सुरेंद्र किशोर।
25 और 26 जून, 1975 को पूर्व सांसद पी.विश्वम्भरन (त्रिवेंद्रम) पटना में थे। वे नारियल बोर्ड की बैठक में शामिल होने के लिए पटना आए थे। पटना के मुख्य मार्ग पर स्थित आनन्द भवन (डी.लाल एंड सन्स के ऊपर स्थित) होटल की बालकोनी में बैठकर हम 26 जून की सुबह बातचीत कर रहे थे।
विश्वम्भरन ने मुझसे कहा कि यह आश्चर्यजनक है कि आपातकाल लग गया, जेपी गिरफ्तार हो गये, फिर भी पटना की सड़कों पर यातायात सामान्य गति से चल रहा है। यानी उनका आशय था कि गिरफ्तारी के खिलाफ कोई जन आन्दोलन क्यों नहीं हो रहा।
आश्चर्य तो मुझे भी हुआ था। जन आक्रोश का विस्फोट बिहार में 1977 के लोक सभा चुनाव के दौरान ही देखा जा सका जब अविभाजित बिहार राज्य की सारी सीटों पर कांग्रेस बुरी तरह हार गई। पर,उससे पहले पूरे आपातकाल बिहार सहित लगभग देश भर में जमकर सरकारी अत्याचार हुए।
जो प्रतिपक्षी राजनीतिक नेता, कार्यकर्ता या अन्य लोग जेलों में थे ,उन्हें तो रहने की जगह मिल गई थी। किंतु जो राजनीतिक कर्मी फरार थे, उन्हें सरकारी भय से कोई व्यक्ति ,परिचित हो या रिश्तेदार ,शरण देने को भी आम तौर से तैयार नहीं होता था। कहीं किसी सड़क पर कोई प्रतिपक्षी राजनीतिक कर्मी नजर आया तो परिचित लोग भी मुंह फेरकर आगे बढ़ जाते थे।
इन पंक्तियों का लेखक भी फरार था। आपातकाल में बड़ौदा डायनामाइट केस के सिलसिले में सी.बी.आई. की विशेष टीम मेरी तलाश कर रही थीं। पर, समय रहते पूर्व सूचना मिल गई और मैं किसी तरह उस टीम की गिरफ्त में आने से बच गया। बिहार में छिपने की कहीं सुरक्षित जगह नहीं मिली तो मैं मेघालय चला गया। वहां तब आल पार्टी हिल लीडर्स कांफ्रेंस की सरकार थी। इसलिए आपातकाल का अत्याचार वहां नहीं था।
भूमिगत जीवन के कष्टों को देखकर कई बार मैं यह सोचता था कि बेहतर होता कि मैं गिरफ्तार ही हो जाता। पर, दूसरे ही क्षण यह डर समा जाता कि मुझे मार-मार कर सी.बी.आई. डायनामाइट केस में मुखबिर बना देगी। जिस रेवतीकांत सिन्हा को सी.बी.आई. ने डायनामाइट केस में मुखबिर बनाया था, उन्हें मेरी अपेक्षा फर्नांडिस की गतिविधियों के बारे में कम ही जानकारियां थीं।
17 फरवरी, 1977 को मुखबिर रेवतीकांत सिन्हा का इकबालिया बयान देश के सभी अखबारों में छपा था। वह बयान उन्होंने दिल्ली के चीफ मेट्रोपोलिटन मजिस्टेªट मोहम्मद शमीम की अदालत में दिया था। उस बयान में अन्य बातों के अलावा सिन्हा ने यह भी कहा था कि ‘‘मेरे पटना स्थित आवास पर चार लोगों की बैठक हुई। जुलाई, 1975 के पहले हफ्ते में हुई उस बैठक में मेरे अलावा जार्ज फर्नांडिस, महेंद्र नारायण वाजपेयी और सुरेंद्र अकेला (यानी सुरेंद्र किशोर) थे। बैठक में जार्ज ने घोषणा की कि वह इंदिरा सरकार को उखाड़ फेंकने की योजना बना रहे हैं। इसके लिए उन्हें कुछ विश्वस्त कार्यकर्ताओं की आवश्यकता है।’’
