मुलायम सिंह यादव (22 नवंबर 1939 – 10 अक्टूबर 2022 )
प्रदीप सिंह।
“जिसका जलवा कायम है उसका नाम मुलायम है”, यह नारा उत्तर प्रदेश के गांव-गलियों में दशकों तक गूंजता रहा। जिसके नाम पर यह नारा लगता रहा वह मुलायम सिंह यादव अब इस दुनिया में नहीं रहे। उनको धरती-पुत्र कहा जाता था। उनके करीबी, उनकी पार्टी के कार्यकर्ता और समर्थक उन्हें नेता जी के नाम से बुलाते थे। वह सेल्फ मेड मैन थे। वह किसी ऐसे परिवार से नहीं थे जिनको राजनीति पारिवारिक विरासत में मिली हो। गांव-गांव साइकिल से और पैदल घूम कर उन्होंने अपना जनाधार तैयार किया था। डॉ. राममनोहर लोहिया के प्रभाव में आकर राजनीति में आए और चौधरी चरण सिंह ने उनको आगे बढ़ाया। चौधरी चरण सिंह ने बहुत जल्दी ही पहचान लिया था कि उनमें नेतृत्व का गुण है। यही वजह रही कि उन्होंने अपने सबसे करीबी और सजातीय चौधरी राजेंद्र सिंह को हटाकर मुलायम सिंह को अपनी पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया था। इसके बाद मुलायम ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
बात मुलायम सिंह की अच्छाइयों की

उनके निधन पर मैं उनके जीवन के नकारात्मक पक्ष की नहीं, बल्कि उनकी खूबियों की बात करूंगा। हमारी संस्कृति की, हमारे समाज की यह आम धारणा है कि किसी की तारीफ पीठ पीछे करनी चाहिए और आलोचना उसके सामने करनी चाहिए। जब वह सामने नहीं हो तो आलोचना का कोई औचित्य नहीं बनता है। कम से कम इस अवसर पर तो नहीं ही बनता है। इसलिए मैं बात करूंगा मुलायम सिंह की अच्छाइयों की। हर व्यक्ति में अच्छाई और बुराई दोनों होती है। यह आप पर निर्भर करता है कि आप उसे कैसे देखते हैं। मुलायम सिंह का मेरी नजर में सबसे बड़ा गुण अगर कोई था तो वह था परस्पर संवाद का। किसी और क्षेत्रीय नेता में मुझे यह दिखाई नहीं दिया। लालू प्रसाद यादव भले ही उनसे ज्यादा समय तक सत्ता में रहे हों- भले ही आज बिहार की राजनीति में उनका और उनकी पार्टी का जितना बड़ा जनाधार है उतना बड़ा जनाधार समाजवादी पार्टी और मुलायम सिंह का न रह गया हो- भले ही उनके पूरे राजनीतिक जीवन में उनकी पार्टी को सिर्फ एक बार 2012 में पूर्ण बहुमत मिला हो… लेकिन दोनों में बड़ा बुनियादी फर्क है। दोनों जातिवाद और संप्रदायवाद की राजनीति करते रहे हों, दोनों का जनाधार यादव-मुस्लिम गठजोड़ रहा हो- अपनी जाति के लोगों को बढ़ाना एक चीज होती है और वह हर नेता करता है- लेकिन मुलायम सिंह निजी व्यवहार में कभी जातिवादी नहीं थे। इसलिए उनका परस्पर संवाद किसी वर्ग से कभी टूटा नहीं, चाहे उनका राजनीतिक समर्थक हो चाहे घोर विरोधी हो। यह बहुत कम लोगों को पता होगा कि उनके राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पदाधिकारियों से जैसे संबंध थे उस तरह का संबंध किसी और नेता का नहीं रहा, चाहे वो क्षेत्रीय दलों के हों या राष्ट्रीय दल कांग्रेस के। इसके बावजूद कि दोनों सार्वजनिक रूप से विरोधी ही नहीं, एक तरह से दुश्मन जैसे थे।

अयोध्या आंदोलन को दी ताकत
