#pramodjoshiप्रमोद जोशी।

जो रहीम ओछो बढ़ै, तो अति ही इतराय/,

प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ो-टेढ़ो जाय। 

प्रेमचंद की कहानी ‘नशा’ दो युवकों की कहानी है। एक धनी ज़मींदार का बेटा और दूसरा एक निर्धन क्लर्क का। रुतबे और रसूख का नशा व्यक्ति के आचरण को कितनी तेजी से बदलता है, यह इस कहानी की थीम है।

कुछ साल पहले की बात है। एक परिचित अपने घर के बारे में बता रहे थे। बोले, आसपास बहुत अच्छे लोग रहते हैं। सामने एक ब्रिगेडियर साहब है, उनके बराबर  चीफ इंजीनियर हैं। हमारे बराबर पीसीएस अफसर रहते हैं वगैरह-वगैरह। ‘अच्छे’  लोगों की यह परिभाषा मैंने जीवन में कई बार सुनी है। रसूखदार होना अच्छे की एक परिभाषा है और अमीर होना दूसरी। हमारे आसपास तमाम ऐसे लोग हैं, जो ऊँचे पद पर रहते हुए भी बेहद सरल हैं। पर ऐसों की संख्या कम नहीं है, जो रुतबे, रसूख और अमीरी के नशे में बड़ी जल्दी डूब जाते हैं।

ऐसे दृष्टिकोण से सरल, साधारण और अपेक्षाकृत साधनहीन या गरीब होना, ‘अच्छे’ की इस परिभाषा में फिट नहीं होता। बड़े लोगों के बीच उठने-बैठने वाले लोग ‘अच्छे’ होते हैं। अमीरी के छींटे जीवन में पड़ जाएं, तो व्यक्ति की समझ बदल जाती है। उनके बच्चे, उनसे सीखते हैं। पुणे के अमीर आदमी के 17 साल 8 महीने के बच्चे को परीक्षा में सफलता की खुशी मनाने के लिए शराबखाना मिला। उसके पास पिता की महंगी कार भी थी, जिसे 200 किलो मीटर से ज्यादा की स्पीड से दौड़ाया जा सकता है। इस दोहरे नशे में जो हुआ, वह आपके सामने है।

यह पहला मौका नहीं है, जब ऐसा हादसा हुआ है और न आखिरी है। इस नशे के कई रूप हैं, पर उसके केंद्र में है खुद को दूसरों से ऊपर रखने की चाहत। हाल में प्रणय कुमार का एक लेख एक अखबार में प्रकाशित हुआ, जिसका शीर्षक है, ‘कब खत्म होगी अंकों की अंधी दौड़?’ इस लेख के प्रकाशन के बाद प्रणय कुमार ने वॉट्सएप पर लिखा, मेरे लेख पर आज मुझे सैकड़ों टिप्पणियाँ प्राप्त हुईं। फतेहपुर, उत्तर प्रदेश के एक शिक्षक-मित्र की टिप्पणी के माध्यम से ज्ञात हुआ कि वहाँ उनके विद्यालय में एक छात्रा ने केवल इसलिए आत्महत्या कर ली क्योंकि वह 3 अंक से विद्यालय टॉप करने से चूक गई।

महत्वाकांक्षा, सकारात्मक दृष्टिकोण है। यह हमें सक्रिय करती है, विपरीत परिस्थितियों से लड़ने का हौसला देती है। इस महत्वाकांक्षा के दायरे को भी समझने की जरूरत है। एक तरफ यह हमें सामाजिक-दृष्टि से उपादेय बनाती है वहीं आत्महत्या की ओर भी ले जा सकती है। दूसरों की हत्या करने की ओर भी। बच्चों को महत्वाकांक्षी जरूर बनाएं, पर उनके वैचारिक दायरे को व्यापक बनाएं, संकीर्ण नहीं।