जार्ज फर्नांडिस ‘प्रतिपक्ष’ के प्रधान संपादक थे। मैं उस पत्रिका का बिहार संवाददाता था। इस लिहाज से जार्ज से मेरी निकटता थी। बड़ौदा डायनामाइट केस के सिलसिले में 24 सितंबर 1976 को अदालत में आरोेप पत्र दाखिल कर दिया गया था। केस की सुनवाई चल रही थी। सी.बी.आई. ने इस केस के सिलसिले में जिन्हें गिरफ्तार किया, उन्हें बड़ा कष्ट दिया।
सी.बी.आई. को इस केस के सिलसिले में कई झूठी जानकारियां भी मिली थीं। या, झूठ खुद सी.बी.आई. ने गढ़ा। उनमें एक गलत जानकारी यह भी थी कि मैं जार्ज के लिए नेपाल से पैसे लाता था। सी.बी.आई. के अनुसार काठमांडु स्थित चीनी दूतावास से मैं संपर्क में था। सी.बी.आई. के एक जांच अधिकारी ने मेरे एक मित्र को इंदिरा सरकार के पतन के बाद बताया था कि यदि सुरेंद्र अकेला गिरफ्तार हो जाता तो हमें जार्ज से चीन के रिश्ते का पता चल जाता।
हालांकि सच्चाई यह है कि मैं आज तक नेपाल नहीं गया हूं। चीनी दूतावास से किसी तरह के संपर्क का सवाल ही नहीं उठता। पर, यह तब की जांच एजेंसी की ‘कार्य कुशलता’ का एक नमूना था या फंसा कर बदनाम करने का षड्यंत्र?
खैर, मुझे गिरफ्तारी से बचाया था बिहार के मुख्यमंत्री सचिवालय के एक अफसर ने। दिल्ली से सी.बी.आई. की टीम आई हुई थी। उसने मुख्यमंत्री सचिवालय से संपर्क करके पटना का मेरा पता-ठिकाना पूछा। उस अफसर के अलावा किसी अन्य को मेरे बारे में कोई बात मालूम नहीं थी। उस अफसर ने मुझे आगाह कर दिया और मैं बच गया। आपातकाल में भूमिगत गतिविधियों में मैं जार्ज फर्नांडिस का सहयोग कर रहा था।
मेरा असल कष्ट शुरू हुआ 1976 के मार्च में। तब बड़ौदा में डायनामाइट पकड़ा गया था। उससे जोड़कर जार्ज फर्नांडिस के साथियों की गिरफ्तारियां शुरू हुईं। मेरे मित्र और पटना सचिवालय में सहायक रामबिहारी सिंह ने एक अन्य सरकारी कर्मचारी श्रीवास्तव जी के पटना स्थित निजी आवास में मुझे रखवा दिया। पटना के बांसघाट के पास की उस घनी आबादी वाले मोहल्ले में कुछ दिन तो बीत गए, पर एक जगह अधिक दिनों तक रहा भी नहीं जा सकता था। पैसों की भारी दिक्कत थी। मेरे जैसे मामूली अभियानी पत्रकार व राजनीतिक कार्यकर्ता को आपातकाल में कोई पैसे क्यों देता?