अयोध्या आंदोलन को ताकत देने में मुलायम सिंह की बड़ी भूमिका थी। यह सुनकर आपको आश्चर्य होगा- हो सकता है आप इससे सहमत भी न हों- लेकिन अगर अयोध्या आंदोलन का इतनी निर्ममता से मुलायम सिंह ने दमन न किया होता तो शायद उस आंदोलन की इतनी बड़ी स्वीकारोक्ति न बनी होती। उन्होंने 1990 में निहत्थे कारसेवकों पर जो गोली चलवाई उसने उसका आधार तैयार कर दिया जो 1992 में हुआ। उन्होंने निहत्थों पर गोली चलवा कर अपना वोटबैंक तो मजबूत किया ही, उसके साथ ही भारतीय जनता पार्टी का भी वोट बैंक मजबूत किया। अक्टूबर 1990 में कारसेवकों के अयोध्या पहुंचने के खिलाफ इतना बड़ा दमन चक्र न चलाया गया होता तो 1991 में उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की पूर्ण बहुमत की सरकार नहीं बन पाती। मुलायम सिंह एक बड़ी राजनीतिक विरासत छोड़कर गए हैं। वह विरासत नहीं जिसके हकदार अखिलेश यादव बने। मैं उस विरासत की बात कर रहा हूं जिसमें उन्होंने अपने जीवन काल में गैर-सवर्ण नेताओं को बढ़ावा दिया। यादव नेताओं के अलावा उन्होंने पिछड़ा वर्ग के अलग-अलग जातियों के नेताओं को आगे बढ़ाया। यह सब करते हुए उन्होंने इस बात का भी खास ख्याल रखा कि किसी का कद इतना बड़ा न होने पाए कि उनके लिए चुनौती बन जाए। इसलिए सबसे करीबी दर्शन सिंह यादव- या फिर राम नरेश यादव जिन्हें वो कभी पसंद नहीं करते थे – उन्हें बढ़ावा दिया। राम नरेश यादव 1977 में उत्तर प्रदेश में जनता पार्टी की सरकार के मुख्यमंत्री बने। राम नरेश यादव को उन्होंने पसंद नहीं किया और उन्हें मजबूर होकर इस खेमे से निकलकर कांग्रेस में जाना पड़ा। दर्शन सिंह यादव को भी कभी एक सीमा के बाद उन्होंने बढ़ने नहीं दिया। इस तरह उदाहरण उत्तर प्रदेश में आपको तमाम मिल जाएंगे कि उन्होंने कैसे नेताओं को बढ़ाया। इसके अलावा सवर्णों में भी उन्होंने अलग-अलग जाति के नेताओं को बढ़ाने कीकोशिश की। यह अलग बात है कि उनकी संख्या बहुत सीमित है।
भाजपा ने सरकार बनवाई और भाजपा को ही हरा दिया

मैंने अयोध्या आंदोलन की बात की तो यह भी याद रखना चाहिए कि शायद इसी का असर था- या भाजपा की क्या राजनीति थी मुझे तो कभी समझ में नहीं आई जो उसने 2003 में किया। तब केंद्र में भाजपा की सरकार थी और उत्तर प्रदेश में भाजपा और बहुजन समाज पार्टी की सरकार चल रही थी। भाजपा ने बसपा की सरकार गिरवा कर मुलायम सिंह की सरकार बनवा दी। उस सरकार को बनवाने में दो लोगों की प्रमुख भूमिका थी- मुलायम सिंह की ओर से अमर सिंह और भाजपा की ओर से प्रमोद महाजन की। उस समय केसरीनाथ त्रिपाठी उत्तर प्रदेश विधानसभा के स्पीकर थे जो बाद में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल बने। मुलायम सिंह की सरकार रहते हुए भी वह स्पीकर बने रहे क्योंकि बसपा में जो तोड़फोड़ मुलायम सिंह ने करवाई उसको उन्होंने मान्यता दे दी और ऐसा केस बनाया कि सुप्रीम कोर्ट तक से उसको मान्यता मिली और उस फैसले को सही ठहराया गया। भाजपा ने 2003 में जो काम किया उसका कोई प्रतिफल मुलायम सिंह ने 2004 के लोकसभा चुनाव में नहीं दिया, बल्कि उसका उल्टा किया। हिंदुत्व के प्रतीक की जो दो सीटें थीं अयोध्या (उस समय फैजाबाद) और इलाहाबाद दोनों जगहों से भाजपा उम्मीदवारों को हरवाने का काम किया। इलाहाबाद से मुरली मनोहर जोशी और फैजाबाद से विनय कटियार को हरवाया। लोकसभा में मुलायम की पार्टी की 35 सीटें आई। उनकी 35 सीटें सबसे बड़ी बाधा बनी भाजपा के लिए और केंद्र में भाजपा की फिर से सरकार न बन सकी। