प्रधानमंत्री की भविष्यवाणी को कौन सच साबित करेगा

प्रदीप सिंह। 

मैं एक बात कई बार कह चुका हूं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सामान्य परिस्थितियों और सामान्य दिनों में भी जो बात बोलते हैं, उस पर ध्यान देना चाहिए। कई बार वे उन्हीं बातों के बीच में एक ऐसी बात बोल जाते हैं जो भविष्य में होने वाले वाली घटना का संकेत होती हैं। वैसे हम लोगों में 11 साल से धारणा बनी हुई है कि नरेंद्र मोदी चौंकाते हैं। मैं कहता हूं कि वे बिल्कुल नहीं चौंकाते। वे पहले से इशारा करते हैं कि क्या करने वाले हैं या उनके मन में क्या चल रहा है और उनकी सरकार या उनकी पार्टी क्या फैसला करने वाली है। सबसे ताज़ा संकेत जो मुझे लग रहा है कि जिस पर ध्यान देने की ज़रूरत है, वह बिहार विधानसभा के चुनाव के बाद पार्टी मुख्यालय में दिए भाषण में उन्होंने दिया। उन्होंने कांग्रेस के बारे में कहा कि यह माओवादी मुस्लिम लीग कांग्रेस हो गई है। तो कांग्रेस पर यह आरोप बीजेपी काफी समय से लगा रही है। लेकिन उसके बाद जो बात प्रधानमंत्री ने कही वह पहले कभी किसी भाषण में नहीं कही। उन्होंने कहा कि कांग्रेस में एक और विभाजन होगा। कांग्रेस टूटेगी। अब आप इसे भविष्यवाणी भी कह सकते हैं।

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मैं यह सवाल उठा रहा हूं कि प्रधानमंत्री की इस भविष्यवाणी को सच कौन करेगा? तो जरा कांग्रेस के इतिहास पर नजर डालें। इतिहास बताता है कि कैसे भविष्य के लिए सबक सीखना चाहिए। वो घटनाएं क्यों हुई हैं। उनके कारण को अगर आप समझें, उनके पीछे के इरादे को समझें तब आपको भविष्य में होने वाली घटनाओं का अंदाजा लग जाएगा।

कांग्रेस 140 साल पुरानी पार्टी है। उसके अध्यक्ष ज्यादातर आम सहमति से चुने जाते हैं। सभी पार्टियों में यही स्थिति है और आम सहमति मेरा मानना है कि जनतंत्र की सबसे खूबसूरत चीज है। वोट पड़े और उसके आधार पर चुनाव हो यह अच्छी बात है, लेकिन उससे अच्छी बात है आम सहमति क्योंकि इसमें कटुता नहीं आती। कोई जीतता नहीं,कोई हारता नहीं। बशर्ते कि आम सहमति का जो फैसला है, वह पारदर्शी और योग्यता के आधार पर हो। कांग्रेस के गठन के बाद से छह बार वोट के जरिए कांग्रेस अध्यक्ष का फैसला हुआ है और अब तक पांच बार कांग्रेस पार्टी टूट चुकी है। छठे अध्यक्ष हैं मलिकार्जुन खरगे जो वोट से जीतकर आए हैं।

कांग्रेस में अध्यक्ष पद के लिए पहली बार 1939 में वोट पड़े। इसमें उम्मीदवार थे नेताजी सुभाष चंद्र बोस और पट्टाभि सीतारमैया। गांधी जी नहीं चाहते थे कि सुभाष चंद्र बोस चुनाव लड़ें, लेकिन सुभाष चंद्र बोस नहीं माने। इस चुनाव में गांधी जी ने यह तक कह दिया कि सीतारमैया की हार मेरी हार होगी,लेकिन सीतारमैया चुनाव हार गए। वैसे कांग्रेस का इतिहास देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि बड़े महत्वपूर्ण मौकों पर कांग्रेस के लोगों ने गांधी जी की राय को भी नकार दिया था। नेताजी सुभाष चंद्र बोस चुनाव तो जीत गए लेकिन गांधी जी और उनके आसपास के लोग खासतौर से जवाहरलाल नेहरू को यह पसंद नहीं आया। इन लोगों ने पहले तो नेता जी को कांग्रेस वर्किंग कमेटी का गठन नहीं करने दिया और गठन हो गया तो फिर उसको चलने नहीं दिया। सुभाष चंद्र बोस को समझ में आ गया कि हमारे दिन कांग्रेस में पूरे हो चुके हैं तो उन्होंने कांग्रेस छोड़कर नई पार्टी बना ली और कांग्रेस टूट गई। कांग्रेस से नेताजी सुभाष चंद्र बोस का निकलना ही अपने आप में बड़ी टूट थी। वे देश के बहुत बड़े नेता थे और मेरा मानना है कि स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में उनकी हैसियत का कोई नहीं है।

