रमेश शर्मा।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में 8 मई 1857 ऐसी तिथि है जब भारत को अंग्रेजों से मुक्ति के लिये मेरठ सैन्य छावनी में अंग्रेजों से भारत की मुक्ति का उद्घोष हुआ। जन सामान्य भी इस संघर्ष में सहभागी बना और एक क्राँति ज्वाला पूरे देश में फैल गई।

दासत्व के अंधकार की अवधि भारत में सबसे लंबी रही। दुनियाँ का कोई देश ऐसा नहीं जिसने पराधीनता की इतनी लंबी रात देखी हो। बहुत कम समय में ही ऐसे अधिकाँश देशों का स्वरूप बदल गया था। वे आक्रांताओं के रंग में ही रंग गये किंतु विदेशी शासकों का कुटिल और क्रूरतम दमन के बीच भी भारत का स्वत्व बोध से संस्कृति और परंपराएँ अक्षुण्य रहीं। और स्वातंत्र्य समर की चिंगारी कभी ठंडी नहीं हुई। 1857 में हुई यह क्रांति पहला ऐसा संघर्ष था जिसका पूरे देश में विस्तार हुआ। इससे पहले के संघर्षो में दो कमियाँ रहीं। एक तो वे स्थानीय अथवा क्षेत्रीय रहे। और दूसरा संघर्ष राज सैनिकों तक सीमित रहा। उन संघर्ष में समाज का सहयोग तो रहा पर प्रत्यक्ष नहीं। लेकिन 1857 की क्राँति में पूरा भारतीय समाज सहभागी बना। इसमें न जाति की कोई रेखा थी न धर्म की, न राजा का भेद था न सेवक का। सब कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजों को भारत से बाहर करने के अभियान में जुट गये थे।

उन दिनों भारत की शासन व्यवस्था दो प्रकार की थी। एक तो कुछ क्षेत्र सीधे अंग्रेजों के हाथ में थे। और कुछ रियासतों के आधीन। इन रियासतों में कहने के लिये राजा या नबाब हुआ करते थे। पर ये राजा नबाब केवल कठपुतली थे। हर रियासत में अंग्रेज पोलिटिकल एजेन्ट रहता था। राज परिवार में कौन उत्तराधिकारी होगा यह निर्णय भी अंग्रेज करते थे। अंग्रेजों के इस दबाव से जनता में बहुत रोष था जो मेरठ से आरंभ हुई इस क्रांति में प्रकट हुआ।

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क्रान्ति का बीजारोपण

मेरठ से आरंभ हुई इस क्रान्ति का बीजारोपण मेरठ से बहुत दूर बंगाल की बैरकपुर छावनी से हुआ। सैन्य छावनियों में ऐसे कारतूस आये जिनके बारे में कहा जाता था कि इनमें गाय और सुअर की चर्बी का कोड है। इन कारतूसों का उपयोग 1853 से आरंभ हुआ था। इस कारतूस का कवर मुँह से खींचा जाता था। कारतूस पर  गाय और सुअर की चर्बी का कोड होने की चर्चा के चलते सैनिक मुँह से खोलने से बचने लगे। सैनिकों ने अपनी बात अधिकारियों तक पहुँचाई किन्तु बात नहीं बनीं। तब मार्च 1857 में बंगाल की बैरकपुर छानवनी के सैनिकों ने आवाज उठाई और प्रतीक के रूप में सामने आये सिपाही मंगल पांडे ने खुलकर आवाज उठाई। वे इस सैन्य छावनी की 34 वीं इन्फ्रेन्ट्री में सिपाही थे। उन्होने अपने कुछ साथी सैनिकों से चर्चा की और संयुक्त रूप से प्रतिकार करने का आव्हान किया। उनकी बात से अनैक सैनिक सहमत तो थे पर विरोध करने का साहस न कर पा रहे थे। इन चर्चाओं भनक कमांडर तक पहुँची। सैन्य कमांडर ने 29 मार्च 1857 को परेड बुलाई और कारतूस लोड कर फायरिंग का आदेश दिया किन्तु सैनिकों ने आदेश मानने से इंकार कर दिया। इसपर कुछ अंग्रेज सैन्य अधिकारी परेड मैदान में ही सैनिकों के साथ दुर्व्यवहार करने लगे, पीटने लगे। इसका  सिपाही मंगल पाँडे ने विरोध किया तो सार्जेंट-मेजर जेम्स ह्यूसन बंदूक लेकर उनकी ओर दौड़ा। वह समीप आता इससे पहले ही सिपाही मंगल पाडेय ने उसपर गोली चला दी। वह बच गया। जनरल जॉन हर्से ने मंगल पाँडे को बंदी बनाने का आदेश जमादार ईश्वरी प्रसाद को दिया। जमादार ईश्वरी प्रसाद ने आदेश मानने से इंकार कर दिया। वहाँ मौजूद सैनिकों में से कोई भी क्राँतिकारी मंगल पांडे  गिरफ्तार करने आगे नहीं आया। तब उस छावनी से मौजूद एक अन्य टुकड़ी  के सिपाही बुलाये गये। सैनिक शेख पलटू अपनी टोली के साथ आगे आया। मंगल पाँडे और ईश्वरी प्रसाद बंदी बना लिये गये। 6 अप्रैल उनका कोर्ट मार्शल हुआ। 8 अप्रैल को क्राँतिकारी मंगल पाँडे और 21 अप्रैल को जमादार ईश्वरी प्रसाद फांसी पर चढ़ा दिये। बटालियन के सभी सैनिकों से हथियार ले लिये गये। अंग्रेज सरकार ने यह पूरी रेजिमेंट भंग कर दी। सभी सैनिकों को बर्खास्त कर दिया गया। यह बर्खास्तगी साधारण नहीं थी। पहले परेड बुलाई उनकी वर्दी ही नहीं सारे कपड़े उतारे गये। भारी अपमानित किया गया। शेख पलटू को पदोन्नत करके हवलदार बना दिया गया। जिस प्रकार इस इन्फेन्ट्री के सैनिकों को अपमानित किया गया था उसकी प्रतिक्रिया देश भर की छावनियों में हुई लेकिन मुखर स्वर देने का काम मेरठ छावनी से हुआ।

