कर्नाटक
2014 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सिद्धारमैया सरकार ने सामाजिक और शैक्षिक सर्वेक्षण फैसला लिया था। सर्वेक्षण का उद्देश्य 127वें संविधान संशोधन विधेयक के अनुसार अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के आरक्षण पर निर्णय लेना था। सर्वेक्षण 2015 में अप्रैल और मई में किया गया था। राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग की देखरेख में कराए गए सर्वेक्षण में राज्य के 1.3 करोड़ घरों का सर्वे कराया गया। जून 2016 तक रिपोर्ट जारी होनी थी लेकिन इसकी रिपोर्ट कभी सार्वजनिक नहीं की गई।
तेलंगाना
2021 में तेलंगाना में पिछड़ा वर्ग राज्य आयोग ने पिछड़े वर्गों का सर्वेक्षण करने का फैसला लिया। प्राथमिक योजना एडमिनिस्ट्रेटिव स्टाफ कॉलेज ऑफ इंडिया (एएससीआई), सेंटर ऑफ इकोनॉमिक एंड सोशल स्टडीज (सीईएसएस), ब्यूरो ऑफ इकोनॉमिक्स एंड स्टैटिस्टिक्स और सेंटर फॉर गुड गवर्नेंस जैसी कई विशेषज्ञ एजेंसियों को शामिल करने की थी। हालांकि अभी तक कोई कार्ययोजना सामने नहीं आई है।
ओडिशा
ओडिशा ने भी हाल ही में पिछड़ी जाति समुदायों की शैक्षिक और सामाजिक स्थितियों को समझने के लिए जाति आधारित सर्वेक्षण पूरा किया है। 1 मई से सर्वेक्षण शुरू हुआ था। सर्वेक्षण पूरा कर लिया गया है। हालांकि इस सर्वे में ओबीसी परिवारों का शैक्षिक, व्यावसायिक और घरेलू डेटा दर्ज किया गया। इसकी रिपोर्ट अभी जारी नहीं हुई है।
हाल के वर्षों में मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और हरियाणा ने अपने स्वयं के ओबीसी सर्वेक्षण आयोजित किए थे। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र सर्वेक्षण में गलती पाई है और राज्य को इसके आधार पर स्थानीय निकाय चुनावों में आरक्षण लागू करने से रोक दिया। दिसंबर 2021 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ओडिशा और कुछ अन्य राज्यों ने अपने स्वयं के ओबीसी सर्वेक्षण शुरू किए।
बहुत पहले से उठ रही जाति सर्वेक्षण की मांग
जाति जनगणना पर देश में बहस दशकों पुरानी है। 1951 के बाद से हर जनगणना में जाति सर्वेक्षण की मांग राजनीतिक चर्चा में उठती रही है। देश में सभी जातियों के साथ-साथ अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का जो आंकड़ा है वह 1931 की जनगणना का ही है। उस समय ओबीसी की जनसंख्या भारत की कुल जनसंख्या का लगभग 52 प्रतिशत थी। यानि जाति जनगणना से जुड़े आंकड़े 1931 के ही हैं।
इतिहास एक नजर में..
- भारत में जनगणना की शुरुआत वर्ष 1872 में की गई थी। तब अंग्रेजों का शासन था, अंग्रेजों ने 1931 तक जितनी बार भी जनगणना कराई, उसमें जाति से जुड़ी जानकारी भी दर्ज की।
- आजादी के बाद 1951 में पहली बार जनगणना हुई। तब से लेकर अबतक सरकार ने जाति जनगणना से परहेज किया। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में कहा कि संविधान जनसंख्या को मानता है जाति या धर्म को नहीं।
- 1979 में भारत सरकार ने मंडल कमीशन का गठन किया, इसका उद्देश्य सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों को आरक्षण देना था।
- मंडल कमीशन ने सभी ओबीसी श्रेणी के लोगों को आरक्षण देने की सिफारिश की, यह 1990 में लागू हो सका। तब सामान्य श्रेणी के छात्रों ने देशभर में उग्र प्रदर्शन भी किया था।
सर्वे हुआ, लेकिन नहीं हो पाए आंकड़े जारी
2011 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना (एसईसीसी) की योजना बनाई थी। ग्रामीण विकास मंत्रालय ने ग्रामीण क्षेत्रों में सर्वेक्षण का कार्य किया, आवास और शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय ने शहरी क्षेत्रों में सर्वे किया। जाति के बिना यह आंकड़ा 2016 में दो मंत्रालयों द्वारा प्रकाशित किया गया था। जाति का आंकड़ा सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय को सौंप दिया गया था, जिसने इसे वर्गीकृत करने के लिए एक विशेषज्ञ समूह का गठन किया था। हालांकि, अभी तक इस पर कोई रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई है। 2016 में लोकसभा अध्यक्ष को सौंपी गई ग्रामीण विकास पर संसदीय समिति की रिपोर्ट में कहा गया कि आंकड़ों की जांच की गई है और व्यक्तियों की जाति और धर्म पर 98.87 प्रतिशत डेटा त्रुटि रहित है। लेकिन बाकी में त्रुटियां हैं, राज्यों को सुधार करने के लिए कहा गया था।
कब-कब उठी मांग
आजादी के बाद जब पहली जनगणना के दौरान जातीय जनगणना की मांग उठी। हालांकि तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल ने प्रस्ताव खारिज कर दिया। उनका मानना था कि इससे देश का ताना-बाना बिगड़ सकता है। वहीं, 2010 में बड़ी संख्या में सांसदों ने जाति जनगणना की मांग की, इसके बाद कांग्रेस सरकार इसके लिए तैयार हुई। 2011 की जनगणना में भी राजनीतिक दलों ने जातीय जनगणना की मांग रखी थी। सामाजिक आर्थिक जनगणना हुई लेकिन आंकड़े जारी नहीं किए गए। क्योंकि इसमें कमियां थीं। 1931 में हुई पहली जनगणना में देश में कुल जातियों की संख्या 4147 थी। 2011 जाति जनगणना के बाद देश में जो कुल जातियों की संख्या 46 लाख से ज़्यादा थी।(एएमएपी)