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उसके बाद अगला चुनाव 1950 में हुआ। इस चुनाव में सरदार पटेल ने राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन को अध्यक्ष पद के लिए उम्मीदवार बनाया। इससे नेहरू बहुत खफा हो गए। उन्होंने आचार्य कृपलानी को उम्मीदवार बनाया। नेहरू पुरुषोत्तम दास टंडन को रूढ़िवादी और पुरातनपंथी मानते थे। उनका मानना था कि इनको अगर अध्यक्ष बनाया तो कांग्रेस सांप्रदायिक हो जाएगी। सरदार पटेल ने कुछ नहीं सुना। नेहरू जी ने आखिर में कह दिया कि अगर पुरुषोत्तम दास टंडन अध्यक्ष चुने गए तो मैं इस्तीफा दे दूंगा। चुनाव का नतीजाआया तो पुरुषोत्तम दास टंडन चुनाव जीत गए। नतीजा आने के कुछ दिन बाद जब मौलाना आजाद सरदार पटेल से मिलने गए तो सरदार पटेल ने हंसते हुए कहा कि तुम जवाहर का इस्तीफा लेकर आए हो क्या? तो जवाहरलाल नेहरू ने यह मान लिया था कि पार्टी का संगठन सरदार पटेल के कब्जे में है। अब ये देश और उससे बड़ा कांग्रेस पार्टी का दुर्भाग्य था कि दिसंबर 1950 में सरदार पटेल का निधन हो गया, लेकिन नेहरू इस अदावत को भूले नहीं। उन्होंने पुरुषोत्तम दास टंडन को काम नहीं करने दिया। वर्किंग कमेटी के लोगों को कहा गया कि बैठक में मत जाओ। पहले उन्होंने तय किया कि खुद ही नहीं जाएंगे। तो ये कहा गया कि आपकी छवि के लिए अच्छा नहीं होगा। तो बाकी लोगों को मना किया गया। पुरुषोत्तम दास टंडन को समझ में आ गया कि अब सरदार पटेल हैं नहीं और नेहरू मुझे चलने नहीं देंगे तो उन्होंने इस्तीफा दे दिया। उधर आचार्य कृपलानी भी नेहरू से नाराज हो गए और उन्होंने अपनी अलग पार्टी बना ली। तो फिर से कांग्रेस का विभाजन हुआ।

फिर उसके बाद तीसरी घटना हुई। 1968 में एस निजलिंगप्पा को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया। इंदिरा गांधी उनको नहीं चाहती थीं। आर्थिक नीतियों को लेकर विवाद काफी बढ़ गया और फिर लड़ाई की अंतिम परिणति राष्ट्रपति चुनाव के रूप में हुई। राष्ट्रपति पद के चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने ऑफिशियल कैंडिडेट डॉ. नीलम संजीव रेड्डी को अनाउंस किया।

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इंदिरा गांधी नहीं चाहती थीं कि रेड्डी राष्ट्रपति बनें। उनको डर था कि निजलिंगप्पा, जिनको बाद में सिंडिकेट कहा गया,का कैंडिडेट अगर राष्ट्रपति भवन में बैठेगा तो भविष्य में मेरे लिए समस्या पैदा कर सकता है। वे सीधे-सीधे तो विरोध कर नहीं सकती थीं इसलिए उन्होंने कह दिया कि अंतरात्मा की आवाज पर वोट दीजिए। इस पर इंदिरा गांधी के समर्थकों ने उपराष्ट्रपति पद से इस्तीफा देकर निर्दलीय राष्ट्रपति चुनाव लड़ने वाले वीवी गिरी को वोट दिया और बड़ी कांटे की लड़ाई में वीवी गिरी की जीत हुई। उसके बाद निजलिंगप्पा ने इंदिरा गांधी को पार्टी से निकाल दिया और फिर पार्टी टूट गई। सबसे बड़ी टूट अगर कांग्रेस में हुई तो वह यही 1969 में हुई। इंदिरा गांधी ने अलग ग्रुप बनाया। उसका नाम था कांग्रेस-आर और दूसरा ग्रुप जो निजलिंगप्पा का था, वह कांग्रेस ऑर्गेनाइजेशन हो गया। इसके बाद इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग कर दी। 1971 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी बड़े बहुमत से जीत गईं। इसके बाद 1977 में कांग्रेस पार्टी चुनाव हार गई। इंदिरा गांधी खुद भी रायबरेली से चुनाव हार गईं । उस समय देवकांत बरुआ कांग्रेस के अध्यक्ष थे। बरुआ इंदिरा गांधी धड़े के खिलाफ जो धड़ा था उसके अध्यक्ष पद के उम्मीदवार बने। इंदिरा गांधी ने ब्रह्मानंद रेड्डी को उम्मीदवार बनाया। ब्रह्मानंद रेड्डी भारी बहुमत से चुनाव जीत गए। लेकिन 1 जनवरी 1978 को ब्रह्मानंद रेड्डी इंदिरा विरोधी गुट से मिल गए और उन्होंने इंदिरा गांधी को पार्टी से निकाल दिया। इंदिरा गांधी ने फिर पार्टी तोड़ दी और कांग्रेस-आई बनाई, जिसका चुनाव चिन्ह पंजा बना, जो आज भी है।