आप चाहें तो मुंशी प्रेमचंद की मशहूर कहानी ‘नशा‘ को यहां पढ़ सकते हैं।

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कहानी: नशा✍️ मुंशी प्रेमचंद 

ईश्वरी एक बड़े जमींदार का लड़का था और मैं एक गरीब क्लर्क का, जिसके पास मेहनत-मजूरी के सिवा और कोई जायदाद न थी। हम दोनों में परस्पर बहसें होती रहती थीं। मैं जमींदारी की बुराई करता, उन्हें हिंसक पशु और खून चूसने वाली जोंक और वृक्षों की चोटी पर फूलने वाला बंझा कहता। वह जमींदारों का पक्ष लेता, पर स्वभावत: उसका पहलू कुछ कमजोर होता था, क्योंकि उसके पास जमींदारों के अनुकूल कोई दलील न थी। वह कहता कि सभी मनुष्य बराबर नहीं होते, छोटे-बड़े हमेशा होते रहते हैं और होते रहेंगे, लचर दलील थी। किसी मानुषीय या नैतिक नियम से इस व्यवस्था का औचित्य सिद्ध करना कठिन था। मैं इस वाद-विवाद की गर्मी-गर्मी में अक्सर तेज हो जाता और लगने वाली बात कह जाता, लेकिन ईश्वरी हारकर भी मुस्कराता रहता था। मैंने उसे कभी गर्म होते नहीं देखा। शायद इसका कारण यह था कि वह अपने पक्ष की कमजोरी समझता था। नौकरों से वह सीधे मुँह बात नहीं करता था। अमीरों में जो एक बेदर्दी और उद्दण्डता होती है, इसमें उसे भी प्रचुर भाग मिला था। नौकर ने बिस्तर लगाने में जरा भी देर की, दूध जरूरत से ज्यादा गर्म या ठंडा हुआ, साइकिल अच्छी तरह साफ नहीं हुई, तो वह आपे से बाहर हो जाता। सुस्ती या बदतमीजी उसे जरा भी बरदाश्त न थी, पर दोस्तों से और विशेषकर मुझसे उसका व्यवहार सौहार्द और नम्रता से भरा हुआ होता था। शायद उसकी जगह मैं होता, तो मुझमें भी वहीं कठोरताएँ पैदा हो जातीं, जो उसमें थीं, क्योंकि मेरा लोकप्रेम सिद्धांतों पर नहीं, निजी दशाओं पर टिका हुआ था, लेकिन वह मेरी जगह होकर भी शायद अमीर ही रहता, क्योंकि वह प्रकृति से ही विलासी और ऐश्वर्य-प्रिय था।

अबकी दशहरे की छुट्टियों में मैंने निश्चय किया कि घर न जाऊँगा। मेरे पास किराये के लिए रूपये न थे और न घरवालों को तकलीफ देना चाहता था। मैं जानता हूँ, वे मुझे जो कुछ देते हैं, वह उनकी हैसियत से बहुत ज्यादा है, उसके साथ ही परीक्षा का ख्याल था। अभी बहुत कुछ पढ़ना है, बोर्डिग हाउस में भूत की तरह अकेले पड़े रहने को भी जी न चाहता था। इसलिए जब ईश्वरी ने मुझे अपने घर का नेवता दिया, तो मैं बिना आग्रह के राजी हो गया। ईश्वरी के साथ परीक्षा की तैयारी खूब हो जायगी। वह अमीर होकर भी मेहनती और जहीन है।

उसने इसके साथ ही कहा- लेकिन भाई, एक बात का ख्याल रखना। वहाँ अगर जमींदारों की निंदा की, तो मुआमिला बिगड़ जायगा और मेरे घरवालों को बुरा लगेगा। वह लोग तो असामियों पर इसी दावे से शासन करते हैं कि ईश्वर ने असामियों को उनकी सेवा के लिए ही पैदा किया है। असामी भी यही समझता है। अगर उसे सुझा दिया जाय कि जमींदार और असामी में कोई मौलिक भेद नहीं है, तो जमींदारी का कहीं पता न लगे।

मैंने कहा- तो क्या तुम समझते हो कि मैं वहाँ जाकर कुछ और हो जाऊँगा?

