प्रदीप सिंह।
विवेक रंजन अग्निहोत्री की फिल्म कश्मीर फाइल्स रिलीज होने के बाद से जिस तरह का विमर्श खड़ा करने की कोशिश हो रही है और जिस तरह से इस फिल्म को एक तरह से नकारने की कोशिश हो रही है उन सबके बीच यह फिल्म बंपर कमाई कर रही है। तथाकथित मेनस्ट्रीम बॉलीवुड जो वॉलीवुड को चलाता है उसे लगता है कि उसकी यह सल्तनत है, उसके बिना यहां पत्ता भी नहीं खड़क सकता- वहां विवेक अग्निहोत्री ने झंडा बुलंद किया है। सवाल यह नहीं है कि फिल्म बंपर कमाई कर रही है। महत्वपूर्ण यह है कि लोग जिस तरह से इस फिल्म को देख रहे हैं, उनके जिस तरह के रिएक्शन आ रहे हैं, सिनेमा हॉल में फिल्म देखते समय व्यथित और रोते हुए लोगों के जो दृश्य हैं- ऐसे दृश्य पहले शायद ही कभी भी दिखाई दिए हों। अमूमन दस पंद्रह फीसदी ऐसे लोग होते हैं जिनकी आंखों में किसी भी फिल्म के इमोशनल दृश्य पर आंसू आ जाते हैं। लेकिन इस फिल्म को देखने वालों में शायद ही ऐसा कोई हो जिसकी आंखों में आंसू ना आए हों।
दूसरी बात, लोग टिकट गिफ्ट करने को तैयार हैं। अपने दोस्तों को, अपने परिचितों को या जो लोग टिकट नहीं खरीद सकते हैं या नहीं खरीदना चाहते हैं उनको टिकट गिफ्ट कर रहे हैं कि यह टिकट लीजिए और फिल्म देख कर आइए। उत्तर भारत तो छोड़िए दक्षिण भारत में भी यह फिल्म खूब चल रही है। चेन्नई में पहले दिन यह फिल्म तीन स्क्रीन पर रिलीज हुई। अभी 26 स्क्रीन पर चल रही है और हाउसफुल चल रही है। यह ताकत है इस फिल्म की। बल्कि मैं तो कहूंगा कि विवेक अग्निहोत्री या फिल्म से ज्यादा यह ताकत सच्चाई की है। जब आप हिम्मत के साथ खड़े होकर सच कहते हैं, बिना डरे हुए कहते हैं, बिना उस पर कोई मुलम्मा चढ़ाए हुए कहते हैं- तब इस तरह के रिएक्शन आपको देखने को मिलते हैं। विवेक रंजन ने बहुत बड़ी छलांग लगाई है। छलांग लगाई है देश में इतिहास को, अतीत को सही संदर्भ, परिप्रेक्ष्य और सही तथ्यों के साथ सामने रखने रखने की। उन्होंने हिम्मत दिखाई है कि हिंदुओं पर होने वाले अत्याचार की भी बात कही जा सकती है और उसे लोग सुनने-देखने को तैयार हैं। यह जो पिछले 70-72 साल में लेफ्ट लिबरल मीडिया ने, सेक्युलर बुद्धिजीवियों ने और एक वर्ग ने बनाया है कि वे वही दिखाएंगे जो सेक्युलर है। यही देखा जाएगा, बाकी सब रिजेक्ट हो जाएगा, लोग उसे नकार देंगे।
नरसंहार को सामान्य घटना बताने की कोशिश
इस फिल्म की सफलता ने यह साबित कर दिया है कि इस तरह की फिल्मों के लिए पूरी गुंजाइश है। इस तरह की फिल्मों से मेरा मतलब सच पर आधारित फिल्मों से है जो बिना छुपाए, बिना डरे सच कहने की हिम्मत रखती हों। इस फिल्म के खिलाफ तरह-तरह के अभियान चलाने की कोशिश हो रही है। जो सत्य है उसको गलत बताने की कोशिश हो रही है- उस पर सवाल उठाने की कोशिश हो रही है। एक बात हमेशा याद रखिए, जब भी हिंदुओं पर अत्याचार की बात होगी, जब भी पीड़ित हिंदुओं की बात होगी उसे हेट मॉन्गर (नफरत फ़ैलाने वाले) के रूप में दिखाया जाएगा। यह बॉलीवुड का इतिहास है। यह इस देश के इतिहासकारों का इतिहास है। यह पहली फिल्म है जो इस सोच को, इस व्यवस्था को चुनौती दे रही है। यह फिल्म सच्चाई बता रही है इसलिए इस फिल्म को देखना चाहिए। 