खिलाये, उनसे पूरा काम लेने के लिए मैं अपने को कभी माफ़ नहीं कर पाऊँगा। दोनों बेचारे मेरे साथ खींच रहे थे। अपनी ढलती उम्र कोपता नहीं। काका का जाना भी उन्हें साल रहा था। उनके अभाव से भी टूट रहे थे या उनके नमक की अदायगी कर रहे थे!! पर कब तक?
पहले करियवा गिरा। कुछ दिनों तक उठाने पर उठ जाता। पर 1969 के सितम्बर में काका के जाने के लगभग दो साल बाद जो गिरा, तो उठा नहीं। करीब दस दिनों जमीन पर लेटा रहा। रोज़ अन्दर-बाहर करना सम्भव न हुआ, तो वहीं बाँस खडे करके दरी-चद्दरों से छाँव कर दी गयी। रातों को कुछ गझिन ओढकर मैं वहीं सोता। घंटों-घंटों उसके पास बैठी माँ उसे सहलाती व मक्खियां उडाती पायी जाती।
याद आता है कि कहीं ‘बेतार के तार’ से खबर पाकर तीन-चार दिन पहले बडके बाबू भी आ गये थे। खूब तीमारदारी की करिया की – जैसा उनका स्वभाव था। गरदन उठाकर मुँह खोलकर रोटी के छोटे-छोटे टुकडे करके मुँह में रखे जाते, तो कूचने की कोशिश करता – कुछ जाता भी अन्दर। फिर किसी तरह चिरुवा (एक हाथ की अँजुरी) से पानी मुँह में डाला जाता, तो मुँह का बचा हुआ भी शायद पेट में चला जाता। हर तीसरे दिन हम तीन-चार लोग मिलकर उसकी करवट बदल देते, ताकि एक ही अलंग (तरफ) पडे रहने की अधिक पीडा तथा चमडी पर छाले पड़ने से बचे। जिस दिन गया, दोपहर ढल चुकी थी। उसकी विदाई में बिछडने की पीडा के साथ अगले महीने शुरू होने वाली कातिक की बुवाई की चिंता भी जुड गयी थी। आँखे तो सबकी गीली थीं, माँ की अफाट रुलाई देखी-सुनी नहीं जा रही थी। हरिजन बस्ती के लोग जब करिया को बाँसों में टांग के ले चले, तब तो वे हरकेस काका (कहाँर) भी रो पडे थे, जिन्हें उसने एकाधिक बार लात मारा था। वही अंतिम मूर्त्त दर्शन हुएपर नज़रों से ओझल तो क्या कभी हो पायेगा अपना प्यारा करियवा!
गाँव के लोगों ने भी खूब मदद की
नया बैल लेने का सौंहर था नहीं। जदुनाथ चौरसिया से हरसझा हुआ। अब एक दिन हमारे खेत में हल चलता, एक दिन उनके। नये बैल के साथ चलने में उजरका मानो श्रीहीन हो गया। उसकी आँखों से बार-बार पानी गिरने लगता। एक दिन उसे किसी और के हाँकने में चलना होता और मंतू भइया एक दिन खाली रहते। उनकी रोजही के लिए उस दिन खेत में उनसे कुछ और काम कराते। लेकिन गाँव के लोगों ने भी खूब मदद की। जिससे भी माँगा, एक-एक, दो-दो दिन सबने अपनी जोडी दी। किसी तरह कातिक बीता। इसी तरह सिंचाई भी हो गयी। 1970 मार्च में इंटर का मेरा इम्तहान हो गया। अब मैं भी मुक्तया खाली? शहर जाके आगे पढ़ने की हालत नहीं। अभी कटिया में कुछ समय था। सो, नानी व मौंसी के यहाँ चला गया। और आठ दिनों बाद आया, तो खूँटा खाली मिला – उजरका अचानक चला गया था। उसे ‘बाघी’ हो गयी – हृदय का ज़हर जैसा कुछ, जो अचानक मर जाने पर हर पशु के लिए कहा जाता। कलेजाफाड क्लेश-चिंता के बीच एक राहत मिली कि जाते हुए उजरके को देखने की दुर्दांत पीडा से बच गया, पर आते ही माँ के करुण विलाप और घर-दुआर के असीम सूनेपन से कहाँ बच पाया!! दुआर के शृंगार चले गये। लेकिन उनकी यादों से बचना चाहता भी नहीं – जिन्होंने मेरे बचपन को हसीन व भाव-समृद्ध बनाया, किशोरावस्था में जो कन्धे से कन्धा मिलाकर चले, बड़े भाइयों जैसे गाढे के साथी बने, उनकी स्मृति को नित्य का प्रणाम! (जारी)
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