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार फिर से बन गई होती अगर उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह ने भाजपा को बुरी तरह से हराया न होता। भाजपा को केवल 10 सीटें मिली। 2004 में लोकसभा चुनाव का नतीजा आया तो कांग्रेस को 145 और बीजेपी को 138 सीटें मिली। दोनों में सिर्फ 7 सीटों का अंतर था। इससे आप उत्तर प्रदेश के नतीजों के प्रभाव का अंदाजा लगा सकते हैं।
जमीनी राजनीति के मास्टर

मुलायम सिंह ने हमेशा जमीन की राजनीति की। जो दोस्त है वह अच्छा है या बुरा है इससे उनको कोई मतलब नहीं रहा। जो दोस्त है उसकी मदद करना है उसके साथ रहना है। उनकी नजर में राजनीतिक विरोधी कभी दुश्मन का दर्जा प्राप्त नहीं कर पाया। आप चाहे उनके कितने भी बड़े राजनीतिक विरोधी हैं उनके दरवाजे आपके लिए हमेशा खुले हैं। वह आपसे बातचीत करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। 1960 के दशक में युवावस्था में उन्होंने इटावा के एक नामी पहलवान को चित कर दिया था। तब से उनका कुश्ती के क्षेत्र में नाम हो गया था। उनका बड़ा मशहूर दांव था चरखा दांव जिसका इस्तेमाल वो राजनीति में भी करते थे। वह कभी अंदाजा नहीं लगने देते थे कि अगला कदम क्या होगा। 1990 में जब रथ यात्रा के दौरान लालकृष्ण आडवाणी की बिहार में गिरफ्तारी हो गई और भाजपा ने वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया तो उत्तर प्रदेश में भी सरकार गिरने की नौबत आ गई। उस समय कांग्रेस पार्टी के समर्थन से मुलायम सिंह की सरकार बच सकती थी। राजीव गांधी ने सीताराम केसरी को लखनऊ भेजा यह पता करने के लिए कि क्या मुलायम को समर्थन देना चाहिए। दिल्ली लौट कर केसरी ने अपनी रिपोर्ट दी कि समर्थन देने में कोई हर्ज नहीं है, इससे फायदा होगा। मुलायम सिंह डॉ. लोहिया के अनुयायी थे और इस मामले में उन्होंने उनकी गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति का अनुसरण किया। आजादी के बाद डॉ. लोहिया कांग्रेस से निकले और अलग पार्टी बनाई। तब से उन्होंने गैर-कांग्रेसवाद को बढ़ावा दिया। कांग्रेस का साथ नहीं लेना है इसको मुलायम ने अपने पूरे जीवन में निभाया। उनके बाकी समाजवादी साथी इसे नहीं निभा पाए। उन्होंने गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति से कभी समझौता नहीं किया। राजीव गांधी ने खबर दे दी कि हम आपका समर्थन करने के लिए तैयार हैं। मुलायम सिंह दिल्ली से बात करके आए और सुबह 5 बजे उठकर सीधे राजभवन गए और राज्यपाल को इस्तीफा देने के साथ ही विधानसभा भंग करने की सिफारिश कर दी। कांग्रेस के समर्थन से उन्होंने सरकार नहीं चलाई। यह थे मुलायम सिंह यादव।
कांग्रेस को समर्थन से इन्कार
