प्रदीप सिंह।
आजाद भारत के पहले हेट क्राइम में मारे गए थे करीब आठ हजार लोग, फिर भी बहुत कम चर्चा हुई, रिकॉर्ड भी उपलब्ध नहीं।
इन दिनों हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट, राजनीतिक क्षेत्र, सामाजिक क्षेत्र, सभी जगहों पर हेट स्पीच (नफरती भाषण)की काफी चर्चा है। कुछ दिनों पहले हरिद्वार में एक कथित संत सम्मेलन में जो बातें कही गई, उसके बाद रायपुर में जो कुछ कहा गया, इसके अलावा दिल्ली के दंगों के समय राजनेताओं के जो बयान आए उसे लेकर सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट को निर्देश दिया है कि उसकी सुनवाई कर जल्द से जल्द उस पर फैसला सुनाएं। हेट स्पीच किसी भी समाज के लिए अच्छी बात नहीं है। घृणा ऐसा भाव है जो किसी भी समाज, परिवार और देश में नहीं होना चाहिए। यह आदर्श स्थिति है लेकिन ऐसा होता नहीं है। और अगर हो तो कानून के मुताबिक जो भी कार्रवाई है वह होनी चाहिए।
आजाद भारत का पहला हेट क्राइम
लेकिन मैं यहां हेट स्पीच की नहीं बल्कि बात कर रहा हूं हेट क्राइम की यानीघृणा के आधार पर किया जाने वाला अपराध। क्या यह हेट स्पीच से भी ज्यादा नहीं है? किसी भी निर्दोष की जान आप इस आधार पर कैसे ले सकते हैं कि आप उससे घृणा करते हैं, आप उससे सहमत नहीं हैं या उसके कामकाज का तरीका आपको पसंद नहीं है।30 जनवरी,1948 को महात्मा गांधी की हत्या हुई थी। यह बात सब लोग जानते हैं। उसके बाद क्या-क्या हुआ यह भी सब लोग जानते हैं। लेकिन उस दौरान ऐसी भी घटनाएं हुईं जिसे दबा दिया गया। उस समय की जवाहरलाल नेहरू सरकार ने दबा दिया। अफसोस की बात यह है कि सरदार पटेल के गृह मंत्री रहते हुए ऐसा हुआ। इसका कारण क्या था मुझे नहीं मालूम। आजादी के दौरान, बंटवारे के समय जो नरसंहार हुआ, खून-खराबा हुआ उसका इतिहास में भरपूर उल्लेख मिलता है लेकिन आजादी के बाद की सबसे बड़ी हेट क्राइम या आजादी के बाद के सबसे बड़ा नरसंहार का जिक्र मीडिया में, शोध में, इतिहास में कहीं दिखाई नहीं देता। उसका कोई रिकॉर्ड नहीं मिलता।1948 में 30 जनवरी की शाम गांधी जी की हत्या हुई। उसके तीन घंटे के अंदर महाराष्ट्र के पुणे में 50 मराठी ब्राह्मणों की हत्या कर दी गई। मुंबई में 15 मराठी ब्राह्मणों की हत्या हुई। उसके बाद हिंसा का यह तांडव कई दिनों तक होता रहा। उसके बारे में हमें जो पता चलता है वह प्रत्यक्षदर्शियों, भुक्त भोगियों की दास्तान के जरिये या बाहर से जो शोध हुए हैं उसके जरिये। इसके अलावा भारत सरकार के रिकॉर्ड में जो है वह दिखाया नहीं जाएगा या ज्यादातर है भी नहीं। इस मामले में कितने लोगों को सजा हुई इसका कोई रिकॉर्ड है? कितने लोगों के खिलाफ एफआईआर हुई इसका कोई रिकॉर्ड है क्या?