मेरठ में क्राँति का उद्घोष

बंगाल की बैरकपुर छावनी में जिस 34 वीं इन्फेन्ट्री को भंग करके सैनिकों को अपमानित किया गया था उसके अधिकांश सैनिक उत्तरप्रदेश के थे। क्राँतिकारी मंगल पांडे भी उत्तरप्रदेश के बलिया जिले के थे। सैनिक अपने अपने घरों को लौटे। ये समाचार छिप न सके। छावनियों में नये कारतूस को लेकर जो असंतोष था उसे सैनिकों के इस अपमान के समाचार ने हवा दी। बैरकपुर घटना पर अंग्रेज सरकार ने भी  छावनियों में “अलर्ट” जारी किया।
मेरठ छावनी में भी सैनिकों के अपमान और अधिकारियों को अलर्ट रहने का समाचार पहुँचा।

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मेरठ की सैन्य छावनी देश की सबसे बड़ी छावनी थी और दिल्ली का सुरक्षा कवच भी। यहाँ लगभग पांच हजार सैनिक रहा करते थे। इनमें 2357 भारतीय मूल के और  2038 सैनिक विदेशी मूल के। इन्हें नियंत्रित करने केलिये अंग्रेज अधिकारियों की टोली तैनात थी जिनकी सुरक्षा के लिये स्वचालित बंदूकों के साथ बारह सिपाहियों का दल सदैव सक्रिय रहता था। स्वचालित बंदूकों वाले ये सभी सैनिक विदेशी होते थे।

कारतूसों को लेकर मेरठ छावनी में भी भारी असंतोष था। इन्हें बदलने के लिये अधिकारियों से आग्रह भी किया जा चुका था। पर स्थिति यथावत रही। जब बैरकपुर छावनी के घटनाक्रम के समाचार और सरकार का अलर्ट मेरठ छावनी आया तो वातावरण उफान पर आ गया। सैनिकों में कारतूस से उत्पन्न अंसतोष कम करने के लिये कमांडिंग आफीसर लेफ्टिनेंट कर्नल जॉर्ज स्मिथ ने 24 अप्रैल 1857 को परेड बुलाई और कारतूस के बारे में फैली चर्चा को केवल अफवाह बताया। सैनिकों को वह विकल्प भी समझाया गया कि यदि किसी सैनिक को यह कारतूस मुँह से नहीं खोलना है तो वह बिना मुँह लगाये कारतूस कैसे खोल सकता है। छावनी में तैनात सैनिकों को अलग-अलग टुकड़ियों में बाँटकर यह समझाइश दी जाने लगी। लेकिन कोई बहुत प्रभाव न पड़ा। ऐसे अभ्यास में कुछ सैनिकों ने भाग लिया और कुछ बहाना बनाकर दूर रहे। 8 मई 1857 को आयोजित ऐसी ही एक अभ्यास परेड में 90 सैनिक उपस्थित थे। इनमें से 85 ने यह कारतूस छूने से इंकार कर दिया। इन सैनिकों से हथियार लेकर बंदी बना लिया गया। 9 मई को इन बंदी सैनिकों की परेड हुई। इन सभी सैनिकों को कोर्ट मार्शल के आदेश हुये। सजायें सुना दी गई। पूरी छावनी में इस निर्णय से भारी असंतोष फैला और अगले ही दिन 10 मई को छावनी के सभी भारतीय सौनिक शस्त्र लेकर अंग्रेजों पर टूट पड़े।