उसके बाद 1996 में कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव हुआ। सीताराम केसरी अध्यक्ष बने। गांधी परिवार का उस समय मतलब सोनिया गांधी थीं। मार्च 1998 में कांग्रेस वर्किंग कमेटी की मीटिंग बुलाई गई। उसमें सोनिया गांधी आईं और वहां जो तमाशा हुआ, उसे पूरे देश ने देखा। उसकी चर्चा आज तक होती है। सीताराम केसरी को धक्का देकर पार्टी अध्यक्ष पद से हटा दिया गया। कहते हैं उनकी धोती खोल दी गई। कोई कहता है उनको बाथरूम में बंद कर दिया गया। तमाम तरह की किस्से कहानियां आज भी चलती हैं कि उनको कैसे हटाया गया और उसी बैठक में सोनिया गांधी को अध्यक्ष चुन लिया गया। सोनिया गांधी अध्यक्ष बनीं तो शरद पवार के नेतृत्व में तारिक अनवर और पीए संगमा ने विद्रोह किया। उन्होंने विदेशी मूल का मुद्दा बनाया और कहा कि सोनिया गांधी विदेशी हैं। वह देश की सबसे बड़ी पार्टी की अध्यक्ष कैसे हो सकती हैं? तो उन्होंने पार्टी तोड़ दी। उधर सोनिया गांधी को लोगों ने समझाया कि वर्किंग कमेटी के चुनाव से आप बनी हैं। पार्टी की आम सभा के चुनाव में आपको चुनाव लड़ना चाहिए और जीतना चाहिए। इससे आपकी लेजिटिमेसी बनेगी। चुनाव में उनके खिलाफ राजेश पायलट लड़े। लेकिन वह चुनाव लड़ने के बाद राजेश पायलट इस दुनिया में चुनाव लड़ने की स्थिति में फिर कभी नहीं आ पाए। मतलब एक दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई। अब चुनाव से छठे अध्यक्ष बने हैं मल्लिकार्जुन खरगे। अब इस पृष्ठभूमि को देखिए और फिर प्रधानमंत्री का बयान देखिए कि कांग्रेस में एक और विभाजन होगा।

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हालांकि इसकी आशंका जब जी23 बना था, तभी व्यक्त की जा रही थी। जिस तरह से सोनिया गांधी बल्कि कहें पूरे गांधी परिवार के खिलाफ माहौल था और खासतौर से राहुल गांधी को निशाना बनाया गया था कि हमें पार्ट टाइम पॉलिटिशियन नहीं चाहिए। या तो पूरी तरह से पार्टी का काम करें या छोड़ दें। तो उस समय राहुल गांधी ने इस्तीफा देकर कहा कि मेरे परिवार से कोई अध्यक्ष नहीं बनेगा। लेकिन कुछ ही दिन में यह कहकर सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष बन गईं कि जल्द चुनाव होगा और चुनाव कई साल तक नहीं हुआ। 2022 में मल्लिकार्जुन खरगे चुनकर कांग्रेस अध्यक्ष बने हैं।

