#santoshtiwariडॉ. संतोष कुमार तिवारी।
आज भी हजारों ऐसे रहस्य हैं जिन्हें विज्ञान सुलझा नहीं पाया है। आज से कोई 50-60 साल पहले यह समझा जाता था कि ब्रह्मांड में सिर्फ एक आकाशगंगा है। अब माना जाता है कि ब्रह्मांड में असंख्य आकाशगंगा हैं। आज से कोई 70 साल पहले कोई ब्लैक होल का नाम नहीं जानता था। आज भी ब्रह्मांड के ब्लैक होल वैज्ञानिकों के लिए रहस्य बने हुए हैं। ऐसे ही तमाम अनसुलझे रहस्यों में से एक है टेलीपैथी।

टेलीपैथी क्या होती है? कैसे होती है? इसे किसी सच्ची घटना का उदाहरण देकर आसानी से समझा जा सकता है। ऐसी एक घटना इस प्रकार है:
मेरे एक पुराने पत्रकार मित्र हैं अजय विद्युत। उम्र साठ साल से कुछ ऊपर होगी। जीवन मुफ़लिसी में गुजरा। उनकी जेब में पैसा न होने के बावजूद देश के कई जाने-माने लोगों से गाहे-बगाहे उनका संपर्क बना रहता है। जैसे कि मौजूदा दौर के प्रसिद्ध लेखक अमीश त्रिपाठी (Amish Tripathi), कवि कुमार विश्वास (Kumar Vishwas), गायक कैलाश खेर (Kailash Kher), फिल्म निर्माता विवेक अग्निहोत्री (Vivek Agnihotri) आदि। इसी कड़ी में एक और नाम है ओशो वर्ल्ड (Osho World) के संपादक और ओशो इन्टरनेशनल फाउंडेशन (Osho International Foundation) के ट्रस्टी स्वामी चैतन्य कीर्ति (Swamy Chaitanya Kirti)।
कोई दस बारह साल पहले की बात है। अजय विद्युत नोएडा में एक किराए के मकान की तीसरी मंजिल में अकेले रहते थे। एक रात उनकी तबीयत बहुत खराब थी। कोई मदद करने वाला नहीं था। रात के कोई ग्यारह-साढ़े-ग्यारह बजे होंगे। अचानक उनके पास सिंगापुर से स्वामी चैतन्य कीर्ति का फोन आया। स्वामीजी उन दिनों सिंगापुर में थे। उन्होंने अजय विद्युत से उनका हाल पूछा। तो विद्युतजी बताया कि हाल अच्छा नहीं है। स्वामीजी ने कहा कि मुझे लग रहा था कि आपकी तबीयत ठीक नहीं है और इसीलिए मैंने आपको फोन किया। स्वामीजी ने कहा कि कल सुबह अपोलो अस्पताल जाकर आप डॉ. नरेश त्रेहन (Dr. Naresh Trehan) से मिल लें, मैं उनको फोन करके आपके बारे में बता रहा हूं।
डॉ. नरेश त्रेहन भारत में बहुत बड़ा नाम है। खास तौर से हृदय रोग के मामले में। उनसे मुलाक़ात करना भी सबके बस की बात नहीं है। अगले दिन विद्युतजी डॉ. नरेश त्रेहन के पास गए। उन्होंने उनके हाल पूछे, कुछ मेडिकल टेस्ट कराए और कुछ दवाएं भी दीं। फीस लेने का तो कोई सवाल ही नहीं था। डॉ. त्रेहन ने उन्हें यह राय भी दी कि आप घर में अकेले न रहें, क्योंकि आपकी तबियत ठीक नहीं है। कभी भी आपको मदद की जरूरत पड़ सकती है। साथ ही डॉ. त्रेहन ने उनको अपना विजिटिंग कार्ड भी दिया। विद्युतजी ने उनसे पूछा कि इस विजिटिंग कार्ड का मैं क्या करूं? तो डॉ. त्रेहन ने कहा कि इस पर मेरे मोबाइल नंबर लिखे हुए हैं; आपको आगे से कभी इस प्रकार की तकलीफ हो, तो मुझे फोन कर दीजिएगा। चाहे रात के दो-ढाई ही क्यों न बजे हों; आधे घण्टे के अन्दर कोई एम्बुलेंस आपके पास आएगी और आपको हमारे अस्पताल ले आएगी।


