तमिलनाडु के गांव में 80% हिन्दू आबादी और पूरी जमीन वक़्फ़ की

प्रदीप सिंह।

भारत के इस्लामीकरण की प्रक्रिया विभाजन के बाद ही शुरू हो गई थी, #pradepsinghयह बात पढ़ कर आपको आश्चर्य हुआ होगा। धर्म के नाम पर एक अलग देश पाकिस्तान बना क्योंकि मुसलमानों ने कहा कि वे हिंदुओं के साथ नहीं रह सकते इसलिए उनको अपना एक अलग देश चाहिए… और देश का विभाजन हो गया। मैं बार-बार कहता हूं और यह ऐतिहासिक तथ्य भी है कि जिन लोगों ने पाकिस्तान बनाने की मुहिम चलाई उनमें से ज्यादातर लोग भारत में ही रह गए। भारत ने इस पर कोई ऐतराज नहीं किया। यह प्रस्ताव कई स्तरों से आया कि आबादी की अदला-बदली होनी चाहिए- लेकिन नहीं हुई। उसके कौन से कारण थे- कौन उसके लिए जिम्मेदार थे- इस बात में जाने का अब कोई फायदा नहीं है।

भारत और पाकिस्तान… साफ़ दीखता है फर्क

विभाजन के बाद लाखों हिंदू पाकिस्तान में अपनी सारी संपत्ति छोड़कर भारत आ गए। पाकिस्तान सरकार ने हिंदुओं की सारी संपत्ति राज्य सरकारों और दूसरे मुसलमानों को दे दी। उस पर किसी तरह का मुकदमा या दावा नहीं किया गया। जबकि नेहरू-लियाकत समझौते में प्रावधान किया गया था कि दोनों तरफ के जो लोग इधर से उधर या उधर से इधर आएंगे वे अपनी-अपनी संपत्ति पर दावा बरकरार रख सकते हैं और उसे  बेच सकते हैं। मगर उसका कोई मतलब नहीं रहा- सब एकतरफा हुआ। पाकिस्तान में हिंदू जो संपत्ति छोड़कर आए उस पर सरकार का कब्जा हो गया और भारत से जो मुसलमान संपत्ति छोड़कर पाकिस्तान गए उनके बारे में जवाहरलाल नेहरू ने कहा इसको कोई हाथ नहीं लगाएगा। वह सारी की सारी संपत्ति वक्फ की संपत्ति घोषित हो गई- एनिमी प्रॉपर्टी (शत्रु संपत्ति) को छोड़कर। 1954 में वक्फ बोर्ड का गठन हुआ। मेरा मानना है कि यहीं से भारत के इस्लामीकरण का एजेंडा शुरू हुआ। आप कहेंगे कि घुसपैठ के जरिये, धर्म परिवर्तन और लव जेहाद के जरिये ये सब हो रहा है तो मेरा मानना है कि वह सब सिर्फ दिखाई देता है, हम आप उसका विरोध कर सकते हैं लेकिन ये जो कुछ हुआ वह कानून और संविधान के जरिये हुआ, इसलिए कोई बोलने के लिए तैयार नहीं है। अब उस पर सवाल उठना शुरू हुआ है।

वक़्फ़ बोर्ड सिर्फ भारत में

दुनिया के किसी इस्लामी देश में भी वक्फ बोर्ड नाम की चीज नहीं है। यह केवल भारत में है जो धर्मनिरपेक्ष देश है। वक्फ अरबी शब्द है। इसका मतलब है ठहरना- यानी रुक जाना। कोई भी मुसलमान अगर अपनी संपत्ति का इस्तेमाल समाज के हित में करना चाहता है तो वह उसे वक्फ घोषित कर देता है और वक्फ के लिए दे देता है। उस संपत्ति की आय से मुसलमानों के धार्मिक और सामाजिक उत्थान के कार्य होते हैं। इस समय देश में वक्फ बोर्ड के पास लगभग 12 लाख करोड़ रुपये की संपत्ति है। भारतीय सेना और भारतीय रेल के बाद सबसे ज्यादा जमीन वक्फ बोर्ड के पास ही है। वक्फ बोर्ड के अधिकार आप सुनेंगे तो आपको यकीन नहीं होगा। वक्फ एक्ट का सेक्शन 3आर कहता है कि किसी संपत्ति को किसी भी उद्देश्य के लिए मुस्लिम कानून के मुताबिक पाक- यानी पायस, मजहबी या चैरिटेबल- मान लिया जाए तो वह वक्फ की संपत्ति हो जाएगी। मान लीजिए कि आपने किसी मुस्लिम से जमीन खरीदी और आपने उस जमीन को किसी दूसरे व्यक्ति को बेच दिया और वह मुसलमान कह दे कि हमने तो जमीन वक्फ को दिया था तो वह जमीन वक्फ की हो जाएगी, आपकी नहीं रहेगी। आपको अगर ऐतराज है कि हमने तो जमीन किसी मुसलमान से नहीं खरीदी थी तो आपको उसके खिलाफ अदालत में नहीं बल्कि वक्फ बोर्ड के पास जाना होगा। वक्फ के पास सर्वे का अधिकार है और ज्यूडिशियल पावर भी है। वक्फ बोर्ड का जो सीईओ होता है वह डीएम को आदेश देता है। बोर्ड में सात सदस्य होते हैं और ये सभी मुसलमान ही होने चाहिए। अब आप देखिए कि अंतर किस तरह से किया गया। कांग्रेस सरकार ने मंदिरों के लिए ट्रस्ट बनाया- मंदिरों की जमीनें और संपत्ति ले ली। जो ट्रस्ट बनाया गया उसमें गैर-हिंदू भी सदस्य हो सकते हैं- लेकिन वक्फ बोर्ड में सिर्फ मुसलमान सदस्य हो सकते हैं।

