बी.पी. श्रीवास्तव ।
यूं ही एक किताब पलट रहा था जिसमें भारत की आजादी और जिन्ना का जिक्र था। उसने आज भी टीसें मार रहे विभाजन के पुराने घाव को फिर छू दिया। जिन्ना ने ही भारत का विभाजन कराकर पाकिस्तान बनाया है- यह तो इतिहास का एक हिस्सा है जिसको नकारा नहीं जा सकता। जिन्ना ने पाकिस्तान ही नहीं बनवाया बल्कि यह भी साबित किया है कि एक हद के बाद महत्वाकांक्षाएं किसी व्यक्ति के लिए ही नहीं बल्कि संपूर्ण मानवता के लिए दुखदायी साबित होती हैं।
अगर जिन्ना ना होते
यह बात भी सच है कि यदि जिन्ना ना होते तो इस उपमहाद्वीप की सरजमीं पर पाकिस्तान न होता चाहे जितना सर सैयद अहमद खान ने उन्नीसवीं सदी में मुसलमानों का एक अलग ‘नेशन’ होने का विचार प्रस्तुत किया होता, या चाहे इंग्लैंड के हम्बरस्टोन वाले रहमत अली ने तीस के दशक में पाकिस्तान का नामकरण किया होता… या फिर सर मोहम्मद इकबाल ने इंडिया के उत्तर-पश्चिम हिस्से में एक मुस्लिम देश बनने की भविष्वाणी की होती। इसलिए जिन्ना और पाकिस्तान को अलग अलग नहीं देखा जा सकता है। जिन्ना ने भारत को तोड़ा है और मुसलमानों के लिए एक अलग देश बनाया जो भारत की अवधारणा के खिलाफ है। सिर्फ यही नहीं, भारत के इस विभाजन की विभीषिका इतनी थी कि एक करोड़ से ज्यादा लोग बेघर हो गए और पचास लाख लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी।
हिन्दू मुस्लिम एकता के पैरोकार
अब यह बात अलग है कि जिन्ना शुरू में हिन्दू मुस्लिम एकता के पैरोकार थे। सरोजिनी नायडू ने अपने एक लेख में गोखले को उद्घृत करते हुए कहा है कि ‘जिन्ना एक ऐसे इंसान हैं जो हिन्दू मुसलमान के भेदभाव से परे हैं।’ और यह भी सही है कि जिन्ना आगे चलकर गोखले बनना चाहते थे। फिर आखिर ऐसा क्या हुआ कि उन्नीस सौ चालीस में जिन्ना ने खुद हिन्दू मुसलमान के लिए दो अलग अलग राष्ट्र होने और एक का दोस्त दूसरे का दुश्मन होने जैसे घृणाजनक शब्द कहे। यही नहीं उन्होंने लाहौर के मुस्लिम लीग के अधिवेशन में हिंदुस्तान के बंटवारे का प्रस्ताव पारित कराया। और इसके बाद जैसा कि लॉर्ड मॉउन्टबेटन ने कहा, ‘जिन्ना के पास सिर्फ एक सूत्री कार्यक्रम था और वह था पाकिस्तान बनाना।’
पेचीदा शख्सियत
जिन्ना की शख्सियत एक पेचीदा शख्सियत थी जिसे समझना बहुत मुश्किल तब भी था और आज भी हैं। शायद यह बहुत कम लोगों को मालूम है कि जब महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका में वहां के लोगों को उनके वाजिब अधिकार दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे थे, तब जिन्ना भारत से उनके काम में सहयोग दे रहे थे। यहां तक कि इसको लेकर उनकी वाइसराय से झड़प भी हुई थी। फिर क्या वजह थी कि जिन्ना और गांधी दोनों एक दूसरे से बिलकुल अलग होते चले गए? क्या वह हिंदुस्तान की लीडरशिप में प्राथमिकता की लड़ाई थी जिसमें जिन्ना नंबर दो नहीं रहना चाहते थे… अथवा स्वाधीनता आंदोलन की दिशा को लेकर दोनों में मतभेद था… या फिर कोई ऐसी हार थी जो जिन्ना भूल नहीं पा रहे थे। आखिर वह कौन सी वजह थी जिसने उन दोनों को एक दूसरे को पास आने से रोक रखा था और जो आगे चलकर हिंदुस्तान के लिए बहुत घातक साबित हुई। इस संदर्भ में तीन ऐसे एपीसोड हैं जिनका जिक्र करना यहां उपयुक्त लगता है।
जिन्ना को बहुत बुरी लगी वह बात