हालांकि, फिर कभी अजय विद्युत को उस विजिटिंग कार्ड का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं पड़ी।
ये बातें विद्युतजी ने इस लेख के लेखक को अर्थात मुझे दो-एक बार बताईं थीं। विद्युतजी आजकल लखनऊ में रह रहे हैं। अभी हाल में 24 फरवरी 2023 को स्वामी चैतन्य कीर्ति लखनऊ आए हुए थे। वहाँ विद्युतजी के साथ मैं भी स्वामीजी के पास मौजूद था। वहाँ उपर्युक्त घटना पर एक बार फिर चर्चा हुई।
जिस रात अचानक स्वामीजी ने सिंगापुर से अजय विद्युत को फोन किया था और कहा था कि मुझे लग रहा था कि आपकी तबीयत ठीक नहीं है, तो ऐसी घटना को टेलीपैथी कहते हैं।
टेलीपैथी की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है। फिर भी मोटे तौर से इसका मतलब होता है कि किसी मानव निर्मित उपकरण या मानव प्रयास के बगैर सुदूर बैठे किसी व्यक्ति के मस्तिष्क के साथ आपका जुड़ना हो जाए। अभी तक वैज्ञानिक टेलीपैथी का कोई आधार नहीं खोज पाए हैं।

टेलीपैथी की दूसरी घटना

टेलीपैथी की घटनाएँ शायद सभी के जीवन में कभी न कभी होती होंगी। मेरे जीवन में भी इस प्रकार की एक नहीं, अनेक घटनाएँ हुई हैं। उनमें से एक-दो यहाँ लिख रहा हूँ।
सन् 2001 की बात है। मैंने कनाडा सरकार की एक रिसर्च स्कालरशिप के लिए एप्लाई किया था। आवेदन करके मैं भूल भी गया था, क्योंकि एप्लाई किए हुए बहुत दिन हो गए थे। एक दिन मैं बड़ौदा यूनिवर्सिटी में अपने आफिस में बैठा हुआ था कि अचानक याद आया कि मैंने इस स्कालरशिप के लिए एप्लाई किया था और फिर पता नहीं उसका क्या हुआ। मन में यह बात उठी कि मुझे स्कालरशिप नहीं मिली तो कोई बात नहीं। परन्तु कम से कम वे मुझको एक रिग्रेट लेटर तो भेज देते कि मुझे स्कालरशिप के योग्य नहीं समझा गया। मैं यह सब सोच ही रहा था कि तभी एक कूरियर वाला आया और मुझे एक लिफाफा दिया। उस लिफाफे में एक पत्र था जिसमें लिखा था कि मुझे स्कालरशिप एवार्ड की गई है। मेरे लिए यह एक सुखद आश्चर्य था।
इसे भी टेलीपैथी ही कहेंगे। पर इससे बड़ी घटना आगे हुई।

टेलीपैथी की तीसरी घटना

अब मुझे उस स्कालरशिप के अंतर्गत कनाडा की यूनिवर्सिटी ऑफ वेस्टर्न ओंटैरिओ (University of Western Ontario) की फैकल्टी ऑफ मीडिया स्टडीज (Faculty of Media Studies) में रिसर्च करने जाना था। कनाडा सरकार ने मुझे हवाई यात्रा का टिकट भी भेजा था। मैं अपने साथ पत्नी को भी ले जा रहा था, तो उनके हवाई टिकट का खर्च हमने वहन किया था। कनाडा के लिए सीधी फ्लाइट नहीं थी। दिल्ली से लन्दन तक हम दोनों अमेरिकन एयरलाइन्स से गए। लन्दन के हीथ्रो (Heathrow) हवाई अड्डे पर हम लोगों को कोई चार-पाँच घंटे रुकना था और फिर वहाँ से एयर कनाडा की फ्लाइट पकड़ कर कनाडा जाना था। अब समस्या यह थी कि हीथ्रो हवाई अड्डे पर चार-पाँच घण्टे क्या किया जाए? लन्दन का हीथ्रो हवाई अड्डा मेरे लिए कुछ नया नहीं था।