‘हाँ, मैं तो यही समझता हूँ।’

‘तुम गलत समझते हो।‘

ईश्वरी ने इसका कोई जवाब न दिया। कदाचित् उसने इस मुआमले को मेरे विवेक पर छोड़ दिया। और बहुत अच्छा किया। अगर वह अपनी बात पर अड़ता, तो मैं भी जिद पकड़ लेता।

सेकेंड क्लास तो क्या , मैंने कभी इंटर क्लास में भी सफर न किया था। अबकी सेकेंड क्लास में सफर का सौभाग्य प्राप्त हुआ। गाड़ी तो नौ बजे रात को आती थी, पर यात्रा के हर्ष में हम शाम को स्टेशन जा पहुँचे। कुछ देर इधर-उधर सैर करने के बाद रिफ्रेशमेंट रूम में जाकर हम लोगों ने भोजन किया। मेरी वेश-भूषा और रंग-ढंग से पारखी खानसामों को यह पहचानने में देर न लगी कि मालिक कौन है और पिछलग्गू कौन; लेकिन न जाने क्यों मुझे उनकी गुस्ताखी बुरी लग रही थी। पैसे ईश्वरी की जेब से गये। शायद मेरे पिता को जो वेतन मिलता है, उससे ज्यादा इन खानसामों को इनाम- इकराम में मिल जाता हो। एक अठन्नी तो चलते समय ईश्वरी ही ने दी। ‍फिर भी मैं उन सबों से उसी तत्परता और विनय की अपेक्षा करता था, जिससे वे ईश्वरी की सेवा कर रहे थे। ईश्वरी के हुक्म पर सब-के-सब दौडते हैं, लेकिन मैं कोई चीज माँगता हूँ, तो उतना उत्साह नहीं दिखाते! मुझे भोजन में कुछ स्वाद न मिला। यह भेद मेरे ध्यान को संपूर्ण रूप से अपनी ओर खींचे हुए था।

गाड़ी आयी, हम दोनों सवार हुए। खानसामों ने ईश्वेरी को सलाम किया। मेरी ओर देखा भी नहीं।

ईश्वरी ने कहा- कितने तमीजदार हैं ये सब। एक हमारे नौकर हैं कि कोई काम करने का ढंग नहीं।

मैंने खट्टे मन से कहा- इसी तरह अगर तुम अपने नौकरों को भी आठ आने रोज इनाम दिया करो, तो शायद इनसे ज्यादा तमीजदार हो जायें।

‘तो क्या तुम समझते हो, यह सब केवल इनाम के लालच से इतना अदब करते हैं।’

‘जी नहीं, कदापि नहीं! तमीज और अदब तो इनके रक्त में मिल गया है।’

गाड़ी चली। डाक थी। प्रयाग से चली तो प्रतापगढ़ जाकर रूकी। एक आदमी ने हमारा कमरा खोला। मैं तुरंत चिल्ला उठा- दूसरा दरजा है- सेकेंड क्लास है।

उस मुसाफिर ने डिब्बे के अंदर आकर मेरी ओर एक विचित्र उपेक्षा की दृष्टि से देखकर कहा- जी हाँ, सेवक इतना समझता है, और बीच वाले बर्थ पर बैठ गया। मुझे कितनी लज्जा आयी, कह नहीं सकता।

भोर होते-होते हम लोग मुरादाबाद पहुँचे। स्टेशन पर कई आदमी हमारा स्वागत करने के लिए खड़े थे। दो भद्र पुरुष थे। पाँच बेगार। बेगारों ने हमारा लगेज उठाया। दोनों भद्र पुरूष पीछे-पीछे चले। एक मुसलमान था रियासत अली, दूसरा ब्राह्मण था रामहरख। दोनों ने मेरी ओर अपरिचित नेत्रों से देखा, मानो कह रहे हैं, तुम कौवे होकर हंस के साथ कैसे?

रियासत अली ने ईश्वरी से पूछा- यह बाबू साहब क्या आपके साथ पढ़ते हैं?