दूसरा उदाहरण 1999 का है। आपको याद होगा जब सोनिया गांधी 272 सांसदों की सूची लेकर राष्ट्रपति भवन पहुंची थी। उन्होंने राष्ट्रपति से कहा कि हमारे पास 272 सांसदों का समर्थन है, राष्ट्रपति ने उन्हें दो दिन का समय दिया यह साबित करने के लिए। उधर वह राष्ट्रपति भवन से बाहर निकलीं और इधर मुलायम सिंह लालकृष्ण आडवाणी से बातचीत कर रहे थे। मुलायम सिंह और अर्जुन सिंह की बातचीत हुई थी जिसमें यह तय हुआ था कि मुलायम सिंह कांग्रेस का समर्थन करेंगे लेकिन उन्हें कांग्रेस को समर्थन देना या लेना दोनों कभी रास नहीं आया। इसलिए उन्होंने न कभी समर्थन दिया और न लिया। उस समय उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी से एक वादा लिया कि अगर वे कांग्रेस को समर्थन नहीं देते हैं तो उस हालत में भाजपा फिर से सरकार बनाने की कोशिश नहीं करेगी, बल्कि मध्यावधि चुनाव करवाएगी। आडवाणी इसके लिए तैयार हो गए। सोनिया गांधी राष्ट्रपति भवन से बाहर निकलीं और इधर प्रेस कॉन्फ्रेंस में मुलायम सिंह ने बयान दे दिया कि हम कांग्रेस के साथ नहीं हैं। वह पहला प्रयास था जब सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने के सपने को मुलायम सिंह ने चकनाचूर कर दिया। उनकी इस भीष्म प्रतिज्ञा को उनके बेटे ने तोड़ दिया। जिस मुलायम का जलवा कायम था उस मुलायम का जलवा कोई और खत्म नहीं कर पाया, बल्कि उनके बेटे ने ही खत्म कर दिया। 2017 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने कांग्रेस पार्टी के साथ गठबंधन किया। मुलायम इसके खिलाफ थे। उनका कहना था कि इसका नुकसान होगा और वही हुआ। मगर अखिलेश यादव को वह बात समझ में नहीं आई। अखिलेश यादव ने 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा से समझौता कर लिया। उस समय भी मुलायम सिंह इसके खिलाफ थे और कहा कि नुकसान होगा। फिर नुकसान हुआ।
जीते जी खत्म हो गई उनकी राजनीतिक शैली
कुल मिलाकर मुलायम सिंह ने अपनी जो विरासत खड़ी की थी अलग-अलग जातियों से, वर्गों से नेतृत्व खड़ा करने की या अपनी एक राजनीतिक शैली विकसित की थी उसको उन्होंने अपने जीवन काल में ही खत्म होते हुए देखा। उन्होंने देखा कि जनवरी 2017 में सम्मेलन बुलाकर उनके बेटे ने उनको ही पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से हटा दिया। वह बेटा जिसको उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन में पहली बार पूर्ण बहुमत मिलने के बाद मुख्यमंत्री की गद्दी सौंपी थी। उन्होंने एक बार कहा भी कि देश में कोई ऐसा नेता नहीं है जिसने अपने जीवित रहते हुए अपने बेटे को गद्दी सौंप दी लेकिन मैंने ऐसा किया। अगर उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा इतनी प्रबल होती तो वह अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री न बनाते। मुलायम ने ऐसा तब किया जब वो अपनी राजनीति के शिखर पर थे और जब उनकी पार्टी ने सबसे अच्छा प्रदर्शन किया था। उनके जैसा यारबाज जो दोस्तों का दोस्त हो, जो अपने राजनीतिक विरोधी को भी अपना दोस्त माने और हर समय बातचीत के लिए तैयार रहे, ये मुलायम सिंह ही थे जो संसद में खड़े होकर यह बोल सकते थे कि मैं चाहता हूं कि 2019 में भी नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनें। जबकि मोदी उनके घोर राजनीतिक विरोधी थे और उनके खिलाफ चुनाव लड़ रहे थे। उन्होंने किसी बंद कमरे की बातचीत में नहीं, बल्कि संसद में खड़े होकर यह कहा। पूरा विपक्ष भौंचक्का होकर देख रहा था कि वह क्या बोल रहे हैं लेकिन मुलायम सिंह पर कोई फर्क नहीं पड़ा। उनको लग रहा था कि अगर ऐसा होता है तो यह देश हित में है।
