प्रदीप सिंह।
विपक्षी एकता का कारवां पटना से बेंगलुरु पहुंच गया, पर मामला ‘नौ दिन चले अढ़ाई कोस’ वाला ही रहा। गठबंधन का नामकरण ‘इंडिया’ यानी इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस के अलावा कोई निर्णय नहीं हो पाया। पटना में 16 पार्टियों से बेंगलुरु में 26 हो गईं। मंच बड़ा हुआ, पर क्या दिल भी बड़ा होगा? अब इसका पता तो सीटों के बंटवारे के समय ही लगेगा। गठबंधन की उत्कट इच्छा 7से एक बात तो समझ में आती है कि अस्तित्व का संकट गंभीर है। उम्मीद की किरण यह है कि मिलकर लड़ें तो शायद भविष्य में भी लड़ने लायक बचे रहें। इसलिए एक-दूसरे के प्रति असहिष्णु दल अचानक उदार नजर आने लगे हैं।
नाम में ही औपनिवेशिक मानसिकता की झलक
गठबंधन का नाम अंग्रेजी में ‘इंडिया’ रखा गया। अनजाने में ही सही पर पूरा विपक्ष भाजपा की पिच पर उतर आया। पिछले नौ साल से प्रधानमंत्री मोदी देश को औपनिवेशिक मानसिकता से उबारने का प्रयास कर रहे हैं। साथ ही भारतीय संस्कृति के पुनर्जागरण का अभियान भी चला रहे हैं। नए संसद भवन के लोकार्पण और उसमें सेंगोल की स्थापना इसका प्रत्यक्ष एवं जीवंत प्रमाण हैं। अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण और काशी विश्वनाथ मंदिर संकुल सहित ऐसे तमाम कार्य हुए और हो रहे हैं। ये काम लोगों को गुलामी की मानसिकता से मुक्ति दिलाने और उनमें सनातन संस्कृति के प्रति गर्व का भाव पैदा करने का काम कर रहे हैं।
आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में देशवासियों के सामर्थ्य और पुरुषार्थ को जगाने में प्रधानमंत्री मोदी सफल रहे हैं। देश को पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाना, भारत के डिजिटल पेमेंट का डंका पूरी दुनिया में बजना, रुपये में कई देशों से अंतरराष्ट्रीय व्यापार जैसे कार्यों की बहुत लंबी सूची है। सभी बड़े देशों को लग रहा है कि वर्तमान परिस्थितियों में दुनिया को मोदी के नेतृत्व की जरूरत है। दुश्मनों के हौसले पस्त हैं और मित्रों का जोश आसमान की बुलंदियां छू रहा है।
यूपीए से इंडिया
मोदी के नेतृत्व के कारण भारत की धाक एक नई विश्व व्यवस्था का उद्घोष कर रही है। ऐसे परिवेश में लगता है कि भाजपा विरोधियों ने उपनिवेशवाद को अपना मार्गदर्शक सिद्धांत बनाने का फैसला किया है। यूपीए का नाम बदलकर ‘इंडिया’ क्यों किया गया? क्योंकि यूपीए कुशासन, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद का उदाहरण बन गया है। कांग्रेस और उसके साथियों को उस दाग को छिपाने के लिए एक नई चादर की जरूरत थी। इसलिए नए नाम की जरूरत पड़ी।
ऐसा नहीं कहा जा सकता कि नाम के अलावा इस गठबंधन में नया कुछ नहीं है। इसमें ममता बनर्जी को विशेष महत्व दिया गया। सीधा संदेश है कि कांग्रेस अपने कार्यकर्ताओं की हत्या की अनदेखी कर रही है। बंगाल में जो हो रहा है, उसे आदर्श जनतंत्र के रूप प्रस्तुत किया जा रहा है, क्योंकि मोदी ने तो जनतंत्र ‘खत्म’ कर दिया है। यही मुद्दा लेकर विपक्षी दल देश के मतदाता के सामने जाने की तैयारी कर रहे हैं।
कांग्रेस कितना भी झुकने को तैयार
कांग्रेस ने अपने लोगों की आवाज केवल बंगाल में दबा दी हो, ऐसा नहीं है। दिल्ली और पंजाब में भी कांग्रेस नेताओं के मुंह पर ताला जड़ दिया गया है। कहा गया कि अपने कातिल को अपना रहनुमा समझिए और केजरीवाल का हमें स्वागत करने दीजिए। केजरीवाल के सामने हम एक बार झुक सकते हैं तो फिर से झुकने में क्या हर्ज है। केजरीवाल की भी राजनीतिक यात्रा पूरी हो गई। कांग्रेस के भ्रष्टाचार के विरोध में राजनीति में आए थे। अब कांग्रेस की गोद में बैठने जा रहे हैं। यही तो समानता और समता है।
नई राजनीतिक व्यवस्था
नई राजनीतिक व्यवस्था को समझिए। लालू यादव की छत्रछाया में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाएंगे। ममता बनर्जी बताएंगी कि हमारी सरकार बनेगी तो देश में जनतंत्र का क्या स्वरूप होगा? मोदी ने जिस जनतंत्र को ‘खत्म’ कर दिया है, हम 26 मिलकर उसे बहाल करने के लिए जनतंत्र के बंगाल माडल की पूरे देश में स्थापना करेंगे। माकपा को छोड़ बाकी दलों ने भी शपथ सी ली है कि बंगाल में जो कुछ हो रहा है, उस पर कोई कुछ नहीं बोलेगा, क्योंकि वहां कुछ गलत हो ही नहीं रहा है। लोग वोट डालने के लिए घर से निकलते हैं और अपने आप मर जाते हैं। सरकार का इसमें क्या दोष?
