कहां अटकी है हिंदी की भागीरथी।

ओम निश्चल।

विद्यानिवास मिश्र जी का बसंत पर एक निबंध है: बसंत आया पर कोई उत्कंठा नहीं। बसंत आए और कोई अनछुआ रह जाए ऐसा बहुधा कम होता है। लेकिन भीतर पतझार का मौसम हो, मन के परिसर में खलबली हो तो कोई बसंत को कैसे एंजाय करे। इसलिए कहा गया है बसंत बाहर ही नहीं, भीतर भी खिलता है। और जब बाहर और भीतर का बसंत एकाकार हो उठता है तो मन कुदरत के साथ जैसे कूकने लगता है। हिंदी दिवस या हिंदी माह उसी वसंत की तरह है जो बहुत थोड़े दिनों के लिए आता है और चित्त को सौंदर्य की आंच में दहका कर चला जाता है। हिंदी पहली सितंबर से 30 सितंबर तक कार्यालयों में दस्तक देती है और पूरे मान सम्मान अपमान के बीच उत्सीवता का बाना पहन कर फिर तिरोहित हो जाती है। हिंदी की सेवा से लगभग चार दशकों का वास्ता रहा है। पर आज भी लगता है कि जहां से हिंदी शुरु की थी, उसी जगह वह खड़ी है हमें बिसूरती हुई कि देखिए इस बहुभाषी देश में हिंदी जब तक रोजगार की भाषा नहीं बनेगी, ज्ञान विज्ञान की भाषा नहीं बनेगी, उच्चा शिक्षा की भाषा नहीं बनेगी यह राजभाषा के रूप में भी कार्यालयों में सम्मान न पा सकेगी, न हिंदी भाषियों को अंग्रेजी भाषियों जैसा सम्मान मिलेगा। कैसी विडंबना है कि हिंदी की इस विडंबना को हमारे कवियों ने भी वैसा ही लक्षित किया है। पढिए गीता बनिये सीता वाला माहौल अब नहीं रहा। दुनिया बदल रही है। लेकिन हिंदी के प्रति हमारी धारणा नहीं बदली।

रूकावट

तथापि, हिंदी दिवस आते ही पखवाड़े और हिंदी मास मनाए जाने शुरु हो जाते हैं। तमाम प्रतियोगिताओं और सांस्कृतिक कार्यक्रमों की झड़ी सी लग जाती है। अभी हाल ही एक वैज्ञानिक शोध केंद्र में हिंदी पखवाड़े के शुभारंभ पर मुख्य‍ अतिथि के रूप में जाना हुआ जो यूजीसी के अंतर्गत संचालित है। कुछ प्रारंभिक दीप प्रज्व्रंभलन, पुस्तक प्रदर्शनी इत्यादि के उदघाटन के बाद सभागृह में जाते हुए वहां के प्रशासनिक अधिकारी से वार्ता के दौरान मालूम हुआ कि यह भारत सरकार के अनुदान से संचालित ऐसा उच्च शोध केंद्र है जहां कोर विज्ञान के विषयों न्यूक्लियर फिजिक्स आदि पर अनुसंधान करने की समस्तक व्यवस्थाएं नि:शुल्क उपलब्ध‍ करायी जाती हैं। ऐसे में शोध विषयक कार्यों में हिंदी का प्रयोग लगभग असंभव है। तकनीकी हिंदी से जुड़े होने के कारण मुझे भी अपने कार्यकाल के दौरान यह अनुभव रहा है कि बैंकों आदि में ऋण प्रस्तांवों के मूल्यांकन, नोट व संस्तु्ति आदि मुद्दों पर हिंदी में लिखना बहुत व्यवहार्य नहीं है, न ऐसी दक्षता कार्मिकों को है। बहुत प्रयास करने पर नेमि किस्म की टिप्पणियां तो हिंदी में लिखी जा सकती हैं किन्तु बड़े अप्राइजल या मूल्यांकन हिंदी में प्रस्तुत करने संभव नहीं हैं। यानी हिंदी के मार्ग में खास कर तकनीकी व वैज्ञानिक प्रयोगों की दिशा में बहुत सी बाधाएं हैं। छात्र जीवन में भी गणित के अध्ययन में प्रयुक्त त्वरण या वेग कहने के स्थान पर अंग्रेजी में एक्सीलरेशन या वेलासिटी कहना ज्यादा उपयुक्त जान पड़ता था। इसमें मुखसुख भी था। ऐसी ही हिचक आज तक हममें बनी हुई है और वह हिंदी की राह में एक तथाकथित रूकावट की तरह है।