आपातकाल लागू होने के बाद मैं जार्ज से पटना,बंगलोर, कोलकाता और दिल्ली में बारी -बारी से मिला था। जार्ज की गिरफ्तारी के बाद मैंने बिहार छोड़ देना ही बेहतर समझा। मेरे बहनोई मेघालय के गारो हिल्स जिले के फुलबाड़ी बाजार में अपना छोटा व्यापार करते थे। मेरी बहन भी वहीं थीं। मैं जाकर वहीं रहने लगा। वहां चूंकि आपातकाल का कोई अत्याचार था ही नहीं, इसलिए मेरे रिश्तेदार यह समझ ही नहीं सके कि सी.बी.आई. को मेरी कितनी तलाश है। उनके यहां कोई अखबार भी नहीं आता था।
मैं यह समझ रहा था कि मुझे यहां बैठकर रहने के बदले किसी काम में लग जाना चाहिए। मैं अपने बहनोई की दुकान पर ही बैठना चाहता था। बहनोई राजी थे। पर मेरी दीदी ने साफ मना कर दिया। उसने कहा कि बबुुआ दुकान नहीं चलाएगा। बाबू जी सुनेंगे तो उन्हें इस बात का बुरा लगेगा। मैं बहन के घर खाता और सोता था। शाम को बाजार जाता था। एक बंगाली की चाय दुकान में बैठकर चाय पीता था और ‘असम ट्रिब्यून’ पढ़ता था। कुछ दिनों तक तो यह ठीक ठाक चलता रहा। फुलबाड़ी बंगलादेश की सीमा के पास है। समय बीतने के साथ इस बात की चर्चा शुरू होने लग गयी कि अंग्रेजी पढ़ने वाला यह व्यक्ति यहां निट्ठला क्यों बैठा हुआ है? क्या इंदिरा गांधी का सी.आई.डी. है? क्या स्थानीय सरकार पर नजर रखने के लिए इसकी तैनाती हुई है?
यह चर्चा सुनकर मुझे इस बात की आशंका हुई कि यदि स्थानीय पुलिस मुझसे पूछताछ करने लगेगी तो मैं क्या जवाब दूंगा? सो जल्दी-जल्दी
मैं वहां से भागकर पटना पहुंचा। हालांकि तब तक पूरे देश में आपातकाल की कठोरता कम होने लगी थी। बड़े नेतागण जेलों से रिहा होने लगे थे। चुनाव होने वाले थे। हालांकि बड़ौदा डायनामाइट केस की सुनवाई चल ही रही थी। जब 1977 में मोरारजी देसाई की सरकार बनी तभी वह केस वापस हुआ।
लोकसभा चुनाव की घोषणा के साथ ही यह लगने लगा था कि कांग्रेस हार जाएगी। फिर तो मैंने ‘आज’ अखबार के पटना दफ्तर में नौकरी शुरू कर दी। मंत्री बनने के बाद जार्ज ने मुझसे कहा कि ‘दिल्ली चलकर ‘प्रतिपक्ष’ निकालो।’ पर कई कारणवश मैंने जार्ज के ऑफर को स्वीकार नहीं किया। आपातकाल की समाप्ति के बाद के. विक्रम राव ने मेरे बारे में एक अच्छी बात लिखी जो यहां प्रस्तुत है।
बड़ौदा डायइनामाइट केस के सिलसिल में जार्ज के साथ जेल में रहे विक्रम राव के अनुसार, ‘‘जार्ज फर्नांडिस सहित हम 25 साथी आपातकाल के लड़ैया थे।
हम सब साथी पत्रकार भाई सुरेंद्र किशोर के सदैव कृतज्ञ रहेंगे क्योंकि उन्होंने हम लोकतंत्र प्रहरियों को राष्ट्रद्रोह के लांछन से बचा लिया। मेरे साथ बड़ौदा केस में कैद हुए सभी साथी सुरेंद्र किशोर जी के ताउम्र एहसानमंद रहेंगे। …हमें आशंका थी कि पटना में सक्रिय सुरेंद्र किशोर पकड़े जा सकते हैं। खैर खुदा का, सुरेंद्र जी भूमिगत हो गये। इस बीच सी.बी.आई.ने सनसनीखेज षड़यंत्र रचा था। उसकी योजना थी कि पकड़े जाने पर सुरेंद्र को यातना देकर यह लिखवा लिया जाए कि वे डायनामाइट खरीदने तथा अन्य विप्लवी कामों के लिए काठमाण्डो स्थित चीनी दूतावास से धनराशि लाते थे। मगर मेघालय में रहने के कारण सुरेंद्र अंत तक बचे रहे। इस तरह राजद्रोह और चीन की धनराशि से इंदिरा सरकार को उखाड़ फेंकने के झूठे अभियोग से हम सब बच गये। शुक्र है सुरेंद्र भाई का।’’
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)