1990 से लेकर अब तक जिस सच्चाई को दबाया गया उसे यह फिल्म सामने लेकर आई है। यह फिल्म बताती है कि उस समय के हुक्मरानों ने कैसे इतने बड़े अत्याचार, नरसंहार को सामान्य घटना दिखाने-बताने की कोशिश। इसे लेकर अब कई सवाल उठ रहे हैं।
कैसे हुई शुरुआत
पहले आपको कुछ घटनाएं बता दूं कि इसकी शुरुआत जम्मू-कश्मीर में कैसे हुई। जम्मू-कश्मीर में इसकी शुरुआत काफी समय से हो रही थी। जिस तरह की राजनीति नेशनल कांफ्रेंस की थी और उसमें जिस तरह से कांग्रेस सहायक थी- उससे यह परिस्थिति धीरे-धीरे बन रही थी। पहली आतंकी घटना 1988 में हुई। कश्मीरी पंडितों और कश्मीर में हिंदुओं पर हुए अत्याचार की सारी कहानी अगर आप जानना चाहते हैं तो आपको सितंबर 1989 से 19 जनवरी,1990 तक की घटनाओं पर, उसके इतिहास पर, उस समय की खबरों पर ध्यान देना होगा। 1987 में जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस और नेशनल कांग्रेस की साझा सरकार बनी। फारूक अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बने और उसके बाद से आतंकवाद का खेल शुरू हुआ। 1989 में जुलाई से सितंबर के बीच आतंकवादियों का पहला बड़ा ट्रेंड जत्था पाकिस्तान से आया जिसमें 70 आतंकवादी थे। उन सभी को जम्मू-कश्मीर पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। मगर उन सभी को राज्य की फारूक अब्दुल्ला और केंद्र की राजीव गांधी सरकार ने रिहा करा दिया। मैं यहां जानबूझकर राजीव गांधी का नाम ले रहा हूं। आप कह सकते हैं कि कानून-व्यवस्था तो राज्य का मामला होता है, लेकिन इतना बड़ा कदम मुख्यमंत्री- और वह मुख्यमंत्री जिसकी सरकार कांग्रेस के समर्थन से चल रही हो- अकेले नहीं ले सकता। मान लीजिए कि फारूक अब्दुल्ला ने अकेले यह फैसला किया तो क्या राजीव गांधी की सरकार ने उनसे सवाल पूछा? राज्य सरकार से जवाब-तलब किया? उसकी कोई जांच हुई? अगर मिलीभगत नहीं थी तो यह सब स्वाभाविक तौर पर होना चाहिए था लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। वे जो 70 आतंकवादी रिहा हुए उन्होंने अपने अलग-अलग गुट बनाए और दशकों तक जम्मू- कश्मीर में आतंक का कहर बरपाते रहे। यह देन है नेशनल कांफ्रेंस के फारूक अब्दुल्ला और कांग्रेस के उस समय के प्रधानमंत्री राजीव गांधी की।
मूक दर्शक रहीं सरकारें