ईश्वरी ने जवाब दिया- हाँ, साथ पढ़ते भी हैं और साथ रहते भी हैं। यों कहिए कि आप ही की बदौलत मैं इलाहाबाद पड़ा हुआ हूँ, नहीं कब का लखनऊ चला आया होता। अबकी मैं इन्हें घसीट लाया। इनके घर से कई तार आ चुके थे, मगर मैंने इनकारी-जवाब दिलवा दिये। आखिरी तार तो अर्जेंट था, जिसकी फीस चार आने प्रति शब्द है, पर यहाँ से भी उसका जवाब इन्कारी ही गया।

दोनों सज्जनों ने मेरी ओर चकित नेत्रों से देखा। आतंकित हो जाने की चेष्टा करते जान पड़े।

रियासत अली ने अर्द्धशंका के स्वर में कहा- लेकिन आप बड़े सादे लिबास में रहते हैं।

ईश्वरी ने शंका निवारण की- महात्मा गाँधी के भक्त हैं साहब। खद्दर के सिवा कुछ पहनते ही नहीं। पुराने सारे कपड़े जला डाले। यों कहो कि राजा हैं। ढाई लाख सालाना की रियासत है, पर आपकी सूरत देखो तो मालूम होता है, अभी अनाथालय से पकड़कर आये हैं।

रामहरख बोले- अमीरों का ऐसा स्वभाव बहुत कम देखने में आता है। कोई भाँप ही नहीं सकता।

रियासत अली ने समर्थन किया- आपने महाराजा चाँगली को देखा होता तो दाँतों तले उंगली दबाते। एक गाढ़े की मिर्जई और चमरौधे जूते पहने बाजारों में घूमा करते थे। सुनते हैं, एक बार बेगार में पकड़े गये थे और उन्हीं ने दस लाख से कालेज खोल दिया।

मैं मन में कटा जा रहा था; पर न जाने क्या बात थी कि यह सफेद झूठ उस वक्त मुझे हास्यास्पद न जान पड़ा। उसके प्रत्येक वाक्य के साथ मानों मैं उस कल्पित वैभव के समीपतर आता जाता था।

मैं शहसवार नहीं हूँ। हाँ, लड़कपन में कई बार लद्दू घोड़ों पर सवार हुआ हूँ। यहाँ देखा तो दो कलाँ-रास घोड़े हमारे लिए तैयार खड़े थे। मेरी तो जान ही निकल गई। सवार तो हुआ, पर बोटियाँ काँप रही थीं। मैंने चेहरे पर शिकन न पड़ने दिया। घोड़े को ईश्वरी के पीछे डाल दिया। खैरियत यह हुई कि ईश्वरी ने घोड़े को तेज न किया, वरना शायद मैं हाथ-पैर तुड़वाकर लौटता। संभव है, ईश्व‍री ने समझ लिया हो कि यह कितने पानी में है।

ईश्वरी का घर क्या था, किला था। इमामबाड़े का-सा फाटक, द्वार पर पहरेदार टहलता हुआ, नौकरों का कोई हिसाब नहीं, एक हाथीबँधा हुआ। ईश्वरी ने अपने पिता, चाचा, ताऊ आदि सबसे मेरा परिचय कराया और उसी अतिश्योक्ति के साथ। ऐसी हवा बाँधी कि कुछ न पूछिए। नौकर- चाकर ही नहीं, घर के लोग भी मेरा सम्मान करने लगे। देहात के जमींदार, लाखों का मुनाफा, मगर पुलिस कान्सटेबिल को अफसर समझने वाले। कई महाशय तो मुझे हुजूर-हुजूर कहने लगे।

जब जरा एकांत हुआ, तो मैंने ईश्वरी से कहा- तुम बड़े शैतान हो यार, मेरी मिट्टी क्यों पलीद कर रहे हो?

ईश्वरी ने दृढ़ मुस्कान के साथ कहा- इन गधों के सामने यही चाल जरूरी थी, वरना सीधे मुँह बोलते भी नहीं।

पाँव दबाने लगा। फिर बोला- आजकल जमींदार लोग बड़ा जुलुम करते हैं सरकार! हमें भी हुजूर, अपने इलाके में थोड़ी-सी जमीन दे दें, तो चलकर वहीं आपकी सेवा में रहें।

मैंने कहा- अभी तो मेरा कोई अख्तियार नहीं है भाई; लेकिन ज्यों ही अख्तियार मिला, मैं सबसे पहले तुम्हें बुलाऊँगा। तुम्हें मोटर-ड़्राइवरी सिखा कर अपना ड्राइवर बना लूँगा।

सुना, उस दिन ठाकुर ने खूब भंग पी और अपनी स्त्री को खूब पीटा और गाँव के महाजन से लड़ने पर तैयार हो गया।

