और वो सुघरका…

सत्यदेव त्रिपाठी 

करियवा-उजरका के जाने के सात साल बाद आया सुघरका। इस बीच बड़ा पानी गुजरा सर से…

खेत वगैरह रेहन रखके पहले एक, फिर काम न चलने पर दूसरा बैल भी खरीदा, पर कम पैसे लगाये, तो कम औकात के बरध मिले। ऊपर से मेरे बढ़ते अभावों में पुन: उनकी अच्छी जतन न होती और काम तो ज्यादे होते ही।  सो, वे भी कमजोर रहते और खेती भी ठीक से न हो पाती। फिर भी लटते-बूड़ते एक साल निकला।


नौकरी का पत्र

तभी आ गया डाक-तार विभाग में क्लर्क की नौकरी का पत्र- ‘जिमि करुणा महँ अद्भुत रस’। संयोग से वे 1971 की गर्मियों के दिन थे, जिसे ‘जेठी का माथा’ कहते हैं- जब साल भर की खेती-बारी का विधान तय होता है। मैंने आव देखा न ताव; सारी खेती अधिया पर देकर, बैलों को बेचकर चले जाने का फैसला कर लिया। माई-बडके बाबू अवाक्। जिसने भी सुना, अपने गाँव से लेकर आसपास के गाँव एवं नात-हित- सबलोग समझाने आये। एक बीघा खेत बेचकर कर्ज चुकता करके ठाट से खेती करने की नेक सलाहें दीं। सब सचमुच मेरा हित चाहते थे, पर मैंने एक न सुनी- पुश्तैनी सम्पत्ति को बेचने से साफ इनकार कर दिया। और सबकी अनसुनी करके निकल ही गया।

पत्र था चयन की सूचना का, बुलावा का न था। एक साल लग गया प्रशिक्षण की बारी आने में। इस दौरान छोटे-मोटे काम करके रिश्तेदारों के यहाँ रहा- कार से दुर्घटना का शिकार होकर तीन महीने अस्पताल में बीते।

अतृप्त इच्छा का भूत

ट्रेनिंग के बाद फरवरी 1973 में नौकरी पे लगा, तो पढ़ने की अतृप्त इच्छा का भूत सर पे चढ़ बोलने लगा। जून में बी.ए. में दाखिला कराके माना। एम.ए. तक चार साल लगने ही थे। गुरुवर चन्द्रकांत बान्दिवडेकर की संस्तुति पर परीक्षाफल आने के तीन महीने पहले ही 6 जुलाई 1977 से चेतना कॉलेज में प्राध्यापकी मिल गयी।

पुराने पाठ्यक्रम की अतिरिक्त कक्षाएं अलग से मिल गयीं। खूब काम किया, अच्छे पैसे आये और जून, 1978 में घर जाके सारा कर्ज अदा किया और ठीक सात सालों बाद नये सिरे से खेती शुरू कराई। नकद वेतन व कुछ खेत देकर पूरे समय का आदमी रखा और दो बैल खरीदे, जिनमें आया वह सुघरका।

बड़े मन से विधाता ने उसको गढ़ा

उसका नाम सुघरका न था, बल्कि उसका कोई नाम ही न था। ये तो करियवा-उजरका के वजन पर मैं लिख रहा हूं- सुघरका, क्योंकि वह सचमुच बहुत ‘सुग्घर’- सुगढ़ (वेल शेप्ड) था। भरत व्यास के शब्दों में कहूं, तो ‘बड़े मन से विधाता ने ‘उसको’ गढ़ा… (घड़ा नहीं, जैसा कि उस गीत में गाया गया है)। उसकी सुघरई ही थी कि पहले ही दिन जो बैल खरीदने निकले और घर से तीन ही किमी. पश्चिम के गाँव बक्कसपुर (बक्सपुर-बख़्शपुर) में वह दिखा। सप्ताह भर चहुं ओर दसों कोस के मान में सायकल से ढूंढते रहे, कोई बैल मन को भाया ही नहीं, क्योंकि आँख में यह जो गड़ गया था- बल्कि गोपियों के कृष्ण की तरह ‘तिरिछे ह्वै जु अड्यो’ हो गया था। वह जमाना था कि एक बैल खरीदने के लिए हम सात लोग जाते- जंगी काका, प्रभाकर चाचा, रामाश्रय भाई साहेब, रामप्यारे-रामपलट व रामपति भइया और मैं- ऐसी सामाजिकता व सामूहिकता तब थी।