जम्मू-कश्मीर में हालात लगातार बिगड़ रहे थे। 19 जनवरी,1990 को मस्जिदों से और दूसरी जगहों से घोषणा की गई कि अगर जिंदा रहना चाहते हो तो या तो धर्म परिवर्तन कर लो, नहीं तो अपनी बहन-बेटियों को छोड़कर यहां से चले जाओ। उसके बाद हिंसा का जो तांडव शुरू हुआ तो न तो राज्य सरकार ने कुछ किया और न केंद्र की सरकार ने किया। इस फिल्म के आने के बाद यह कहा जा रहा है कि उस समय तो केंद्र में वीपी सिंह की सरकार थी और राज्य के गवर्नर जगमोहन थे। जगमोहन बीजेपी के आदमी हैं और वीपी सिंह की सरकार को बीजेपी समर्थन दे रही थी। भाजपा ने क्या गलतियां की है उसकी बात बाद में करूंगा- लेकिन फिल्म देखने के बाद! अब आप घटनाक्रम देखिए- 19 जनवरी,1990 को हिंसा का तांडव होने वाला है इस बारे में फारूक अब्दुल्ला को अच्छी तरह से पता था। इससे एक दिन पहले 18 जनवरी को उन्होंने इस्तीफा दे दिया जिसकी कोई जरूरत नहीं थी। इस्तीफा देने के बाद इलाज कराने का बहाना बनाकर वे लंदन भाग गए। वहां से वे कई साल बाद लौट कर आए। डरे हुए थे लेकिन उनका डर बेवजह था। उनको कोई कुछ करने वाला नहीं था- न तो कांग्रेस पार्टी की सरकार और न उसके बाद आने वाली सरकारें। किसी की इतनी हिम्मत नहीं थी या यूं कहें कि किसी की इतनी इच्छाशक्ति नहीं थी क्योंकि जो भी पार्टियां सत्ता में रही हैं वे यह मानती हैं कि हिंदू के खिलाफ कुछ अत्याचार हो रहा है तो वह एक्सपेंडेबल है, उनकी बलि दी जा सकती है, उसको इग्नोर किया जा सकता है। इसी कारण फारूक अब्दुल्ला की हिम्मत हुई लौटकर भारत आने की।
जिम्मेदार कौन?
अब सवाल जगमोहन का। जगमोहन 26 अप्रैल,1984 से 11 जुलाई, 1989 तक गवर्नर रहे। उन्हें इंदिरा गांधी ने नियुक्त किया था। इंदिरा गांधी से जगमोहन का क्या संबंध था, उसे याद कीजिए इमरजेंसी के दिनों से। जामा मस्जिद के आसपास, तुर्कमान गेट की घटना बड़ी मशहूर है। वह सब जगमोहन ने कराई थी। जगमोहन का उस समय तक भाजपा से कोई लेना-देना नहीं था। 19 जनवरी,1990 को जिस दिन घटना हो रही थी उसी दिन जगमोहन को फिर से जम्मू-कश्मीर का गवर्नर बनाया गया। वीपी सिंह की सरकार ने बनाया। इस वजह से उन्हें फिर से नियुक्त किया कि वे पांच साल से ज्यादा जम्मू कश्मीर में गवर्नर रह चुके हैं और वहां की परिस्थिति से वाकिफ हैं। सवाल यह है कि उनको हटाया क्यों गया था और फिर उनको क्यों भेजा गया? 22 जनवरी को वे वहां पहुंचे। तब तक सब कुछ हो चुका था। सवाल यह है कि जो लोग कह रहे हैं कि वीपी सिंह सरकार को भारतीय जनता पार्टी का समर्थन था, उनकी जुबान पर यह कहने में ताला क्यों लग जाता है कि उस सरकार को तो लेफ्ट पार्टियों का भी समर्थन था। बीजेपी को आप दोष दे रहे हैं, बिल्कुल ठीक है- इसे एक बार सही मान लेता हूं। लेकिन लेफ्ट पार्टियों का भी तो समर्थन था, जनता दल की तो सरकार ही थी- तो फिर जिम्मेदारी किसकी थी? 18 जनवरी तक तो राज्य में कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार थी। उस समय तक जो हो रहा था उसके लिए कौन जिम्मेदार है? उसके लिए वीपी सिंह जिम्मेदार हैं, जगमोहन जिम्मेदार हैं या फिर बीजेपी जिम्मेदार है?