नई शिक्षा नीति

हाल में जारी नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर काफी चर्चा रही है। उसके नए मसौदे पर तमाम चर्चाएं हुईं तथा अब उसे लागू करने की बारी है। हिंदी या क्षेत्रीय भाषाओं को सीखने का प्रारंभिक और बुनियादी केंद्र हमारे प्राथमिक या माध्यमिक विद्यालय ही हैं। इस स्तर पर यदि मातृभाषा में शिक्षण की नींव मजबूत कर दी जाए तो विषय में दक्षता बहुत आसानी से हासिल हो सकती है। जबकि अंग्रेजी माध्यम के कारण छात्र का अधिकांश समय एक विदेशी भाषा में दक्षता हासिल करने में निकल जाता है। अंग्रेजी में हाथ तंग होने के कारण वह इस काबिल नहीं बन पाता कि विषय को आसानी से हृदयंगम कर सके। यही कारण है कि गांवों के बच्चे यानी अस्सी फीसदी भारत के बच्चे अपनी टूटी फूटी अंग्रेजी के चलते उच्च सेवाओं में नहीं आ पाते- न ही शिक्षा माध्यम अंग्रेजी होने के नाते अंग्रेजी माध्यम में निष्णात बच्चों से प्रतिस्पर्धात्मक स्तर पर समतुल्यक हो पाते हैं।

हमारे देश के नेताओं ने बार बार हिंदी और क्षेत्रीय या मातृभाषाओं में शिक्षण को महत्व दिया है। हेनरी फैग लिखित ‘गांधी जी की बुनियादी शिक्षा का अध्ययन’ पुस्तक से गुजरते हुए पाया कि स्वयं गांधी जी ने मातृभाषा को प्राथमिक व माध्यमिक स्तर पर शिक्षा का माध्यम बनाने की बात अनेक अवसरों पर कही है। उनका मानना था कि अंग्रेजी में दी जाने वाली शिक्षा ने शिक्षित वर्ग पर एक बोझ डाल दिया है जिसने उन्हें जीवन भर के लिए मानसिक रूप से अपंग कर दिया है और अपने ही देश में अजनबी बना दिया है। उनका यह भी मानना था कि इसी वजह से अल्पसंख्यक शिक्षितों और बहुसंख्यक अशिक्षितों के बीच एक स्थायी विभेदक रेखा खिंच गई। वे यह मानते थे कि अंग्रेजी माध्यम से दी जाने वाली शिक्षा पूरी तरह से व्यर्थ और अनावश्यक रूप से समय खपाने वाली थी। वे यह भी कहा करते थे कि यदि प्राथमिक व माध्यमिक स्तर पर जिन विषयों को पढाया जाता है, उन्हें हटाए बिना यदि पाठ्यक्रम से अंग्रेजी को हटा दें तो बच्चे अपना सारा पाठ्यक्रम ग्यारह वर्षों की बजाय सात वर्षों में ही पूरा कर लेंगे। नई शिक्षा नीति के पुनर्नवन से एक आशा तो पनपी है किन्तु जब तक इसका उचित प्रतिफल सामने नहीं आता कुछ कह पाना असंभव है।

CSK और धोनी : एक दूजे के लिए

72 साल गुजर जाने के बावजूद

हमारा देश 1947 में आजाद हुआ। 1950 यह गणतंत्र हुआ तथा इससे पूर्व भारत की संविधान सभा ने 14 सितंबर 1949 को हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया। तथा यह कहा- हिंदी इस देश की राजभाषा है जिसकी लिपि देवनागरी होगी तथा अंकों का स्वरूप भारतीय अंकों का मानक अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा। लेकिन अंग्रेजी के लिए कहा गया कि यह संविधान के लागू होने से 15 वर्षों तक उन उन कार्यो के लिए व्यवहार में लाई जाती रहेगी जिन जिन कार्यो के लिए इसका उपयोग होता रहा है। और आज केवल पंद्रह ही नहीं, 72 साल गुजर जाने के बावजूद हिंदी पूर्णत: राजभाषा का पद नहीं प्राप्त कर सकी। राजभाषा अधिनियम (1963) कुछ सुनिश्चित दस्तावेजों के द्विभाषीकरण की अनिवार्यता का प्रावधान करता है तो राजभाषा नियम 1976 पूरे देश को- हिंदी व हिंदीतर भाषा-भाषियों की दृष्टि से तीन भागों से वर्गीकृत करता है तथा तदनुसार निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रयासों को बढा़वा देने की बात कहता है। इस बारे में राष्ट्रपति के कई आदेश जारी हुए हैं। कई संकल्प पारित हुए हैं। संसदीय राजभाषा समिति के नौ-दस प्रतिवेदन अनेक व्यावहारिक पहलुओं पर आ चुके हैं किन्तु जिस स्तर पर इसका प्रतिफलन सरकारी कामकाज में होना चाहिए था, वह नहीं हो सका।