इन तीन में से पहला मौका वह था जब सन् 1915 में गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से वापस आए थे। गांधी जी का स्वागत करने के लिए गुजरात प्रतिनिधि सभा ने जो रिसेप्शन कमेटी बनाई थी उसके चेयरमैन जिन्ना थे। गांधीजी ने अपने भाषण में कहा कि उन्हें यह देख कर खुशी हुई है कि इस सभा का चेयरमैन सिर्फ उनके क्षेत्र का ही नहीं बल्कि एक मुसलमान भी है। महात्मा गांधी के इस वाक्य का जो भी मतलब हो- शायद वह मुसलमानों को आदर देने के लिए हो- जिन्ना को यह बात बहुत बुरी लगी कि उनको सिर्फ एक मुसलमान नेता के रूप में पेश किया गया जबकि उनका अरमान पूरे भारत का नेता बनने का था। मशहूर इतिहासकार स्टेनली वोलपर्ट ने इस बात का जिक्र अपनी किताब ‘जिन्ना ऑफ पाकिस्तान’ में करते हुए कहा है कि ‘इस पहले ही वाक्य ने उनके आपसी रिश्तों को तनाव और अविश्वास में डाल दिया।’
ब्रिटिश फौज में हिंदुस्तानियों की भर्ती के खिलाफ
दूसरा मौका 1918 में दिल्ली में हुई वॉर कांफ्रेंस के दौरान आया। इसमें दोनों नेताओं का वैचारिक अंतर्विरोध खुलकर सामने आया। जहां गांधीजी ब्रिटिश फौज में हिंदुस्तानियों की भर्ती के प्रस्ताव को स्वीकृति दे रहे थे, वहीं जिन्ना उसकी मुखालफत कर रहे थे। जिन्ना ने इस विषय पर वाइसराय को एक टेलीग्राम भी भेजा था जिसमें उन्होंने लिखा कि ‘जब भारतीय लोग ब्रिटिश साम्राज्य में पूरे हकदार नहीं हैं तो वे कैसे ऐसे एम्पायर के लिए लड़ सकते हैं।’ कांफ्रेंस के दौरान जब जिन्ना बोलने के लिए खड़े हुए तो उनको आउट ऑफ आर्डर रूल आउट कर दिया गया। इस बात ने जिन्ना को बहुत चोट पंहुचाई। यह बात अलग है कि महात्मा गांधी ने बाद में सच्चे महात्मा का परिचय देते हुए अपनी गलती मान ली और कहा कि वह इस निर्णय में जनता की भावनाओं के अनुकूल नहीं थे। उन्होंने इसका उल्लेख अपनी आत्मकथा में करते हुए कहा है कि ‘आखिर गवर्नमेंट ने हमारे लोगों के साथ ऐसा क्या किया है जो हमारे सहयोग के काबिल था।’
सविनय अवज्ञा से असहमति
तीसरा और अंतिम मौका जिसने गांधी और जिन्ना दोनों नेताओं को और अलग अलग कर दिया वह था कांग्रेस का सन् 1920 वाला विशेष अधिवेशन जिसमें 14592 डेलीगेट्स शामिल हुए थे। उसका खास मुद्दा था गांधीजी का सविनय अवज्ञा और सिविल नाफरमानी का प्रस्ताव जो 884 के खिलाफ 1886 वोटों से पास किया गया था। जिन्ना इस तरीके से बिलकुल सहमत नहीं थे और चाहते थे कि ब्रिटिश सरकार से लड़ाई में पुराना कांस्टीट्यूशनल तरीका ही जारी रहे। बहस के दौरान बहुत गरमा गरमी हुई और उसी के चलते जिन्ना ने महात्मा गांधी को सिर्फ गांधी कह कर सम्बोधित किया। डेलीगेट्स के बार बार टोकने पर भी जिन्ना अपने सम्बोधन पर ही अड़े रहे और महात्मा कहने से इनकार किया। इसका नतीजा यह हुआ कि जिन्ना को हूट किया गया और जिन्ना का कांग्रेस से नाता हमेशा के लिए टूट गया। जैसा कि जिन्ना ने बाद में पत्रकार दुर्गा दास से भी कहा कि ‘वह ऐसे तौर तरीकों के साथ काम नहीं कर सकते हैं।’ पर यह बात समझ से परे है कि अगर ये लड़ाई तौर तरीके को लेकर थी तो हिन्दू मुस्लिम के नाम पर देश के बंटवारे की बात कहां से आती है?
काश, ये सब ना हुआ होता तो पता नहीं भारत का भविष्य कुछ और होता! क्या होता या ना होता, ये तो सिर्फ अनुमान की बातें हैं। जमीन पर सच्चाई तो ये है कि जिन्ना ने भारत का बंटवारा कराया और पाकिस्तान बनाया।
(लेखक आल इंडिया रेडियो के पूर्व निदेशक और ब्रॉडकास्ट इंजीनियरिंग कंसल्टेंट्स ऑफ इंडिया लिमिटेड (बेसिल) के वरिष्ठ सलाहकार हैं)