विपक्षी एकता का मौसम

ऐसे घोषित होती है वक्फ की संपत्ति

अब आप देखिए कि किस तरह से संपत्तियों को वक्फ घोषित किया जाता है। वक्फ बोर्ड का एक सर्वेयर होता है। वह तय करता है कि कौन सी संपत्ति वक्फ की है और कौन सी नहीं है। 1954 के वक्फ एक्ट में 1995 में संशोधन किया गया और उसे असीमित अधिकार दे दिए गए। पी. वी. नरसिम्हा राव की सरकार ने ये संशोधन किए थे। इसका सेक्शन 4 कहता है कि सर्वेयर जिस संपत्ति को कह देगा कि यह वक्फ की है- उसको वक्फ का मान लिया जाएगा। 1995 के एक्ट का आर्टिकल 45ए कहता है कि यह जमीन आपकी है या वक्फ की है यह सर्वेयर और वक्फ बोर्ड तय करेगा और उसका फैसला अंतिम होगा। कोई विवाद होने पर आपको वक्फ के पास ही जाना पड़ेगा। उसका फैसला अंतिम होगा, उसे किसी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती। सर्वेयर इस आधार पर उसे वक्फ की संपत्ति घोषित कर सकता है कि बहुत समय से कोई मुसलमान उसका इस्तेमाल कर रहा है, किसी डीड या सर्वे के जरिये या लगातार इस्तेमाल के जरिये। इस आधार पर वह घोषित कर सकता है कि यह संपत्ति वक्फ की है। वक्फ बोर्ड के फैसले को सिर्फ वक्फ ट्रिब्यूनल ही बदल सकता है। हालांकि गनीमत यह कि ट्रिब्यूनल में प्रशासनिक अधिकारी रहते हैं इसलिए गैर-मुस्लिम भी ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष होते हैं। लेकिन धीरे-धीरे वहां भी परिस्थितियां बदल रही हैं। यह निर्भर करता है कि राज्य में सरकार किसकी है। एक सेंट्रल वक्फ बोर्ड है और अलग-अलग राज्यों में 32 स्टेट वक्फ बोर्ड हैं जो तय करते हैं कि कौन सी संपत्ति वक्फ की मानी जाएगी और कौन सी नहीं।

बोर्ड के फैसले को कोर्ट में चुनौती नहीं

मान लीजिए कि आपकी संपत्ति का मामला वक्फ बोर्ड में है, उसके सर्वेयर ने घोषित कर दिया कि यह वक्फ की संपत्ति है और आप हार गए। 1995 के कानून का सेक्शन 85 कहता है कि ऐसी स्थिति में आप न तो हाई कोर्ट और न ही सुप्रीम कोर्ट में इसे चैलेंज कर सकते हैं। मई 2022 में सुप्रीम कोर्ट में पहला मामला हुआ है जब राजस्थान के जिंदल आरा मिल के मामले में शीर्ष अदालत ने कहा है कि वह सेक्शन 85 को नहीं मानता है। इसी एक्ट का सहारा ज्ञानवापी मामले में भी मुस्लिम पक्ष ने लिया था। बनारस के जिला जज ने इसे मानने से मना कर दिया। मुस्लिम पक्ष कह रहा था कि इतने लंबे समय से यह हमारे पजेशन में है इसलिए वक्फ की संपत्ति है। एक ताजा घटना है तमिलनाडु के एक गांव की। उस गांव में 90 फीसदी हिंदू रहते हैं। वहां की पूरी संपत्ति को वक्फ बोर्ड ने वक्फ का घोषित कर दिया। जो गांव वाले अपनी जमीन बेचना चाहते हैं उनसे कहा गया कि आप पहले वक्फ बोर्ड से एनओसी लेकर आइए कि जमीन आपकी है वक्फ की नहीं- तभी आप इसको बेच सकते हैं। वक्फ एक्ट ने कितना नुकसान किया है और यह नुकसान कम होने की बजाय लगातार बढ़ता जा रहा है। मोदी सरकार के दौरान ही यह फैसला हुआ कि वक्फ की जमीन पर अगर अस्पताल और स्कूल बनाया जाता है तो उसकी सौ फीसदी फंडिंग सरकार करेगी। अल्पसंख्यक मामलों के तत्कालीन मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने यह घोषणा की थी। इसके विपरीत देखिए, मंदिरों की लाखों एकड़ जमीन सरकार ने ले ली है। सरकार के अधीन जितने मंदिर हैं उनसे एक लाख करोड़ रुपये का सालाना चढ़ावा आता है। लेकिन वह कहां खर्च होगा यह प्रशासन तय करता है। यह जरूरी नहीं है कि इस पैसे को मंदिर या हिंदुओं के धार्मिक समारोहों पर खर्च किया जाए। इनके अलावा कहीं भी खर्च किया जा सकता है, बल्कि उनके अलावा ही ज्यादा खर्च होता है। उसमें से पैसा किसी मस्जिद, गुरुद्वारे या चर्च के लिए भी दिया जा सकता है। इस पर कोई रोक नहीं है। मंदिरों का पैसा पूरे देश का पैसा है- लेकिन मस्जिदों और चर्च का पैसा सिर्फ मस्जिद और चर्च का है। ऐसा धर्मनिरपेक्ष देश में हो रहा है।