सरकार के भरोसे न हिंदी आई है, न आ सकेगी

इस सांविधिक किन्तु परन्तु के बावजूद हिंदी के प्रयोग एवं विस्तान की संभावनाएं कम नहीं आंकनी चाहिए। सच तो यह है कि केवल भारत सरकार के भरोसे न हिंदी आई है न आ सकेगी। क्योंकि यह पूरे देश का मामला है जो कि बहुभाषी है। यही कारण है कि हिंदी के लागू होने के कारण दक्षिण भारत के लोगों के कैरियर को अहित न पहुंचे, हिंदी विरोध को लेकर काफी आंदोलन चलाए गए। किन्तु उसी दक्षिण भारत में आज दक्षिण हिंदी भारत प्रचार सभा के अनेक केंद्र हिंदी के प्रचार प्रसार एवं हिंदी शिक्षण के लिए चलाए जा रहे हैं। लोग स्वत: हिंदी को सीखने-समझने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन यह गति धीमी है। सरकार का ध्यान हिंदी को सरकारी तरीके से प्रोत्साहित करते रहने का है जबकि दूसरी तरफ उपभोक्तावाद के प्रसार के कारण मोबाइल, टैबलेट, कंप्यूटर, लैपटाप आदि में विभिन्न भाषाओं में काम करने की व्यवस्था के चलते इन चीजों की पहुंच व्यापक जनता तक हो रही है। यूजर्स की संख्या बढ़ रही है। सर्च इंजन हिंदी और तमाम अन्य‍ भाषाओं में उपलब्ध हैं। एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद की व्यवस्था सरकारी व्यवस्थाओं की तुलना में गूगल ट्रांसलेशन ज्यादा भरोसेमंद है। शब्दावलियां आसानी से इंटरनेट और वेबसाइट्स पर उपलब्धज हैं। सरकारी गैर सरकारी निजी वेबसाइट्स एक साथ विश्व की तमाम भाषाओं में बने हुए हैं। इसके कारण हर व्यक्ति थोड़े से प्रयासों से अपनी भाषा में टाइप कर सकता है, इच्छित भाषा में अनुवाद कर सकता है, किसी भाषा के शब्द का अर्थ ज्ञात कर सकता है, हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में उपलब्ध साहित्य का अध्ययन कर सकता है। भारत जैसे देश में जहां शहरों और गांवों के इर्द गिर्द अच्छे पुस्तकालय नहीं हैं, इंटरनेट के जरिए लोग घर बैठे अच्छी से अच्छी पुस्तकें नेट से डाउनलोड कर रहे हैं, किंडल पर पढ़ रहे हैं, ज्ञान विज्ञान के अनेक स्रोतों तक उनकी पहुंच है। यह सब विश्व में इंटरनेट, कम्प्यूटरीकरण और डिजिटलाइजेशन के जरिए संभव हुआ है। हिंदी के प्रचार प्रसार को स्वाभाविक तौर पर इससे काफी लाभ पहुंचा है। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएं अब कंप्यूटर कंपनियों, मोबाइल कंपनियों के लिए प्राथमिकता सूची में हैं। वे अपने उत्पादों में हिंदी के प्रयोग की व्यवस्थाएं सुनिश्चित कर रही है कि महज रोमन में इनपुट से हिंदी में वांछित प्रोडक्ट हासिल किया जा सके। अखबार और द्रुत सूचना प्रणालियों- इलेक्ट्रानिक मीडिया व प्रिंट मीडिया में भाषाओं का प्रयोग सरलता से संभव हुआ है। यह गए दो तीन दशकों के कम्प्यूटरीकरण, डिजिटलाइजेशन और इंटरनेट व्यवस्थाओं के कारण संभव हुआ है। आन लाइन गोष्ठियों व सेमिनारों के आयोजन इंटरनेट के जरिए ही संभव हो रहा है जहां किसी भी भाषा में संवाद संभव है।