फिल्म में दिखाए तथ्यों से सच्चाई कहीं अधिक भयावह
यह फिल्म तथ्यात्मक रूप से सही है। तथ्यात्मक रूप से सही है की बात जब मैं कर रहा हूं तो इस आधार पर कह रहा हूं कि जम्मू-कश्मीर के रिटायर्ड पुलिस ऑफिसर एनसीएस अस्थाना कह चुके हैं कि फिल्म में जो दिखाया गया है, सच्चाई उससे और कहीं ज्यादा है। उनके मुताबिक, जिस तरह की घटनाओं का जिक्र फिल्म में किया गया है उससे और ज्यादा भयानक घटनाएं हुई हैं लेकिन वे बता नहीं सकते क्योंकि वे ऑफिशियल सीक्रेट एक्ट से बंधे हुए हैं। वे और उन जैसे जम्मू-कश्मीर के अन्य अधिकारी इस एक्ट से बंधे हुए हैं इसलिए वे चुप हैं। जम्मू-कश्मीर के पूर्व डीजीपी शेषपाल वैद्य का कहना है कि इस पूरी घटना के लिए सिर्फ और सिर्फ राजीव गांधी की सरकार जिम्मेदार थी। उनके मुताबिक, जम्मू-कश्मीर में 19 जनवरी,1990 को जो कुछ हुआ उसकी तैयारी जुलाई से दिसंबर 1989 के बीच में की गई थी। अब आप देखिए कि इतिहास के इतने बड़े नरसंहार पर फिल्म बनती है, फिल्म जगत में जो लोग आर्ट की तारीफ करते हैं, सही बातों की तारीफ करते हैं- उनमें सन्नाटा है। दरअसल, वे सही या आर्ट की बात नहीं करते- वे एक विचारधारा, एक एजेंडे को आगे बढ़ाने वाले लोग हैं। उनको लग रहा है कि यह उनके एजेंडे को सूट नहीं करता है इसलिए चुप हैं। जिन खान बंधुओं को भारत में डर लगता था वे इस फिल्म पर बोलने से डर रहे हैं। केवल आमिर खान ने एक सामान्य सी बात कही है कि यह फिल्म अच्छा कर रही है और इस फिल्म की टीम को मैं बधाई देता हूं। फिल्म के बारे में उन्होंने कुछ खास नहीं कहा।
सदी के महानायक अमिताभ बच्चन के मुंह पर ताला लग गया है। उनकी पत्नी ने लगा दिया है, बेटे ने लगा दिया है या बहू ने लगा दिया है या फिर शुद्ध रूप से आर्थिक लाभ की वजह से ताला लगा हुआ है। उम्र के इस पड़ाव पर आकर भी पैसे का जो लालच है, पैसे का डर है कि अगर बोलूंगा तो बॉलीवुड का जो इस्टैब्लिशमेंट है वह शायद उन्हें फिल्में ना दे, काम ना दे। इतना अकूत पैसा होने के बावजूद ऐसे लोग भी बोलने से डर रहे हैं। फिल्म पर कोई प्रतिक्रिया देने से डर रहे हैं। इस फिल्म के जरिये विवेक रंजन अग्निहोत्री ने पूरे बॉलीवुड को भी एक्सपोज किया है। यह जो पूरा तंत्र है वह भारत विरोधी तंत्र है। बॉलीवुड का जो ताना-बाना है वह एक धर्म के विरोध में और इस देश के विरोध में काम करता है। जो भी एजेंडा इस देश के खिलाफ जाता है उसके समर्थन में यह तंत्र खड़ा नजर आता है। इनको भारत में डर लगता है। खान बंधु बताएं या उनका समर्थन करने वाले बताएं कि मुसलमानों के लिए दुनिया का कौन सा ऐसा देश है जो भारत से ज्यादा सुरक्षित है।
गंगा-जमुनी तहजीब ढकोसला