आठ मई को सैनिकों द्वारा अपने कमांडर का आदेश न मानने के केवल 72 घंटे के भीतर ही पूरे मेरठ परिक्षेत्र में सशस्त्र क्राँति का आरंभ हो जाना सभी शोधकर्ताओं और इतिहासकारों के लिये आश्चर्य का विषय रहा है। यह ठीक है कि अंग्रेजी सरकार द्वारा किसानों और व्यापारियों से की जानी वाली बसूली शोषण की पराकाष्ठा थी। वसूली कर्ता जो अपमान करते थे उससे जन सामान्य में बहुत असंतोष था। बैरकपुर छावनी के समाचार तो आ ही चुके थे। अब मेरठ सैन्य छावनी में आठ मई के घटनाक्रम का समाचार भी फैला तो जन सामान्य और आक्रोशित हो गया। और दस मई को छावनी के भीतर और बाहर एक साथ क्राँति की ज्वाला धधक उठी। यद्यपि इतिहास की पुस्तकों में कुछ बातें स्पष्ट नहीं हैं फिर भी इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि मेरठ छावनी के भीतर और बाहर जन सामान्य के बीच कोई ऐसा सूत्र अवश्य होगा जिसने क्राँति के लिये दोनों धाराओं को जोड़ा। कुछ पुस्तकों में भी उल्लेख है कि जिन दिनों मेरठ छावनी में सैन्य क्राँति आरंभ हुई उन्हीं दिनों स्वामी दयानन्द सरस्वती का मेरठ प्रवास था। वे लगभग एक माह रुके थे। उनके प्रवचन राष्ट्र स्वाभिमान और स्वत्व जागरण से संबंधित होते थे। कुछ विश्लेषण कर्ताओं का मानना है कि मेरठ में हुई इस जनक्रांति को उत्प्रेरित करने में महर्षि दयानंद सरस्वती के प्रवचनों की भूमिका महत्वपूर्ण थी। देशभर में जनजाग्रति काम के लिये संत, साधुओं और पुरोहितों की टोलियाँ भी घूम रहीं थीं। दस मई को जब क्राँति के लिये जन सैलाव सड़क पर आया तब हाथी पर सवार एक साधु का उल्लेख भी मिलता है। जो भी हो इन सारे तथ्यों पर एक स्वतंत्र शोध की आवश्यकता है।

दस मई को रविवार का दिन था। रविवार को अंग्रेज अधिकारी और सैनिक अवकाश मनाते थे और चर्च जाते थे। लगता है छावनी के भारतीय सैनिकों को इसकी प्रतीक्षा थी। रविवार को सामान्य दिनों की भाँति ही सूर्योदय हुआ। लेकिन जैसे ही अंग्रेज अधिकारी और सैनिक चर्च में गये तो तूफान उठ खड़ा हुआ। छावनी के अधिकांश भारतीय सैनिक हथियार लेकर निकल पड़े। उन्होंने सबसे पहले शस्त्रागार पर अधिकार किया और सभी बंदी सैनिकों को मुक्त किया। विद्रोह को दबाने के लिये कुछ अधिकारियों ने मोर्चा संभाला किन्तु मारे गये। सैनिकों का यह समूह छावनी से बाहर आया। और नगर के विभिन्न स्थानों में फैल गया सरकारी कार्यालय भवन और उनका रिकार्ड जला दिया गया। एक समूह कोतवाली की ओर गया। मानों कोतवाल धनसिंह प्रतीक्षा ही कर रहे थे। उन्होंने कोतवाली का शस्त्रागार खोल दिया। कोतवाली में तैनात समूचा पुलिस बल भी क्राँति में शामिल हो गया।