लेकिन इन तमाम उपलब्धियों व तकनीकी संसाधनों के विकसित होने के बावजूद हिंदी का प्रयोग नहीं बढ़ पा रहा है तो निश्चय ही इसका कारण हिंदी के प्रति भारतीयों की अपनी मानसिकता है जिसे वे राष्ट्र के हित में प्रयोग करने को लेकर जागरूक नहीं हो पाए हैं। कल तक लोगों की यह शिकायत होती थी कि मुझे टाइप नहीं आती, अनुवाद नहीं आता, शब्दों के अर्थ नहीं मालूम, हमारे पास शब्दावलियां नहीं हैं, पत्राचार के नमूने नहीं हैं, टिप्पण प्रारुपण के नमूने नहीं हैं, आज यह सब सुलभ है। किसी को कहीं दूर जाने की जरूरत नही है। टेबल मेज पर शब्दावलियों या सहायक साहित्य का भंडार जुटाने की जरूरत अब नहीं है। सब कुछ एक क्लिक पर मौजूद है। स्पीच टू टेक्स्ट प्रणाली की सुविधा कंप्यूटर, लैपटाप व टैबलेट – मोबाइल में उपलब्ध है। गूगल या अन्य प्लेटफार्म पर भी यह सुविधा और चाक चौबंद है। गूगल ट्रांसलेशन का स्तर एवं शुद्धता भारत सरकार प्रदत्त स्पीच टू टेक्स्ट की तुलना में ज्यादा व्यवहार्य व सरल है। इससे लगभग नब्बे फीसदी अनुवाद शुद्धता के साथ प्राप्‍त किया जा सकता है जिसे तनिक संपादन एवं अनुकूलन से व्यवहार्य बनाया जा सकता है। किन्तु‍ क्या इसका लाभ सरकारी स्तर पर उठाया जा रहा है, क्या सारे धारा 3(3 ) के दस्ता‍वेज द्विभाषिक तैयार किए जा रहे हैं, क्या सारा पत्राचार हिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी में किया जा रहा है जैसा कि निर्धारित लक्ष्य है। क्या फाइलों पर हिंदी में टिप्पणियां व मूल्यांकन नोट तैयार किए जा रहे हैं। क्या लोग इंटरनेट पर उपलब्ध‍ शब्दावलियों, तकनीकी कोशों का लाभ उठा रहे हैं। क्या हिंदी अधिकारियों पर हिंदी में होने वाले कामकाज की निर्भरता कम हुई है। शायद नहीं। क्योंकि हम औपनिवेशिक ढांचे में इतना ढल चुके हैं कि हम हिंदी में काम करने को कहीं न कहीं पिछड़ेपन की निशानी मानते हैं। हालांकि अधिकांश कर्मचारियों व अधिकारियों को केवल कामचलाऊ अंग्रेजी का ही ज्ञान होता है पर वे भी हिंदी में काम करने को लेकर हिचकते हैं। अधिकांश तो यह सोचते हैं कि ऊपर वाले बॉस हिंदी में पत्र या नोट देख कर पता नहीं क्या सोचेंगे। आधे लोग इसी हीन भावना में मरे जा रहे हैं कि यह क्या हिंदी हिंदी की रट लगा रखी है हिंदी अधिकारी ने। लेकिन आज भी सरकारी आंकड़ों में हिंदी का पत्राचार शतप्रतिशत से जरा ही नीचे दिखाया जा रहा है। राजभाषा कार्यान्वयन समितियों के समीक्षा आंकड़े देखें तो ऐसा लगता है सब कुछ हिंदीमय है। एक आदर्श का उपस्थापन है यह। किन्तु ये आंकड़े दिखावे के हैं। सचाई यही कि दस प्रतिशत काम को पचास प्रतिशत और चालीस प्रतिशत कामकाज को 90 प्रतिशत से ज्यादा हिंदी में किया दिखाया जा रहा है।

संस्कृति पर लगातार पड़ रही चोटें

क्या हुआ है हमारे देश को कि औपनिवेशिकता के चंगुल से बाहर निकलने का मन नहीं कहता। मन नहीं होता कि आजाद हवा में सांस लेते हुए हम अपने देश, इसकी भाषा, संस्कृति व तहजीव के बारे में बात कर सकें। हमारी संस्कृति पर आधुनिकता व उत्तर आधुनिकता की चोटें लगातार पड़ रही हैं। विश्व एकध्रुवीय हुआ जाता है। सारे देश जब अपनी भाषा पर टिके हैं। शिक्षा, नौकरी, शोध अनुसंधान व बातचीत में अपनी भाषाओं पर डटे हैं। हम बाईस भारतीय भाषाओं के बावजूद एक हिंदी को वह गरिमा नहीं दिला पा रहे हैं जो अन्य भाषाओं की तुलना में विश्व में तीसरे नंबर पर बोली जाने वाली भाषा बन चुकी है। ऐसे में भी लोग अपनी बोलियों को हिंदी के मुकाबिल खड़ा कर संविधान की आठवीं अनुसूची में जगह दिलाने पर मुहिमबद्ध हैं कि इसका लाभ चंद लोग भाषाई अकादमियों के गठन के बाद ऊँची कुर्सियां हासिल कर उठा सकें।