राष्ट्रहित से समझौता नहीं

ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि उन्होंने भले ही परिवारवाद, जातिवाद की राजनीति की, भ्रष्टाचार को पाला-पोसा और कभी गलत नहीं माना- लेकिन उन्होंने राष्ट्रवाद से कभी समझौता नहीं किया। उनका जो संघ से नाता था वह इसी कारण था। रक्षा मंत्री रहते हुए उन्होंने जो कुछ किया, चीन के प्रति उनका जो रवैया था और जब भी राष्ट्रीय सुरक्षा या राष्ट्रीय हित का मामला आया उससे उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। चाहे उससे उनको राजनीतिक नुकसान हो रहा हो या फायदा हो रहा हो, यह नहीं देखा। मुलायम सिंह की जब बात करेंगे तो वह अपनी तरह के अकेले ऐसे क्षेत्रीय नेता हैं जिनमें तमाम खामियों के बावजूद वह सबसे बड़ी खूबी रही जो डेमोक्रेसी में होनी चाहिए। वह गांव-गांव में वे कार्यकर्ताओं को नाम से, चेहरे से पहचानते थे। यह गुण धीरे-धीरे आज के नेताओं में खत्म होता जा रहा है क्योंकि वे संपर्क में नहीं रहते हैं, क्षेत्र में नहीं जाते हैं। सत्ता में हों तब भी और जब सत्ता से बाहर हों तो और ज्यादा उनके दौरे शुरू हो जाते थे। गांव, जिला, कस्बा, शहर, ब्लॉक का लगातार दौरा करते रहते थे। यही वजह है कि इतने लंबे समय तक अपने दमखम पर राजनीति में कायम रहे। मुलायम का जलवा भले ही उनके अपने लोगों ने कायम न रहने दिया हो लेकिन मुलायम का नाम धर्मनिरपेक्षता की राजनीति में जरूर कायम रहेगा। यह कोई मामूली बात नहीं है कि उत्तर प्रदेश का 17-18 फीसदी मुसलमान किसी मुसलमान को नहीं बल्कि मुलायम सिंह को अपना नेता मानता था। यह क्षमता उत्तर प्रदेश मेंउनके समकालीन किसी और नेता में नहीं थी। मुसलमानों का कोई इतना बड़ा नेता नहीं बन पाया जितने बड़े मुलायम सिंह थे। इसलिए जब उनकी खामियां खोजने की कोशिश करें तो यह जरूर देखना चाहिए कि उनमें क्या खूबियां थी।
मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद देश में, खासतौर से उत्तर प्रदेश और बिहार में जैसा माहौल बना था, उस माहौल को शांत करने में उन्होंने बड़ी भूमिका निभाई जो लालू प्रसाद बिहार में नहीं कर पाए। मंडल को लेकर उत्तर प्रदेश में वैसा माहौल कभी नहीं बना जैसा बिहार में था। मुलायम सिंह अगर ऐसा कर पाए तो उसकी सबसे बड़ी वजह थी उनकी परस्पर संवाद की कला। उसने ऐसा होने नहीं दिया। किसी के प्रति मन में कटुता न होना, बदले की भावना न होना उसकी वजह से ऐसा हो पाया। आप हमारे वैचारिक विरोधी हैं इसलिए हमारे दुश्मन हैं यह राजनीति मुलायम सिंह की कभी नहीं रही। ऐसे मुलायम सिंह यादव को मेरी श्रद्धांजलि… क्योंकि ऐसे नेता रोज-रोज पैदा नहीं होते।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अख़बार’ न्यूज़ पोर्टल एवं यूट्यूब चैनल के संपादक हैं)