अपने मित्र संजय गुप्ता को ढूँढना

मैं सन् 1982 में भी लन्दन में रहा था। तब मुझे ब्रिटेन के टॉमसन फाउंडेशन (Thomson Foundation) ने एक स्कालरशिप एवार्ड की थी लन्दन में पत्रकारिता में कोर्स करने के लिए। इसके बाद मुझे सन् 1989 में ब्रिटिश सरकार ने वहाँ की कार्डिफ यूनिवर्सिटी (Cardiff University) से पीएच.डी. रिसर्च करने के लिए तीन साल की स्कालरशिप दी थी। तब पीएच.डी. करने के दौरान वहाँ मेरा एक अच्छा मित्र बना- संजय गुप्ता। उसकी उम्र मुझसे कम थी। वह कार्डिफ यूनिवर्सिटी से एम.बी.ए. कर रहा था। वह पटियाला का रहने वाला था। एम.बी.ए. करने के बाद वह लन्दन में किसी फर्म में काम करने लगा था। कार्डिफ से पीएच.डी. करने के बाद मैं भारत आ गया और फिर संजय गुप्ता से मेरा कोई सम्पर्क नहीं रहा। उसका कोई कान्टैक्ट नंबर भी मेरे पास नहीं था।
उस दिन जब मैं कनाडा जाते हुए चार-पाँच घण्टे हीथ्रो हवाई अड्डे पर गुजार रहा था, तो मैंने अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाए कि संजय गुप्ता से कैसे सम्पर्क किया जाए। मैंने टेलीफोन इन्क्वायरी के 197 नंबर पर पब्लिक बूथ से फोन करना चाहा कि संजय गुप्ता का नंबर पता किया जाए। परन्तु 197 मुझसे दस पेंस मांगने लगा। मेरे पास डालर थे। पेंस नहीं थे। तो संजय गुप्ता से कान्टैक्ट करने का यह प्रयास सफल नहीं हुआ। मैं पत्नी के साथ हीथ्रो हवाई अड्डे पर स्थित दुकानों पर बस ऐसे ही विंडो शॉपिंग कर रहा था। अर्थात खरीदना कुछ नहीं, बस दुकानों में जा कर देखना कि वहाँ क्या-क्या बिक रहा है और क्या कीमतें हैं।
इतने में अचानक देखा कि संजय गुप्ता मेरे सामने खड़े हुए हैं। उनके साथ उनकी पत्नी, दो बेटियाँ और माता-पिता भी थे। यह सब मेरे लिए बड़ा सुखद आश्चर्य था। हम लोगों ने साथ बैठ कर वहाँ चाय पी। संजय गुप्ता और उनका पूरा परिवार अमेरिका घूमने जा रहे थे। उनको हीथ्रो से अमेरिका की फ्लाइट पकड़नी थी।
यदि हम इसे टेलीपैथी न कहें, तो क्या कहें? कुछ लोग इसे संयोग भी कह सकते हैं। लेकिन जीवन में संयोग कुछ नहीं होता है। संयोग की भी एक साइंस होती है जो अभी तक हमारे वैज्ञानिक नहीं जानते हैं। परमहंस योगानंद (Paramhans Yogananda) ने अपनी प्रसिद्ध अंग्रेजी पुस्तक Autobiography Of A Yogi के 28वें अध्याय में टेलीपैथी के बारे में लिखा है। इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद भी उपलब्ध है। हिन्दी में इसका शीर्षक है: ‘योगी कथामृत’।
(लेखक सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं)
(आलेख ‘पाञ्चजन्य’ से साभार)