गोडसे सरनेम वालों को पहले बनाया निशाना
मराठी ब्राह्मणों में पहले खोजा गया गोडसे सरनेम के लोगों को और उनकी हत्या की गई। गोडसे उपनाम के मराठी ब्राह्मण कोंकणस्थ ब्राह्मण होते हैं। उसके बाद देशस्थ मराठी ब्राह्मणों की हत्या की गई। उसके बाद जो अन्य ब्राह्मण थे उन सबकी हत्या का प्रयास हुआ।इस दौरान जो बच गए वे दो कारणों से बचे। या तो वे उस समय अपने घर में नहीं थे या प्रदेश छोड़कर भाग चुके थे। आप अंदाजा लगाइए कि कोई भी हिंसक भीड़ घूम रही हो तो उसे कैसे पता चलेगा कि कौन सा घर मराठी ब्राह्मण का है या किसी और जाति के लोगों का।तो जातीय हिंसा का भी सबसे बड़ा तांडव 1948 में हुआ 30 जनवरी के बाद।इस पर आपको कहीं भी, महाराष्ट्र में या महाराष्ट्र से बाहर देश के किसी राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दल के नेता का कोई बयान मिलता है क्या जिसने इस नरसंहार की निंदा की हो या अफसोस जाहिर किया हो। पुणे के बाद नागपुर में सबसे ज्यादा हिंसा हुई। नागपुर के अलावा महाराष्ट्र के दक्षिणी इलाकों में भी काफी हिंसा हुई। वहां मराठी ब्राह्मणों की फैक्ट्रियां थी, दफ्तर थे या फिर उनके जो दूसरे प्रतिष्ठान थे, दुकानें थी सब जला दिए गए। कोई बचाने वाला नहीं था। कोई पुलिस रोकने वाली नहीं थी। यह सब कुछ बेरोकटोक होता रहा।
कहीं कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं
जबलपुर से उस समय एक अखबार छपता था जिसका नाम था उषाकाल। उसने अपने 5 फरवरी, 1948 के अंक में एक खबर छापी कि महाराष्ट्र के सतारा जिले में 400 गांवों में मराठी ब्राह्मणों के घर जला दिए गए।हिंसा में कितने लोग मरे, कितने भाग गए, कितने बचे इसका कोई लेखा-जोखा नहीं है।तब से लेकर आज 2022 तक इस बारे में सरकारी स्तर पर कोई प्रयास नहीं हुआ। इसका कम से कम एक रिकॉर्ड तैयार किया जाना चाहिए कि उस समय कितने लोगों ने पलायन किया, कितने लोग मारे गए, कितने लोगों के घर जलाए गए। इसकी चर्चा शुरू हुई नरसंहार के 20 साल बाद जब एक ब्रिटिश पत्रकार मौरीन पैटरसन शोध के लिए आईं। गांधी जी की हत्या के बाद की परिस्थितियों के बारे में शोध करने के लिए वह हिंदुस्तान आई थीं। वह कहती हैं कि वह महाराष्ट्र के सरकारी कार्यालयों में जहां भी गई हर जगह सरकारी अधिकारियों ने रिकॉर्ड दिखाने से मना कर दिया।
हिंसा करने वालों में कांग्रेसी सबसे आगे
आज जो लोग गोदी मीडिया की बात करते हैं, यह कहते हैं कि सरकार ने उन्हें खरीद लिया है, सरकार नियंत्रित मीडिया है, सरकार की गोद में बैठा है पूरा मीडिया, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जो चाहते हैं वही खबर चलती है जो नहीं चाहते हैं वह नहीं चलती है, उनके विपक्षियों के बारे में नहीं लिखा जाता, उनके खिलाफ उनकी आलोचना में नहीं लिखा जाता, नहीं दिखाया जाता है, उन लोगों से मैं सवाल पूछ रहा हूं कि 1948 के इस नरसंहार का जिक्र अखबारों में क्यों नहीं मिलता? क्यों अखबारों ने ये खबरें दबा दी? उस समय तो नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री नहीं थे। आपको इससे भी ज्यादा आश्चर्य होगा कि हिंसा करने वाले कोई और नहीं, बल्कि अहिंसा के वे पुजारी थे जिन्होंने अपना पूरा जीवन अहिंसा का पाठ पढ़ाने में लगा दिया। महात्मा गांधी के अनुयायी सबसे आगे थे और इसमें कांग्रेस के लोग सबसे आगे थे। यह मेरा आरोप नहीं है। यह मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत द्वारिका प्रसाद मिश्र का आरोप है। उन्होंने अपनी पुस्तक में इसका जिक्र किया है। उन्होंने इस बात पर अफसोस जाहिर किया कि इसमें सबसे आगे कांग्रेस के लोग थे। कांग्रेस से सहानुभूति रखने वाले,कांग्रेस के कार्यकर्ता और कई तो कांग्रेस के पदाधिकारी भी थे जिन्होंने मराठी ब्राह्मणों की हत्या में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। वे अहिंसा के पुजारी के अनुयायी थे जिन्होंने हिंसा का यह तांडव किया।
