आसपास के गाँवों में सामूहिक दमन, खेतों और घरों में आग लगाई ।

रमेश शर्मा।
1857 में हुए भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की असफलता  के बाद अंग्रेज सरकार ने क्राँतिकारियों का किस क्रूरता दमन किया इसका विवरण हर जिले के इतिहास में मिलता है। ऐसी ही एक क्रूरतापूर्ण कार्यवाही 28 अप्रैल 1858 को उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले के अंतर्गत बिन्दगी उपखण्ड के खजुआ कस्बे में की थी। इमली के पेड़ पर 52 क्राँतिकारियो को लटका कर फाँसी दी थी। सभी मृत देह पेड़ पर लटकते हुए पहले सड़ीं, फिर सूखीं और केवल हड्डियों के ढाँचे में बदलीं। ऐसी क्रूरता का आदेश देने वाला अंग्रेज अधिकारी ब्रिगेडियर नील था।

यह पेड़ आज भी वहाँ है और स्थानीय लोग इसे “बावनी इमली” के नाम से जानते हैं। चूँकि इस पर बावन क्राँतिकारियों को लटकाया गया था इसलिये इसका नाम “बावनी इमली” पड़ गया। स्वतंत्रता के बाद यहाँ स्मारक बनाया गया। यह स्मारक फतेहपुर जिले की बिन्दकी तहसील मुख्यालय से तीन किलोमीटर दूर मुगल रोड पर स्थित है।

1857 में इस स्वातंत्र्य संघर्ष की शुरुआत क्राँतिकारी मंगल पाण्डेय ने बंगाल की बैरकपुर छावनी से की थी, जो पूरे भारत में फैली। उत्तर प्रदेश में इसका प्रमुख केन्द्र कानपुर और मेरठ थे। कानपुर में इस क्रांति की अगुवाई नाना साहब पेशवा कर रहे थे। उनके संदेश पूरे क्षेत्र में भेजे गये। ऐसा ही संदेश बिन्दकी के जागीरदार जोधासिंह अटैया को मिला। वे अपने क्षेत्र में लोकप्रिय थे। उनके आह्वान पर एक सैन्य टुकड़ी तैयार हुई और 10 जून 1857 को क्रांति की घोषणा कर दी। अपने क्षेत्र में तैनात अंग्रेजी थाने और प्रशासन केन्द्रों पर अधिकार करके अपने आधीन किये और व्यवस्था बनाई। उन लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया जो अंग्रेजी शासन को बनाये रखने के लिये सामने आये।

File:Thakur Jodha Singh.png - Wikipedia

जोधासिंह अटैया के नेतृत्व में क्राँतिकारियों ने न केवल बिन्दकी क्षेत्र अपितु फतेहपुर पहुँचकर कचहरी एवं कोषागार सहित सभी शासकीय कार्यालयों को अपने अधिकार में ले लिया। इस क्रांति का नेतृत्व कर रहे जोधासिंह अटैया का संपर्क नाना साहब पेशवा और तात्या टोपे से बना हुआ था। क्राँतिकारियों का दमन करने के लिये अंग्रेजी फौज फतेहपुर पहुँची। इसकी सूचना क्राँतिकारियों को मिल गई थी। इसलिये संभावित मार्ग पर मोर्चे बंदी कर ली गई थी। पांडु नदी तट पर क्राँतिकारियों का अंग्रेजी सेना से आमना-सामना हुआ। अंग्रेजी सेना को मैदान छोड़कर लौटना पड़ा। अंग्रेजी सेना और उसके सभी अधिकारियों कर्मचारियों के मैदान छोड़कर भाग जाने के बाद क्राँतिकारी कानपुर पहुँचे और नाना साहब पेशवा की सत्ता स्थापित करने में सहायता की।

नाना साहब की सत्ता स्थापित होने के बाद वे अपने क्षेत्र में व्यवस्था मजबूत करने के लिये वापस लौटे और मेहमूदपुर। रानीपुर आदि क्षेत्र से अंग्रेजी व्यवस्था को समाप्त कर दिया और खजुहा को अपना केन्द्र बनाया। यहाँ आवागमन की सुविधा अच्छी थी। इसकी सूचना अंग्रेजी सेना को लगी। तब प्रयागराज में क्रांति का दमन करके कानपुर जा रहे कर्नल पावेल ने इस क्रान्ति सेना पर धावा बोला किन्तु क्राँतिकारी सतर्क थे। उन्होंने छापामार लड़ाई की युक्ति अपनाई। इससे कर्नल पावेल को मुँह की खानी पड़ी। उसकी सेना भाग गई। कर्नल पावेल क्राँतिकारियों से घिर गया और मारा गया।

File:Pavel Batov 2.jpg - Wikipedia

इससे अंग्रेज बौखलाए और अंग्रेजों ने कर्नल नील के नेतृत्व में एक बड़ी सेना भेजी। इस सेना ने पहले पूरे क्षेत्र को घेरा और निर्दोष नागरिकों का सामूहिक नरसंहार आरंभ किया। जनरल नील ने क्राँतिकारियों से आत्म समर्पण करने को कहा। साथ में यह लालच भी दिया कि यदि हथियार डाल कर समर्पण कर देंगे तो माफी दे दी जायेगी। क्रांतिकारियों को अपने प्राणों की परवाह न थी लेकिन निर्दोष नागरिकों की सुरक्षा की चिंता थी। इसलिये समर्पण कर दिया। क्रांति का नेतृत्व कर रहे जोधासिंह अपने 51 सेनानियों सहित बन्दी बना लिये गये। सबको बंदी बनाने के बाद भी अंग्रेजी सेना का क्षेत्रवासियों पर अत्याचार न रुका। इस नरसंहार और विनाश का रिकार्ड तक नहीं है।

अंत में 28 अप्रैल 1858 को सभी क्राँतिकारियों मुगल रोड लाया गया और इस इमली और इसके आसपास के पेड़ों पर लटका दिये गये। अंग्रेजो ने पूरे क्षेत्र में शवों को न उतारने की मुनादी कराई और यह चेतावनी भी दी कि यदि किसी ने यह प्रयास किया तो उसका भी यही हश्र होगा। अंग्रेजों के आतंक से पूरा क्षेत्र खाली हो गया। लोग जंगलों में या दूर कहीं अपने रिश्तेदारों के यहाँ चले गये। क्राँतिकारियों के शव पेड़ों से लटकते रहे और चील गिद्द खाते रहे। पेड़ पर लटकते लटकते ही केवल हड्डी के ढाँचे में बदल गये। अंत में महाराजा भवानी सिंह ने अंग्रेजों से लिखा पढ़ी की। शवों को उतारने की अनुमति मांगी और महीनों बाद वे अस्थिपंजर पेड़ों से उतारे जा सके। खजुआ और बिन्दकी के बीच स्थित ” बावनी इमली” के नाम से प्रसिद्ध यह इमली का पेड़ आज भी उन बलिदानियों का स्मरण कराता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)