अनिल भास्कर।
हॉकी के कांस्य पदक के लिए मुकाबला बेटियां जरूर हार गईं, लेकिन उनके जज्बे और जुनून ने डेढ़ अरब हिंदुस्तानियों का दिल जीत लिया। शायद इसी को कहते हैं हार की जीत। बेटियों ने मैच हारकर भी उम्मीदों का ऐसा पहाड़ रच डाला जो आने वाले हर मुकाबले में जीत के लिए प्रेरित करता रहेगा। फिलहाल चार दशक बाद कल पुरुष हॉकी टीम को मिली शानदार सफलता का जश्न मनाइए।
नवीन पटनायक का योगदान
हिंदुस्तानी सूरमाओं की इस जीत के साथ नवीन पटनायक भी स्वाभाविक तौर पर नायक बनकर उभरे हैं। देश ने उनके योगदान के लिए कृतज्ञता जताई है। पिछले करीब तीन साल से हॉकी की दोनों टीमों को उनकी सरकार कंधे पर उठाकर खेलने, जूझने और जीतने का सम्बल जो दे रही है। अब आप इसे नवीन पटनायक का व्यक्तिगत हॉकी प्रेम कहें या भारतीय हॉकी के भविष्य को लेकर नवीन सरकार की चिंता, उन्होंने न सिर्फ दोनों हॉकी टीमों को स्पॉन्सर किया, बल्कि टीम की हर छोटी-बड़ी जरूरतों का खयाल रखने से लेकर उनमें इतिहास रचने का जज्बा भी रोपा। लिहाज़ा ताज़ा उपलब्धियों पर खिलाड़ियों, कोच, टीम मैनेजर और सहायकों के साथ- साथ उड़ीसा सरकार और खासकर नवीन पटनायक की जयकार लाज़मी है। इसके साथ ही इस गौरववेला में यदि कोलकातावासियों, बंगाल हॉकी संघ और सहारा इंडिया के योगदान को याद नहीं किया तो यह न्यायोचित नहीं होगा। 2018 में उड़ीसा सरकार के हॉकी टीमों का भार उठाने से पहले करीब 22 साल (1995 से लेकर 2017) तक सहारा इंडिया ने हॉकी टीमों को स्पॉन्सर किया। इस दौरान भारतीय हॉकी टीम दो बार 1998 और 2017 में एशिया कप जीतने में कामयाब रही। 2010 में हुए राष्ट्रमंडल खेलों में रजत पदक हासिल किया।यूपी में जूनियर हॉकी विश्वकप का आयोजन भारतीय हॉकी को आगे ले जाने में काफी सहायक हुआ। वैसे सहारा इंडिया ने हॉकी इंडिया से यह स्पॉन्सरशिप 2021 तक के लिए ली थी, लेकिन गंभीर वित्तीय संकट के बीच 2017 में उसे मज़बूरन हाथ खींचने पड़े। उसके बाद करीब एक साल तक (उड़ीसा सरकार के हाथ बढ़ाने से पहले) कोई सहयोग के लिए आगे नहीं आया।
कठिन वक्त में भी हिम्मत नहीं हारी
भारतीय हॉकी के लिए यह कठिन वक्त था। इसके बावजूद टीम ने हिम्मत नहीं हारी। और फिर नवीन सरकार के संरक्षण ने टीम के हौसले को नई उड़ान दे दी। आज तीन साल बीत चुके हैं और भारतीय पुरुष हॉकी टीम ने ओलंपिक में 41 साल के सूखे को खत्म करते हुए पदक देश की झोली में डाल दिया है, जिसका पूरा भारत बेसब्री से इंतजार कर रहा था।
कोलकाता ने चंदा कर टीम को ओलम्पिक भेजा
लगभग चार दशक बाद ओलंपिक में मिली यह जीत भारतीय हॉकी को एक बार फिर उसी स्वर्णिम युग में पहुंचने का संवेग देगा, जहां कभी भारत हॉकी का पर्याय बन चुका था। जो ओलंपिक खेलों में केवल हॉकी के कारण ही जाना जाता था। हम ये न भूलें कि भारतीय हॉकी टीम ने जब पहली बार वर्ष 1928 के ओलंपिक में हिस्सा लिया था तो टीम के पास ओलंपिक में जाने के लिए पैसे तक नहीं थे। यह खर्च कोलकाता शहर ने चंदे से जुटाया था। गौरतलब यह भी कि 1928 के ओलंपिक में भारतीय ओलंपिक संघ के अनुरोध पर ही हॉकी को दोबारा शामिल किया गया था। दरअसल वर्ष 1920 के एंटवर्प ओलंपिक खेलों के बाद हॉकी को ओलंपिक से हटा दिया गया था और वर्ष 1924 के पेरिस ओलंपिक में हॉकी को नहीं रखा गया था।
नींव के हर पत्थर को सलाम!
तमाम विषमताओं के बीच यहीं से भारतीय हॉकी ने अपनी स्वर्णिम यात्रा शुरू की। इस शुरुआत का पूरा श्रेय बंगाल और खासकर कोलकाता को जाता है। अगर वर्ष 1928 में बंगाल हॉकी संघ ने आर्थिक सहयोग और समर्थन नहीं दिया होता तो शायद ही भारतीय टीम एम्सर्टडम के लिए रवाना हो पाती। खुद ध्यानचंद ने कहा था कि देश के हॉकीप्रेमियों को कोलकाता का आभार मानना चाहिए, जिसके सहयोग के बिना आगे की राह मुश्किल थी। लिहाज़ा आज हम आठ ओलम्पिक स्वर्ण और दो कांस्य पदकों के उत्कृष्ट रिकॉर्ड के साथ हर्षित गौरवान्वित हैं तो इसकी नींव में पड़े हर पत्थर को सलाम करना तो बनता ही है।
(लेखक ‘हिंदुस्तान’ के पूर्व वरिष्ठ स्थानीय संपादक हैं)