भ्रष्टाचार और वंशवाद पर सर्वानुमति
ऐसा लग रहा है कि ‘इंडिया’ की सरकार बनेगी तो भ्रष्टाचार के लिए आम माफी होगी। जो भ्रष्टाचार का आरोप लगाएगा, उसे देशद्रोही माना जाएगा। इस व्यवस्था से सभी 26 दलों के नेताओं का जीवन निष्कंटक हो जाएगा। वंशवाद को संवैधानिक मान्यता दिलाने के लिए संविधान में संशोधन किया जाएगा। भ्रष्टाचार की जांच में देश का संसाधन और समय क्यों बर्बाद किया जाए। इसलिए भ्रष्टाचार की जांच के लिए कोई एजेंसी नहीं होगी। इन सब बातों पर बिना कोई औपचारिक प्रस्ताव पास किए सर्वानुमति सी दिखी। कुछ ऐसी ही तस्वीर नजर के सामने आ रही है।
डरा हुआ विपक्ष कह रहा- मोदी डरे
विपक्ष को उम्मीद है कि शायद बिल्ली के भाग्य से छींका टूट जाए, पर देश के मतदाताओं ने छींका इतना मजबूत बनाया है कि उसके टूटने के कोई आसार नहीं दिखाई दे रहे हैं। अपने राजनीतिक अस्तित्व पर मंडरा रहे संकट से डरा विपक्ष कह रहा है कि मोदी डर गए हैं। डरे हुए आदमी की एक विशेषता होती है कि वह अपने आसपास वालों को भी डराता है। तो सारे डरे हुए नेता समवेत स्वर से कह रहे हैं हम नहीं हमारा विरोधी डरा हुआ है। पटना से बेंगलुरु पहुंचकर गठबंधन का नाम भर तय हो पाया। अब मुंबई में दो टूटी हुई पार्टियों के नेताओं की मेजबानी में बताया जाएगा कि दलों को जोड़ा कैसे जाता है?
वोट के गणित पर केमिस्ट्री का पलीता
समस्या यह है कि गठबंधन बनाते समय दल यही मानते हैं कि उनका मतदाता वफादार होने के साथ ही ऐसा है कि वे जिसे जहां कहेंगे वहीं उसे वोट देगा, यानी उनका वोट ट्रांसफरेबल है, पर यह ताकत बहुत कम दलों में होती है। इस कारण कई बार गठबंधन का फायदा होने के बजाय नुकसान हो जाता है। प्रश्न यह है कि ‘इंडिया’ नाम के गठबंधन में कितने ऐसे दल हैं, जो अपना वोट ट्रांसफर कराने की क्षमता रखते हैं? क्या ममता का वोट माकपा को जाएगा या केजरीवाल का वोट कांग्रेस को जाएगा? या अखिलेश यादव का वोट कांग्रेस को जाएगा? इसका जवाब तो चुनाव के बाद ही मिलेगा। तब तक उम्मीद पर दुनिया कायम है, यही मानिए।
(आलेख ‘दैनिक जागरण’ से साभार। लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ न्यूज पोर्टल एवं यूट्यूब चैनल के संपादक हैं)