किसी के खिलाफ नहीं हुई कार्रवाई
किसी सरकार ने उनके खिलाफ कोई कार्रवाई करने की जरूरत नहीं समझी। मैंने पहले भी आपको बताया था कि गांधीजी की हत्या के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लोगों को फंसाने के लिए, उनको जेल भेजकर प्रताड़ित करने की कोशिश सरकारी स्तर पर बड़े पैमाने पर हुई। गृह मंत्रालय और दूसरे मंत्रालय इसमें लगे हुए थे। मैंने बताया था कि एक स्टेनोग्राफर को किस तरीके से परेशान किया गया था, किस तरह से उसका पूरा जीवन नर्क बना दिया गया। उसको सिर्फ इसलिए जेल भेज दिया गया कि उसके घर के बाहर सार्वजनिक जगह पर कोई कार्यक्रम हो रहा था। लेकिन किसी हत्यारे के खिलाफ कोई मुकदमा चला क्या? नहीं चला तो क्यों नहीं चला? उस समय की अदालतें क्या कर रही थी? किसी हाई कोर्ट ने या सुप्रीम कोर्ट ने क्यों स्वतः संज्ञान नहीं लिया? उस समय नहीं लिया, दो महीने , छह महीने , एक साल , दो साल ,पांच साल या 10 साल बाद कभी तो कोई इस पर विचार करता।क्या मराठी ब्राह्मणों की जिंदगी का कोई मोल नहीं था जैसे कश्मीरी ब्राह्मणों की जिंदगी का कोई मोल नहीं था।किस तरह से उनको जम्मू कश्मीर से निकाला गया, उनकी हत्या की गई, बलात्कार किया गया, घर जला दिए गए, घर पर कब्जा कर लिया गया। मेरी पीढ़ी और मेरे बाद की पीढ़ी ने तो 1948 नहीं देखा लेकिन हममें से ज्यादातर ने (युवाओं को अगर छोड़ दें तो)1984 का सिखों का नरसंहार देखा है।1984 के सिख नरसंहार का पैटर्न और 1948 में मराठी ब्राह्मणों के साथ जो हुआ उसका पैटर्न देखें तो उसमें आपको एकरूपता नजर आएगी। एक ही तरह से दोनों नरसंहार हुए। उस समय भी मतदाता सूची लेकर घरों के नंबर खोज कर, नाम देखकर सरनेम के आधार पर हमला किया गया।1984 में भी करीब साढ़े तीनहजार लोगों के मारे जाने के बावजूद, जिनमें से ज्यादातर लोगों को जिंदा जलाया गया था, उस समय की सरकार ने एक एफआईआर नहीं लिखी, पुलिस ने कहीं लाठी नहीं चलाई। और यह सब होता रहा अहिंसावादी पार्टी के नाम पर।
कहां गई गांधी की शिक्षा
कह सकते हैं कि 1984 में लोग गांधी की शिक्षा को लोग भूल गए थे लेकिन1948 में तो नहीं भूले थे। उस समय तो गांधीजी के विचार, उनका प्रभाव, उनका ज्यादा असर था। उस समय क्या हुआ? वह शिक्षा कहां चली गई।उस नरसंहार की ज्यादा चर्चा इसलिए भी नहीं हुई कि जो पीड़ित थे उन्होंने चुपचाप उस अत्याचार को बर्दाश्त कर लिया। उन्होंने कोई शोर नहीं मचाया। उन्होंने कोई न्याय की मांग नहीं की इसलिए कोई न्याय देने के लिए सामने भी नहीं आया।आज जो लोग जवाहरलाल नेहरू को सबसे बड़ा डेमोक्रेट बताते हैं, उनके जो अनुयायी उनको महिमामंडित करते हैं, बताने की कोशिश करते हैं कि उनसे बड़ा डेमोक्रेट आजादी के बाद भारत में कोई नहीं हुआ, उन लोगों से भी सवाल है कि इस नरसंहार पर नेहरू जी क्या बोले थे? कहा जाता है कि उस समय मीडिया पर सरकार का भारी दबाव था कि इस बारे में खबरें ज्यादा बाहर नहीं आनी चाहिए। जितनी ज्यादा से ज्यादा हो सके खबरों को दबा दिया जाना चाहिए।जो लोग नरेंद्र मोदी को दिन-रात खुलेआम गाली देते हैं और निश्चिंत होकर घूमते हैं वे मोदी को डिक्टेटर बताते हैं। आज तक 2002 के गुजरात दंगे का जिक्र होता है। गुजरात दंगे में पुलिस फायरिंग में कितने लोग मारे गए, सेना कब बुलाई गई इन सबका ब्योरा आपको पता है। इसे दोहराने की जरूरत नहीं है। फिर भी नरेंद्र मोदी को आज तक दोषी ठहराया जाता है।1948 में महाराष्ट्र में कभी कोई सेना बुलाई गई क्या? इतने बड़े पैमाने पर हिंसा हो रही थी, लोगों के घर, दफ्तर,फैक्ट्रियां जलाई जा रही थी, लोगों को मारा जा रहा था उसकी खबर छपी क्या?