आज का सोशल मीडिया कितना प्रभावशाली है। अब सुबह आने वाला अखबार छपते ही बासी पड़ जाता है। हर अखबार के पोर्टल हैं जहां पल दर पल समाचार अपलोड होते रहते हैं। अपडेशन चलता रहता है। फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर पर हर वक्त सूचनाएं जारी हो रही होती हैं। सूचना संप्रेषण कितना द्रुततर हुआ है। यह सब इंटरनेट के कारण संभव हुआ है। पहले यह संदेह था कि फेसबुक पर हिंदी चलेगी कि नहीं, ट्विटर या इंस्टाग्राम पर हिंदी चलेगी कि नहीं- किन्तु निजी कंपनियों ने सारी दुविधाओं को नए नए आविष्कारों से दूर कर दिया है। अब हिंदी की टाइपिंग न जानने वाला व्यक्ति भी अपने मोबाइल, टैबलेट, पीसी आदि पर हिंदी में कार्य कर सकता है। अपने फेसबुक, ट्विटर हैंडल, व्हाट्सएप समूहों या पेजों और इंस्टाग्राम आदि पर हिंदी में स्टेटस पोस्ट् कर सकता है। टाइपिंग की सुविधाएं अब बाधामुक्त‍ हैं। मौजूदा कुंजी पटल से रोमन में टाइप कर हिंदी के प्रयोग को आगे बढ़ाया जा सकता है। लोग निजी स्तर पर कर भी रहे हैं किन्तु सरकारी स्तर पर कामकाज में न जाने कौन सी मानसिकता आड़े आ जाती है कि हमारी उंगलियां अंग्रेजी लिखने लगती हैं।

हिंदुस्तान के लोग हिंदी नहीं बोलेंगे तो…

हम भूलते जा रहे हैं कि भाषा केवल सरकार का विषय नहीं है, यह केवल सांविधिक जरूरत नहीं है बल्कि यह भारतीय संस्कृति-सभ्यता का वाहक भी है। यह हमारे देश का राष्ट्रीय पहचान भी है। यह हमारी भाषाई अस्मिता व संप्रभुता का पर्याय भी है। हम हिंदुस्तान के लोग हिंदी नहीं बोलेंगे तो आखिर यह कहां किस देश में बोली जाएगी। इस समय को जिसे आजादी का अमृत काल कहा जा रहा है, आजादी के अमृत महोत्सव पर करोड़ों की राशि लुटाई जा रही है, हम इस आजादी को लेकर ही कितना गंभीर रहे हैं। आज उस गांधी की आलोचना इस देश में होती है, उस नेहरू की आलोचना देश में होती है जिन्होंने आजादी के लिए अपने कम्फर्ट का त्याग किया। सुख सुविधाएं छोडीं, जेल गए। लेकिन जरा सोचिए, जिस स्वाधीनता के लिए हमने जनधन का बलिदान किया उस स्वाधीनता का मान सम्मान बचाने के लिए क्या कुछ किया है? जाने माने कवि दुष्यंजत कुमार का एक शेर है जिसे हर कोई अपने हित में कहता दिखाई देता है- कैसे आकाश में सूराख हो नहीं सकता, एक पत्थार तो तबीयत से उछालो यारो।