वक्फ की तरह मंदिरों को अधिकार क्यों नहीं

आप मान कर चलिए कि इस्लामीकरण का सबसे बड़ा हथियार वक्फ बोर्ड है जिसको कानूनी और संवैधानिक मान्यता मिली हुई है। अगर वक्फ खत्म नहीं किया गया तो वह दिन दूर नहीं जब जगह-जगह इस तरह के विवाद उठेंगे- और कहा जाएगा कि यह वक्फ की प्रॉपर्टी है। एक समय ताजमहल पर भी दावा किया गया था कि यह वक्फ की संपत्ति है। वक्फ की संपत्तियों से जो आमदनी होती है उसे दो कामों में खर्च किया जाता है। एक- मुसलमानों का मुकदमा लड़ने में और दूसरा- उनके धार्मिक कार्यों में। इसके अलावा वक्फ बोर्ड को सरकार अनुदान भी देती है। अब आप देखिए कि अपनी मौत का सामान हम खुद ही जुटा रहे हैं और इसके खिलाफ कोई बोलने वाला नहीं है। अब जाकर इसके खिलाफ आवाज उठना शुरू हुई है। अश्विनी उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट में इसके खिलाफ एक पीआईएल दायर की है। उसमें कहा गया है कि यह इस देश में या किसी धर्मनिरपेक्ष देश में कैसे चल सकता है कि वक्फ बोर्ड तय करेगा कि कौन सी संपत्ति उसकी है, कौन सी नहीं है- और इसको किसी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट का 1998 का एक फैसला भी है जिसमें कोर्ट ने कहा है कि एक बार जो संपत्ति वक्फ की घोषित हो गई वह आजीवन वक्फ की ही रहेगी। समानता का यह अधिकार मंदिरों को क्यों नहीं है, हिंदू संपत्तियों को क्यों नहीं है। यह सब कुछ हमारे अपने बनाए कानून के जरिये हो रहा है। 1995 के इस एक्ट को इतने अधिकार दे दिए गए जितने शायद सुप्रीम कोर्ट के पास भी नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को भी चुनौती दी जा सकती है- लेकिन वक्फ बोर्ड के फैसले को कहीं चुनौती नहीं दी जा सकती।

वक़्फ़ ख़त्म हो या पूरे देश की सम्पत्ति वक़्फ़ को दे दो

मई 2022 का सुप्रीम कोर्ट का फैसला नजीर बनेगा। ज्ञानवापी का मामला भी एक नजीर बन सकता है। मेरा मानना है कि या तो सरकार वक्फ को खत्म करे या पूरे देश की संपत्ति को वक़्फ़ घोषित कर दे। धीरे-धीरे काटे जाने का कोई फायदा नहीं है। एक बार ही तय कर दीजिए कि देश शरिया से चलेगा। मुसलमानों के जितने सिविल मामले हैं वो शरिया से चलते हैं, उनके धार्मिक कानून से चलते हैं। हिंदुओं के और बाकी धर्म के लोगों के जो मामले हैं वह संविधान से चलते हैं। इस देश में दो विधान कब तक चलेगा। मुझे लगता है कि अगर यह दोहरी व्यवस्था चलती रही तो भारत के इस्लामीकरण को कोई रोक नहीं सकता। 1995 का यह एक्ट इस देश का इस्लामीकरण करने में अपने आप में सक्षम है। अब आप समझ लीजिए कि आप किस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। आपका भविष्य बिल्कुल सामने लिखा पड़ा हुआ है संविधान और कानून में, इसमें शक-सुबहा की कोई गुंजाइश नहीं है।