यह जो बात चलाई जाती है गंगा-जमुनी तहजीब की उसकी इस फिल्म ने धज्जी उड़ाई है। इस देश में गंगा-जमुनी तहजीब नाम की कोई चीज नहीं है। यह सेक्युलर लोगों द्वारा बनाया गया एक ऐसा तंत्र है जो हिंदुओं को चुप कराने के लिए है, जो मुस्लिम तुष्टीकरण को सही साबित करने के लिए है। अगर इस देश में गंगा-जमुनी तहजीब होती तो इस देश का बंटवारा धर्म के आधार पर नहीं होता। आजादी से पहले, आजादी के दौरान बंटवारे के समय और उसके बाद सब कुछ देखते हुए इस तरह की बात बेमानी है। जम्मू-कश्मीर में हिंदुओं का नरसंहार, उनकी हत्या 1948 से लगातार होती रही है। आप किसी भी देश में क्या ऐसी कल्पना भी कर सकते हैं कि उस देश के बहुसंख्यक की धार्मिक आस्था, उनके जो धार्मिक स्थलों की यात्रा सुरक्षा बलों और सेना की भारी सुरक्षा प्रबंध में होती हो। मैं बात कर रहा हूं अमरनाथ यात्रा की। यह किसी और देश में हो सकता है क्या? सुरक्षा के भारी प्रबंध के बाद भी हमले होते हैं। वर्ष2000 में जब केंद्र में बीजेपी की सरकार थी और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे तब अमरनाथ यात्रियों पर हमला हुआ और 105 यात्रियों के मारे जाने का सरकारी आंकड़ा है। क्या बहुसंख्यकों को अपने एक पवित्र स्थल पर जाने की सजा मिल रही है? वह भी तब जब उस अमरनाथ यात्रा से वहां के स्थानीय लोग जिनमें बहुसंख्यक आबादी मुस्लिमों की है और जो गरीब मुसलमान हैं- उनकी साल भर की कमाई उन्हीं अमरनाथ तीर्थ यात्रियों से होती है। इसके बावजूद वहां संगीन के साये में हमेशा यह तीर्थ यात्रा होती है। इससे अंदाजा लगाइए कि डरा हुआ कौन है और डरा कौन रहा है?
छुपे तथ्य सामने लाए जाएं
मेरा कहना है कि जो कुछ 19 जनवरी,1990 को हुआ उसके लिए फारुक अब्दुल्ला के खिलाफ मुकदमा दर्ज होना चाहिए। ऑफिशियल सीक्रेट एक्ट के तहत जो तथ्य बाहर नहीं आ पा रहे हैं भारत सरकार को उसे सामने लाना चाहिए। उस समय इंटेलिजेंस की क्या रिपोर्ट थी, उस पर राज्य सरकार ने क्या किया, राजीव गांधी और केंद्र सरकार ने क्या किया, इस नरसंहार के बाद और उससे पहले राजीव गांधी और फारुक अब्दुल्ला के बीच क्या पत्र व्यवहार हुआ- यह सब बाहर आना चाहिए। पूरे सच को बाहर लाने के लिए जरूरी है कि सरकार ऑफिशियल सीक्रेट एक्ट में जितना संभव हो सके- खासकर इस मुद्दे को लेकर- उन तथ्यों को बाहर लाए क्योंकि अगर इसे ऐसे ही छोड़ दिया गया जैसा कि 30-32 सालों से छूटा हुआ था, तो इसके नतीजे और गंभीर होंगे। यह फिल्म इसलिए नहीं देखिए कि विवेक अग्निहोत्री ने बनाई है और सत्य पर आधारित है। इसलिए देखिए कि यह फिल्म अतीत का आईना तो दिखाती ही है, यह भी बताती है कि किस तरह से सच को दबाया गया। यह भविष्य का एक संकेत देती है कि अगर आप नहीं संभले और समझे तो आने वाले समय में क्या होने वाला है।