वीर सावरकर के छोटे भाई नारायण सावरकर के घर पर हमला हुआ। उनको पत्थरों से मारा गया। बुरी तरह घायल अवस्था में उनको मरा हुआ समझकर हमलावर चले गए। कुछ समय बाद उनकी मौत हो गई।उस समय तरुण भारत अखबार निकलता था जिसके संपादक थे गजानन त्रयंबक मधखोलकर। उनका घर जला दिया गया। वह किसी तरह से जीवित बच गए। बाद में उन्होंने एक किताब लिखी डायरी के रूप में जिसमें पूरी घटना का जिक्र किया। मराठी में लिखी उस किताब का नाम है“एका निर्वासिताचीस स्टोरी”। उसमें पूरी घटना का ब्योरेवार जिक्र किया गया है।ब्रिटिश पत्रकार मौरीन पैटरसन की किताब है “गांधी एंड गोडसे”। उसमें इस नरसंहार के बारे काफी जिक्र है। एक और लेखक हैं सूरज कुमार। उनकी भी एक किताब है इस मुद्दे पर “1948 -ब्राह्मण जिनोसाइड ऑफ महाराष्ट्र”।इनके अलावा इस मुद्दे पर 12 किताबें हैं, कुछ लेख हैं और कुछ खबरें हैं।
छह-आठ हजार की हुई हत्या
एक अनुमान के मुताबिक उस नरसंहार में छह से आठ हजार मराठी ब्राह्मणों की हत्या हुई जिसके लिए किसी को जिम्मेदार नहीं ठहराया गया। आप कल्पना कर सकते हैं कि एक आजाद देश में इतने बड़े पैमाने पर लोगों की हिंसा हो, जातीय हिंसा का यह हेट क्राइम था। आजादी के बाद का पहला और सबसे बड़ा हेट क्राइम था जिसका आज कोई जिक्र नहीं करता।जबकि एक अखलाक के मारे जाने पर इतना हंगामा देश-विदेश तक हुआ। कहा गया कि यह मॉब लिंचिंग थी। मॉब लिंचिंग के दो बहुत बड़े उदाहरण हमारे सामने हैं 1948 और 1984 जिसको अहिंसक गांधीवादियों ने अंजाम दिया।उनका जवाब कौन देगा?उनकी जिम्मेदारी कौन लेगा? जो कांग्रेसी इस हिंसा में शामिल थे उनमें से बहुत लोगोंको आगे जाकर विधानसभा के, लोकसभा के टिकट मिले। वे विधायक, सांसद व मंत्री बने। वही पैटर्न 1984 में था।1984 में भी जो कांग्रेसी उस हिंसा में शामिल थे उनको कांग्रेस ने टिकट दिया, पद दिया, राज्यसभा, लोकसभा में भेजा। इस तरह की हिंसा पर अगर आप चुपचाप रहेंगे तो भविष्य में कोई तो कभी उठेगा जो इसका हिसाब मांगेगा, जो इसका न्याय करेगा। मुझे लगता है कि मौजूदा भारत सरकार को इस पर एक आयोग का गठन करना चाहिए। यह आयोग इसलिए नहीं बनाया जाए कि जिन्होंने इसे अंजाम दिया उनसे बदला लिया जाए, बल्कि यह जानने के लिए, उन कारणों का पता चले, उन प्रवृत्तियों का पता चले जिससे भविष्य में ऐसा न हो।1948 में ऐसा किया गया होता तो शायद 1984 नहीं होता।
1984 में किसी हाईकोर्ट ने, सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेकर कोई मामला दर्ज नहीं किया, कोई सुनवाई नहीं की।इसके लिए देश की अदालतें भी उतनी ही जिम्मेदार हैं, कठघरे में वह भी हैं।1948 के नरसंहार को देखें तो वह 1984 के नरसंहार से भी बड़ा था। फिर भी सब कुछ सामान्य ढंग से चलता रहा। महाराष्ट्र में मराठी ब्राह्मणों ने चुपचाप इसको स्वीकार कर लिया। कश्मीर में कश्मीरी ब्राह्मणों ने चुपचाप स्वीकार कर लिया। दिल्ली और देश के दूसरे हिस्सों में सिखों ने स्वीकार कर लिया। हेट क्राइम के लिए जो लोग जिम्मेदार हैं,जो प्रवृत्तियां हैं, उनको अगर रोकना है तो 1948 और 1984 दोनों का क्लोजर होना चाहिए, बिना इसके नहीं होगा।