समय और इच्छा का द्वंद्व

सबके पास समय था, क्योंकि दिली इच्छा थी। शायद इसी को पाने-जीने मैं मुम्बई छोड़कर गाँव आया। पर अब तो समूची जिन्दगी ही ‘समय और इच्छा के द्वंद्व’ में नष्टप्राय हो चुकी है- समाज-समूह की बात ही क्या! खैर, गँवई सम्बन्ध में सबसे परिचित होने के बावजूद इस बैल के मालिक सज्जाद भाई सात-सात लोगों के इसरार-हुज्जत के बावजूद 1200 रुपये से एक पैसा कम करने को तैयार न थे। तर्क देते- ‘1300 कहके 1200 करता, तो क्या करते आप? छह महीने बाद दीजिए, बैल आपका है। ले जाइये, पर दीजियेगा 1200 ही’। बात की ऐसी सलाहियत भी थी हमारे ‘लोक’ में तब! आखिर हारकर उसी कीमत पर लाये- हारे सज्जाद भाई से नहीं, सुघरके की सुघरई से।

लोग देर तक निहारते

वह आया, तो देखकर पूरे गाँव का जी जुड़ा गया। गाँव ही क्या, आते-जाते राही भी खड़े हो जाते। देर तक निहारते। कभी-कभी तो वह बैठा होता, तो आने-जाने वाले लोग पूरा देखने के लिए उठा देते। हालत ऐसी हो गयी कि खेत से चलके आया होता, उसे आराम की जरूरत होती- बैठा होता और कोई उठा देता। इस हरकत से माँ एकदम झल्ला जाती। परिणाम यह हुआ कि चलके आने के बाद उसे अन्दर बाँधा जाने लगा, ताकि बैठ के निश्चिंतता से आराम कर सके। उस बार मेरे मुम्बई आने के पहले माँ ने बरदौर (बैलों वाले घर) में दरवाजा लगवाया। ऐसा पहली बार हुआ, वरना बैलों के घर बिना दरवाजे के ही होते रहे। बस, दरवाजे की दोनो दीवारों में आमने-सामने गड्ढे जैसा बड़ा छेद होता, जिसमें रातों को बाँस का एक टुकड़ा लगा दिया जाता, ताकि जानवर छूट जाये, तो बाहर न जा पाये। उस बाँस के टुकड़े को ब्योंडा कहते- ब्योंडा लगाना- वही भारतेन्दु बाबू वाला- ‘लै ब्योंडा ठाढे भये श्री अनिरुद्ध सुजान’। लेकिन अब माँ बाहर से ताला लगा देती। उसे डर था कि रात को कोई ‘छोर’ ले जायेगा। ताले के बावजूद रातों को उठ-उठके देखती। इस पर शुरू-शुरू में गाँव में कुछ बोली (तंज) भी बोली गयी, पर माँ पर फर्क न पड़ा।

सीरत भी शानदार

सूरत ही नहीं, उसकी सीरत भी शानदार थी। सज्जाद ने कहा था- भाई, चाल इसकी मीठी है। दौड़ के नहीं चलता, चलेगा अपनी चाल से, पर आपके मन और जरूरत भर। यह सच था। दिन भर भी हल चलाओ, या जो भी काम लो, एकरस चलता रहता- न चेहरे पर शिकन, न हाँफा (तेज साँस), न झाग, न तनिक भी कसरियाना। सारा पैसा इसमें लग गया था, इसलिए दूसरा बैल सस्ता लिया था, तो औकात में हल्का था। इसलिए बड़े और कठिन काम के लिए पियारे भइया (रामप्यारे भाई) के ऐसे ही कद्दावर बैल के साथ जोड़ी बन गयी थी। पूरे गाँव के कठिन काम यही जोड़ी करने लगी। उस साल सारे गाँव का गन्ना इन दोनों की जोडी ने ही बोया। गन्ने के हल को ‘पहिया धरना’ कहते, जो बहुत मेहनत का काम होता। इसमें नौहरे (भारी हल) में अतिरिक्त सँगहा (पुआल-पत्ते) बाँधके चौड़ा-मोटा कर दिया जाता, ताकि चौड़ी-गहरी नाली बने। इसमें ‘हराई फानना’ (पहली लाइन चलाना) बड़े कौशल का काम होता। इसके लिए बैल व हल चलाने वाला बहुत कुशल होने चाहिए। और यह जोड़ी तथा पियारे भइया की ऐसी ही कुशल संगति थी- हराई तो सबकी उस साल पियारे भइया ने ही फानी थी। ऐसी संगतियां हर गाँव में हर समय कोई न कोई होती ही थी। इस तरह सारे गाँव का जी ही नहीं जुड़ाया, सुबिस्ते से हुए बहुत चौचक काम से गाँव लाभान्वित भी हुआ। (जारी)


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