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मेरठ छावनी में एक 11वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री भी तैनात थी। इस इन्फ्रैन्ट्री सैनिकों में जो ब्रिटिश अधिकारियों के वफादार थे, उन्होंने अँग्रेजों और उनके परिवारों को सुरक्षित रामपुर रियासत पहुँचाया। रामपुर नबाब अंग्रेजों के कट्टर समर्थक माने जाते थे। यहाँ सभी अंग्रेज परिवारों को पूरी सुरक्षा मिली। क्राँति में ही अंग्रेज और उनके समर्थक मारे गये जिन्होंने क्राँतिकारियों को रोकने का प्रयास किया था। यह क्रांति कितनी प्रबल और सुसंगठित होगी इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि दस मई को प्रातः सूर्योदय से तीसरे प्रहर तक के कुछ घंटों में ही समूचा मेरठ परिक्षेत्र अंग्रेजों से मुक्त हो गया था। न केवल नगर परिक्षेत्र अपितु आसपास के गाँवों भी अंग्रेज सरकार के वफादार कारिन्दों को मारकर भगा दिया था। मेरठ पर पूर्णतया अधिकार करने के बाद क्राँतिकारियों की सैन्य टुकड़ियाँ दिल्ली की ओर रवाना हो गईं। क्राँतिकारियों की पहली घुड़सवार टुकड़ी 11 मई 1857 को प्रातः दिल्ली पहुँच गई थी। दो अन्य टुकड़ियाँ दोपहर तक। मेरठ में आठ और नौ मई को घटी घटनाओं का विवरण पहले ही पहुँच गया था। इससे अंग्रेज अधिकारी सतर्क हो गये थे और अपने परिवारों को सुरक्षित स्थानों पर भेजना आरंभ कर दिया था। दिल्ली पहुँचे क्राँतिकारियों से दिल्ली के सैनिक भी मिले। सबने मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर से सत्ता संभालने का आग्रह किया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया गया।

आरंभ में लगा कि भारत अंग्रेजों से मुक्त हो गया। पर यह क्राँति अधिक दिनों स्थाई न रह सकी। अंग्रेज कहने लिये तो भाग गये थे पर उन्होंने हार नहीं मानी थी। अंग्रेजों ने भारत के भीतर ही सुरक्षित स्थान तलाश करके अपने विश्वासघाती सक्रिय किये जिन्होंने क्राँतिकारियों के बीच परस्पर अविश्वास पैदा किया। अंग्रेजों ने बाहर से कुछ अधिकारी भी बुलाये और भारत में सेना की नई बटालियनें तैयार कीं और टूट पड़े। उन्होंने एक साथ सभी क्राँतिकारियों पर हमला नहीं बोला। एक एक करके निशाने पर लिया। मेरठ में क्राँतिकारियों की सत्ता बमुश्किल दो माह चली और दिल्ली में चार माह। अंग्रेजों ने जुलाई 1857 में मेरठ और उसके आसपास के गाँवों में जो दमन किया, सामूहिक नरसंहार किया उसका रोंगटे खड़े कर देने वाला विवरण इतिहास के पन्नों में मिलता है। दिल्ली की सत्ता अंग्रेजों के हाथ सितम्बर माह में आ गई थी। बादशाह बहादुरशाह जफर को बंदी बनाकर रंगून भेज दिया गया। पूरे देश में इस क्रान्ति का पूरी तरह दमन करने मे लगभग डेढ़ वर्ष लगा। मेरठ में हुई इस क्राँति का विवरण मेरठ के गजेटियर में है। इसके अतिरिक्त आचार्य दीपांकर द्वारा रचित पुस्तक “स्वाधीनता आँदोलन” में और स्वातंत्र्य वीर सावरकर की पुस्तक “1857 का स्वातंत्र्य समर” सहित अनेक पुस्तकों में भी है। ब्रिटिश इतिहासकारों और सैन्य अधिकारियों ने इसके कारण और दमन का विवरण लिखा है। मेरठ में इस क्रांति की स्मृति में शहीद स्मारक बना हुआ है जिस पर उन सभी 85 सैनिकों के नाम अंकित हैं जिन्होंने आठ मई 1857 को सबसे पहले कमांडर का आदेश मानने से इनकार कर दिया था।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)