 

छुट्टी इस तरह तमाम हुई और हम फिर प्रयाग चले। गाँव के बहुत-से लोग हम लोगों को पहुँचाने आये। ठाकुर तो हमारे साथ स्टेशन तक आया। मैनें भी अपना पार्ट खूब सफाई से खेला और अपनी कुबेरोचित विनय और देवत्व की मुहर हरेक हृदय पर लगा दी। जी तो चाहता था, हरेक नौकर को अच्छा इनाम दूँ, लेकिन वह सामर्थ्य कहाँ थी? वापसी टिकट था ही, केवल गाड़ी में बैठना था; पर गाड़ी आयी तो ठसाठस भरी हुई। दुर्गापूजा की छुट्टियाँ भोगकर सभी लोग लौट रहे थे। सेकेंड क्लास में तिल रखने की जगह नहीं। इंटर क्लास की हालत उससे भी बदतर। यह आखिरी गाड़ी थी। किसी तरह रूक न सकते थे। बड़ी मुश्किल से तीसरे दरजे में जगह मिली। हमारे ऐश्वर्य ने वहाँ अपना रंग जमा लिया, मगर मुझे उसमें बैठना बुरा लग रहा था। आये थे आराम से लेटे-लेटे, जा रहे थे सिकुड़े हुए। पहलू बदलने की भी जगह न थी।

कई आदमी पढ़े-लिखे भी थे! वे आपस में अंग्रेजी राज्य की तारीफ करते जा रहे थे। एक महाशय बोले- ऐसा न्याय तो किसी राज्य में नहीं देखा। छोटे-बड़े सब बराबर। राजा भी किसी पर अन्याय करे, तो अदालत उसकी गर्दन दबा देती है।

दूसरे सज्जन ने समर्थन किया- अरे साहब, आप खुद बादशाह पर दावा कर सकते हैं। अदालत में बादशाह पर डिग्री हो जाती है।

एक आदमी, जिसकी पीठ पर बड़ा गट्ठर बँधा था, कलकत्ते जा रहा था। कहीं गठरी रखने की जगह न मिलती थी। पीठ पर बाँधे हुए था। इससे बेचैन होकर बार-बार द्वार पर खड़ा हो जाता। मैं द्वार के पास ही बैठा हुआ था। उसका बार-बार आकर मेरे मुँह को अपनी गठरी से रगड़ना मुझे बहुत बुरा लग रहा था। एक तो हवा यों ही कम थी, दूसरे उस गँवार का आकर मेरे मुँह पर खड़ा हो जाना, मानो मेरा गला दबाना था। मैं कुछ देर तक जब्त किये बैठा रहा। एकाएक मुझे क्रोध आ गया। मैंने उसे पकड़कर पीछे ठेल दिया और दो तमाचे जोर-जोर से लगाये।

उसनें आँखें निकालकर कहा- क्यों मारते हो बाबूजी, हमने भी किराया दिया है!

मैंने उठकर दो-तीन तमाचे और जड़ दिये।

गाड़ी में तूफान आ गया। चारों ओर से मुझ पर बौछार पड़ने लगी।

‘अगर इतने नाजुक मिजाज हो, तो अव्वल दर्जे में क्यों नहीं बैठे।‘

‘कोई बड़ा आदमी होगा, तो अपने घर का होगा। मुझे इस तरह मारते तो दिखा देता।’

‘क्या कसूर किया था बेचारे ने। गाड़ी में साँस लेने की जगह नहीं, खिड़की पर जरा साँस लेने खड़ा हो गया, तो उस पर इतना क्रोध! अमीर होकर क्या आदमी अपनी इन्सानियत बिल्कुल खो देता है।

’यह भी अंग्रेजी राज है, जिसका आप बखान कर रहे थे।’

एक ग्रामीण बोला- दफ्तरन माँ घुसन तो पावत नहीं, उस पर इत्ता मिजाज!

ईश्वरी ने अंग्रेजी मे कहा- What an idiot you are, Bir!(बीर, तुम कितने मूर्ख हो !) और मेरा नशा अब कुछ-कुछ उतरता हुआ मालूम होता था।