और वो सुघरका…

सत्यदेव त्रिपाठी 

सूरत-सीरत के साथ ही सुघरका की आदतें भी निराली थीं। खेत से काम करके आते ही सारे बैल नाँद पे भागते और हाबुर-हाबुर (हाली-हाली – जल्दी-जल्दी) खाने लगते। लेकिन सुघरका हल से आकर बैठ जाता- दो-चार घण्टे। पूरी थकान उतारके तब खाता। इतने में शाम के 4 बज जाते- खाते-खाते छह बजते। तो, शाम का खाना भी देर रात को खाता।


 

उसकी नाँद को चारे से भरकर, खरी-दाना चलाके माँ सो जाती। सुबह नाँद में एक तिनका तक न मिलता- खाके सब चाट जाता। इसी तरह सारे पशु अमूमन पानी-चारा साथ में खाते हैं, जिसमें यथाशक्ति खरी-दाना डाला जाता है। इस समूचे कार्य-व्यापार को ‘सानी-पानी करना’ कहते हैं- पानी में सना चारा-दाना। लेकिन अपना यह बच्चा सूखा चारा खाता। उसी में खरी-दाना मिला देते। और खाने के बाद अलग से पानी पीता- दो बाल्टी पूरा। या तो बाल्टी में ही रख दो या फिर उसकी नाँद में डाल दो। सुद्धा (सीधा) इतना था कि कोई भी बाँधे-छोड़े-सहलाये, उसके ऊपर लोटे-पोटे, कुछ न बोलता। उसके लिए वह मुहावरा सबकी जुबान पर चस्पा हो गया था- ‘एकदम गऊ है’। बस, एक ही संवेदनशील बिन्दु (सेंसेटिव प्वाइण्ट) था उसका- नाक के ऊपर दोनों आँख के बीच तक के हिस्से पर वह ‘पर तक न रखने’ देता। उसे छूने, साफ करने की बहुतेरी कोशिश मैंने चुनौती की तरह की; लेकिन नहीं, तो नहीं छूने दिया। बस, साल में दो-एक बार जब मैं घर रहता, तो तालाब में नहलाकर पौंडाते हुए पानी में दबाके उस भाग को धो देता और चुनौती पूरा करने का मनोवैज्ञानिक संतोष पा लेता। वरना तो ऐसे में नाथ (नाक को छेदके गरदन में बँधी रस्सी) को खींचते हुए पकड़ कर बैलों को काबू में लाने का जो चलन है, उसे अपनाने पर भी वह नाक की सारी पीड़ा की परवाह न करते हुए, दोनों अगले पाँव उठाकर खड़ा हो जाता, लेकिन तब भी हमें हानि पहुँचाने तो क्या, फुंकारने तक की प्रतिक्रिया नहीं देता।

Ox Lady | Animals, India, Face

मां का जुड़ाव

ऐसे प्राणी को पाकर माँ को तो समझो कोई निधि ही मिल गयी हो। जैसे काका उजरका-करियवा की नींद सोते-जागते, इसके साथ माँ का जुड़ाव उससे भी कहीं अधिक हो गया। जाहिर है कि उसमें स्त्रीत्त्व की ममता के गाढ़े रंग ने ऐसी मिठास व प्रियता भर दी, जो अकथनीय व अविस्मरणीय है। हालांकि उसी ममत्त्व की अतिशयता ने सुघरका के खाने-पीने, रहने-सहने में कुछ अतिवादी आस्वाद व अरुचियां भी पैदा कीं, तो माँ में आसक्ति की कातरता-भीरुता, लेकिन  अनुरक्ति (आॅब्सेशन) की ये अनिवार्य, पर अपरिहार्य हानियां (निसेसरी इविल्स) हैं। उन्हीं दिनों घर के पीछे का हिस्सा मैंने पक्का कराया, जिसमें बायीं तरफ का कमरा माँ के सोने का था।  उसी के बायीं बाहरी तरफ बैलों का घर था। मैंने वहीं बड़ा जंगला लगवा दिया, जिसे खोलकर जब चाहो, उन्हें देख लो। फिर तो सोने में भी सुघरका पैर पटके, तो जंगला खोल कर माँ देखने लगे। इस तरह ‘उसकी नींद सोने-जागने’ का मुहावरा व्यवहार में भी सार्थक हो गया।

फोन से सब कुछ बंद करा दिया

दुर्भागयवश यह स्नेह-सम्बन्ध व कर्मयोग ढाई साल ही चला। तीसरे कार्त्तिक में ठीक बुवाई के वक्त करने वाले करिया महोदय अचानक एक सुबह बिना बताये नहीं आये। पूछने पर वेतन बढ़ाने की बात माँ से की- दबंगई के साथ, जो मुझे नागवार लगा। खेती के अलावा पशुओं के काम करने वाले किसी के न होने की हमारी मजबूरी को भुनाना चाह रहा था। छोटे-मोटे पचड़े भी बहुत थे, जिससे माँ को अवांच्छित कष्ट होता। लिहाजा पहली बार की ही तरह मैंने तुरत-फुरत में फोन से सब कुछ बंद करा दिया। खेती पहले की तरह अधिया पर दे दी। समस्या दोनो बैलों की थी। बेचने की घोषणा कराके मैंने सुघरके को पियारे भइया और दूसरे को रामपलट भइया के खूँटे बँधवा दिया। उनसे कहा- जब तक नहीं बिकते, खिलाइये और जोतिये। जब दाम खुल जाये, तो उतने में चाहे, तो आपलोग ही ले लीजिए।

इन तीनों पशुओं की टीस…

Man killed in new cow lynching in India

आपात्कालीन ही सही, यह व्यवस्था इसलिए भी अच्छी सिद्ध हुई कि सुघरका और माँ एक दूसरे से छूटकर भी जुड़े रहे। बार-बार माँ जाके दोनों को देख आती- कुछ खिला-पिला आती। सुघरका को जब खाने-हटाने के लिए छोड़ा जाता, खिंचाके अपने घर चला जाता। चलके खेत से आता, तो जोड़ी वाले बैल को लिये-दिये वहीं चला जाता। ऐसे में कुछ-खिला-पिला के, सहला-चुमकाकर के माँ उसे विदा करती- थोड़ा रो भी लेती। इस तरह दोनों के मन को धीरे-धीरे मोहँठने का मौका मिल गया।

करियवा-उजरका का जाना तो दैवी पीड़ा थी, जिसमें अपने अभाव भी मिल गये थे। इसीलिए दोनों को पूरने की चाहत दबकर भी बनी रह गयी थी, जिसने यह संसार फिर रचवाया। लेकिन समर्थ होकर भी इस भौतिक विडम्बना का क्या करें? न मनुष्य की इस फितरत को बदला जा सकता, न अपनी स्थिति को- इस अहसास ने फिर तीसरी बार ऐसा कुछ करने का सपना ही तोड़ दिया। फलत: बिना खाये ही यह हीरामन की ‘तीसरी कसम’ सिद्ध हो रहा है। और कैसे कहूं कि इन तीनों पशुओं की टीस कितनी-कितनी बार पशु बनने से बरबस बरजती रहती है। (समाप्त)


ये भी पढ़ें

तीन बैलों की कथा – 1

तीन बैलों की कथा – 2

तीन बैलों की कथा – 3

तीन बैलों की कथा – 4

तीन बैलों की कथा – 5

तीन बैलों की कथा- 6

 

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments