राजीव रंजन।
दीवार के एक तरफ कॉलेज है, जिसमें संभ्रांत घरों के बच्चे पढ़ते हैं। दीवार की दूसरी तरफ झोपड़पट्टी है, जहां के बच्चे नशा करते हैं, चोरी-झपटमारी करते हैं, लड़ाई-झगड़ा करते हैं। झोपड़पट्टी की तरफ दीवार की जो सतह है, उस पर लिखा है- दीवार फांदना मना है। झोपड़पट्टी और कॉलेज के बीच भौतिक दूरी कुछ नहीं है, पर सामाजिक फासला बड़ा है। ये भारत की दो तस्वीरें हैं। हमारे समाज में कई लोग हैं, जो दीवार के दोनों तरफ के फासले को पाटने का काम कर रहे हैं। उन्हीं में से एक हैं विजय बरसे, जो ‘स्लम सॉकर’ नामक एनजीओ के संस्थापक हैं। फिल्म ‘झुंड’ उन्हीं पर और उनके शिष्यों पर आधारित है।
विजय बरसे की भूमिका में है अमिताभ बच्चन। फिल्म में किरदार का नाम भी विजय ही है। वह उसी कॉलेज में स्पोट्र्स शिक्षक हैं, जिसकी दूसरी तरफ झोपड़पट्टी है। उनका घर भी पास में ही है। वह अपने पैसे से समाज कार्य करते हैं। उनके परिवार को भी कोई शिकायत नहीं है कि वे अपना पैसा दूसरे लोगों पर खर्च क्यों करते हैं। एक दिन वह स्लम के बच्चों को प्लास्टिक के डब्बे से फुटबॉल खेलते हुए देखते हैं। वे समझ जाते हैं कि बच्चों में प्रतिभा है, अगर उन्हें मौका मिला तो वे अपनी बुरी आदतों को पीछे छोड़ कुछ अच्छा कर सकते हैं। उन बच्चों का लीडर है डॉन उर्फ अंकुश मेश्राम, जो उल्टे-सीधे कामों में उनका नेतृत्व करता है। विजय उन बच्चों को फुटबॉल खेलने के लिए बड़े दिलचस्प तरीके से प्रेरित करते हैं।
वह उनकी टीम बनाते हैं, उन्हें ट्रेनिंग देते हैं और अपने कॉलेज के बच्चों से मैच रखते हैं। विजय के एक सहयोगी स्पोट्र्स शिक्षक कहते हैं कि उनका झुंड कॉलेज के बच्चों को नहीं हरा सकता। विजय कहते हैं- उन्हें झुंड नहीं, टीम कहिए। यह संवाद वास्तव में फिल्म का सार है। हर झुंड में टीम बनने की अपार संभावनाएं होती हैं, अगर मौका दिया जाए तो। झोपड़पट्टी फुटबॉल का सिलसिला राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचता है और फिरअंतरराष्ट्रीय स्तर तक भी। बच्चों की जिंदगी को एक मकसद मिलता है।
फिल्म के निर्देशक नागराज पोपटराव मंजुले को हिन्दी में अधिकांश लोग ‘सैराट’ की वजह से जानते हैं। इसका हिन्दी में रीमेक भी बना है, ‘धड़क’ के नाम से, जो जाह्नवी कपूर की पहली फिल्म थी। नागराज अपने सिनेमा में जातीय विषमताओं और हाशिये पर पड़े समाजों के यथार्थ चित्रण के लिए जाने जाते हैं। उनकी पहली फिल्म ‘फैंड्री’ और उनकी सबसे चर्चित फिल्म ‘सैराट’ (दोनों मराठी में) इसका उदाहरण हैं। झुंड भी उसी तरह की फिल्म है।
बतौर लेखक और निर्देशक नागराज ने नागपुर की एक झोपड़पट्टी की कहानी को बहुत यथार्थ तरीके से पेश किया है। बस्ती के माहौल को बिना किसी मिलावट के, ‘जो है जैसा है’ की तर्ज पर दिखाया है। यहां तक कि बहुत सारे कलाकार भी उस बस्ती के ही हैं। बीस से ज्यादा कलाकारों की ये पहली फिल्म है।हालांकि बस्ती के माहौल को विस्तार देने केचक्कर में फिल्म लंबी और कई जगह धीमी भी हो गई है। कई जगह डॉक्यूड्रामा भी लगने लगती है। सच कहें तो अमिताभ बच्चन की मौजूदगी ही इसे पूरी तरह डॉक्यूड्रामा होने से बचाती है। अगर एडिटिंग में कुछ दृश्यों को कम कर दिया गया होता, तो यह ज्यादा बेहतर फिल्म होती। सिनमेटोग्राफी बहुत अच्छी है, कैमरे ने माहौल को खूबसूरती से पकड़ा है। गीत-संगीत भी फिल्म के मिजाज के अनुसार है।
अमिताभ बच्चन के अभिनय के बारे में क्या कहा जाए! वह पुरानी शराब की तरह हैं. जो जितनी पुरानी होती जाती है, उतना ही ज्यादा मदहोश करती है। फिल्म के बाकी सभी कलाकारोंका काम भी अच्छा है। उनके अभिनय में बहुत स्वाभावकिता है। ‘सैराट’ की लीड जोड़ी- रिंकु राजगुरु और आकाश ठोसर भी इस फिल्म में है। आकाश नकारात्मक भूमिका में हैं। वहीं रिंकु की भूमिका छोटी है। निर्देशक नागराज खुद भी एक छोटी-सी भूमिका में हैं। ‘फैंड्री’ के सोमनाथ अवघाडे भी एक अहम भूमिका में हैं।
कुछ कमियां इस फिल्म में हैं, लेकिन यह गहरा प्रभाव छोड़ती है। मन को उद्वेलित करती है। लेकिन आप मनोरंजन की चाह में इसे देखने जाएंगे तो आपको निराशा होगी। अगर आप यह मानते हैं कि सिनेमा का काम कुछ कहना भी है, तो आपको यह फिल्म बहुत पसंद आएगी।
हाशिये पर पड़े समाज मुख्यधारा तक नहीं पहुंच सकते, मुख्यधारा को उन तक पहुंचना पड़ेगा। उसके लिए दीवार गिरानी पड़ेगी- फिल्म का यही कहना है और सही कहना है।
फिल्म: झुंड
निर्देशक: नागराज पोपटराव मंजुले
कलाकार: अमिताभ बच्चन, रिंकु राजगुरु, आकाश ठोसर, सोमनाथ अवघाडे, किशोर कदम, सूरज पवार, विक्की कादियान
संगीतकार: अजय-अतुल
गीतकार: अमिताभ भट्टाचार्य