पर यह पत्थर कौन उछाले। सवाल यह है। जिस आजादी की दुंदुभि बज रही है, उसी आजादी पर सवाल खड़े करते हुए आज से बरसों पहले धूमिल ने पूछा था: ”आजादी क्या तीन थके हुए रंगों का नाम है जिसे एक पहिया ढोता है/ या इसका कोई और मतलब होता है?” आजादी के बाद जिस तरह से राष्ट्रीयता के प्रति देशभक्तिे का जज़्बा पैदा होना चाहिए था, वह नहीं हुआ। इसके लिए देशवासियों ने कितनी कुर्बानियां दी हैं। किन्तु भाषा के मसले पर बात जब भी आती है राजनेताओं को लगता है यह कहीं संवेदनशील मुद्दा न बन जाए। आज भी इस देश में न्यायालयों में हिंदी में कामकाज का स्वप्न अधूरा है। हिंदी में निर्णयन का स्वप्न अधूरा है। लाखों लोगों के कानूनी मसलों की सुनवाई हिंदी में नहीं होती। देश को हम जिस नेहरुवियन माडल की राह पर लेकर आए हैं, उसी का यह हश्र है कि संविधान के पंद्रह वर्षों बाद ही नहीं, आज तक तमाम सरकारें बदलीं, हिंदी के एकमात्र राजभाषा बनने के पक्ष में संसद में विधेयक नहीं लाया जा सका। बरसों हिंदी संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा होने का स्वप्न देखती रही। संयुक्त राष्ट्र में अब हिंदी ने अपनी सम्मानित जगह पाई है। संयुक्त राष्ट्र की सूचनाएं अब हिंदी में भी जारी होंगी। कहना न होगा कि अटल बिहारी बाजपेयी ने वैश्विक स्तर पर हिन्दी को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। अटल पहले भारतीय थे, जिन्होंने चार अक्टूबर, 1977 को संयुक्त राष्ट्र संघ में अपना भाषण हिन्दी में देकर भारत को गौरवान्वित किया था। इसके बाद सितंबर 2000 में अटल बिहारी बाजपेयी भारत के प्रधानमंत्री के रूप में अमेरिका दौरे पर गए और एक बार फिर उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ को हिंदी में संबोधित किया।

द्वारकाधीश और योगेश्वर- दोनों छोरों का सुन्दर संतुलन

राजनीतिक ढुलमुलता के चलते…

इस सारी कवायद का लब्बोलुआब यह कि हिंदी का एक बेहतरीन भाषाई ढांचा उपलब्ध होने के बावजूद राजनीतिक ढुलमुलता के चलते भारत में सरकारी संस्थानों, उपक्रमों, निकायों के साथ साथ शिक्षा प्रणालियों में हिंदी को जिस तरह अपनाया जाना चाहिए था, वह काम नहीं हुआ। कोश बने, संहिताओं के अनुवाद हुए- पर प्रचलन की पायदान पर ऐसे शब्दकोश हिंदी की शब्द संपदा पर भार बनते गए। सरकारी नियमों के हिंदी अनुवाद इतने कठिन हुए कि वे किसी सामान्य जन के पल्ले नहीं पड़ते थे। हमारे पास हिंदी में शिक्षण का स्तर भी बहुत उम्दा नहीं रहा कि लोग अपनी भाषा का व्यवहार उस कुशलता से कर सकें जैसा दूसरे देश के लोग अपनी भाषा का व्यवहार करते हैं। कहीं न कहीं हिंदी को लेकर, राजभाषा को लेकर उस प्रतिश्रुति, संकल्प और समर्पण का अभाव देशवासियों में रहा है जिसके कारण हिंदी अपने देश में वह स्थान नहीं हासिल कर पाई है जिसकी अधिकारिणी वह देश की आजादी के दिन से ही रही है। अंग्रेजी मानसिकता हमारी सरकारी, गैरसरकारी शिक्षा पद्धति में हावी है।

सितंबर माह हर साल हिंदी के प्रयोग के बारे में याद दिलाता है। उन बाधाओं की याद भी दिलाता है जो हिंदी के प्रयोग के रास्ते में रुकावट बन कर खड़ी हैं। भाषा को फैलाने में हमारे संतों और कवियों ने बहुत खाक छानी है तब मीरा, रैदास, कबीर, तुलसी देश बिदेश के कोने कोने पहुंचे हैं। जरूरत है संतों की इस विरासत और कर्मठता को बचाने की ताकि हमारी सदियों से संजोई हिंदी और भारतीय भाषाओं की संस्कृति लुप्त न होने पाए। तुलसी ने कहा है ‘कीरति भनिति भूति भलि सोई/ सुरसरि सम सब कँह हित होई।‘ इसी हिंदी की भागीरथी भी सबके लिए कल्याणकारी है पर वह आखिर कहां उलझी और अटकी है। हिंदी को भी एक शिव चाहिए जो अपने बलबूते इस भारत भू पर इसे उतारे और सबके लिए सहज संवेद्य बना दे।

(लेखक हिंदी के सुपरिचित आलोचक, भाषाविद एवं कवि हैं)