तो अब सवाल यह है कि क्या कांग्रेस में एक और टूट होगी? प्रधानमंत्री ने जो कहा है तो वह उन्होंने अपनी इच्छा नहीं जाहिर की है। वे किसी ठोस जानकारी के आधार पर बोल रहे हैं। तो मेरी रुचि यह जानने की है कि उस विभाजन को लीड कौन करेगा। मेरे पास कोई जानकारी नहीं है पर मैं खुद के आधार पर बता रहा हूं कि इस विभाजन का नेतृत्व गांधी परिवार के अंदर से ही कोई करेगा। अब कोई का मतलब जाहिर है कि सोनिया गांधी तो करेंगी नहीं। राहुल गांधी भी नहीं करेंगे। राहुल गांधी में इतनी हिम्मत नहीं है कि उनको कोई चैलेंज करे तो पार्टी तोड़कर वे नया संगठन खड़ा कर लें। एक ही व्यक्ति पर नजर जाती है- प्रियंका गांधी वाड्रा। प्रियंका को जिस तरह से लगातार इग्नोर किया जा रहा है। भाई आखिर वे भी परिवार की सदस्य हैं। पहले उनको राहुल गांधी के कारण राजनीति में आने नहीं दिया गया। उनकी क्षमता क्या है? योग्यता क्या है? इसकी बात मैं नहीं कर रहा हूं। क्योंकि जब परिवार में बंटवारा होता है,सत्ता का बंटवारा होता है,पद का बंटवारा होता है तो वहां योग्यता नहीं देखी जाती। वहां सिर्फ एक बात देखी जाती है कि परिवार के सदस्य हैं या नहीं। तो कांग्रेस पार्टी में इस समय गांधी परिवार के अलावा कोई विकल्प खोजने की कोशिश भी नहीं हो रही है। इसलिए अगर कोई गांधी परिवार के बाहर का व्यक्ति विद्रोह करेगा तो फिजल आउट हो जाएगा। जैसे G23 का मामला हुआ। वह मामला इतना पीक पर गया लेकिन कोई ऐसा नेता नहीं था, जिसके इर्द-गिर्द लोग जमा हो सकें। तो वह विद्रोह विफल हो गया। अब प्रियंका वाड्रा को जितना दबाया जा रहा है। 2022 में उन्हें पूरे उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी दी गई। हालांकि चुनाव में पार्टी की बहुत खराब परफॉर्मेंस रही। कांग्रेस सिर्फ दो सीटें जीती। प्रियंका वाड्रा चुनाव के मैदान में कुछ नहीं कर पाईं लेकिन अगर इसकी तुलना पिछले 92-93 चुनाव से करें तो राहुल गांधी कुछ नहीं पा रहे। तो कांग्रेस में खासतौर से गांधी परिवार के मामले में पद पर बने रहने का ये तो क्राइटेरिया है ही नहीं।

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2022 के बाद से प्रियंका को हालांकि राष्ट्रीय महामंत्री का पद दिया गया है, लेकिन उनको कोई जिम्मेदारी नहीं दी गई है। उनके पास संगठन की कोई जिम्मेदारी नहीं है। सिर्फ नाम के लिए पद है और जब तक राहुल गांधी रहेंगे प्रियंका को कोई बड़ी जिम्मेदारी मिलेगी इसकी उम्मीद भी मत करिए। ऐसे में प्रियंका गांधी वाड्रा ही एकमात्र सदस्य हो सकती हैं जो इस विद्रोह को लीड कर सकती हैं। उसका अंजाम क्या होगा ये तो बाद की बात है लेकिन निश्चित रूप से मेरा मानना है कि प्रधानमंत्री के पास ऐसी कोई जानकारी है। प्रियंका वाड्रा की एक ही समस्या है उनके पति और उनके खिलाफ लगे भ्रष्टाचार के आरोप। जिस दिन आपको दिखाई दे कि सरकार रॉबर्ट वाड्रा के प्रति नरम हो रही है या उनका केस कमजोर किया जा रहा है तो समझ लीजिए कि प्रियंका वाड्रा नाम का जो टाइम बम है, उसे एक्टिवेट कर दिया गया है। यह होगा कि नहीं यह कोई नहीं जानता। मुझे इस बात पर भरोसा है कि प्रधानमंत्री ने यह बात ऐसे ही नहीं कही। उन्होंने किसी ठोस जानकारी के आधार पर ही कहा है। अब इसमें समय कितना लगेगा? कब होगा और फिर वही बात कह रहा हूं कि कौन लीड करेगा? मुझे तो पूरी पार्टी में और कोई दिखाई नहीं देता। शशि थरूर अध्यक्ष पद का चुनाव जरूर लड़े तो इसलिए आप देखिए उनकी क्या हालत हुई। तो परिवार विरोध में बगावत का नेतृत्व करने जो भी आएगा, उसका वही हाल होगा। अब सरदार पटेल का जमाना तो है नहीं कि नेहरू विरोध करें तब भी अपना उम्मीदवार जिता लें।

कांग्रेस में सचमुच अगर विभाजन होना है तो वह सिर्फ और सिर्फ परिवार का कोई सदस्य कर सकता है और उस कोई सदस्य में प्रियंका गांधी के अलावा और कोई दिखाई नहीं दे रहा है। राजनीतिक सत्ता हथियाने के लिए परिवार में झगड़े आम बात है। सबसे ताजा उदाहरण तो है लालू परिवार का। तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार को देखिए। और इस तरह से आप खोजना शुरू करेंगे तो हर परिवारवादी पार्टी में इस तरह की स्थिति मिलेगी। मुलायम सिंह यादव ने अपनी कुर्बानी देकर पार्टी को बचा लिया और अखिलेश यादव को भी बचा लिया। अखिलेश यादव ने उनको जीवित रहते ही पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से हटा दिया था, लेकिन मुलायम सिंह यादव ने बगावत नहीं की। तो अब इंतजार कीजिए कि कांग्रेस में क्या होने वाला है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ के संपादक हैं)