मोदी ने कैसे दिया पार्टी के बाहर और अंदर के विरोधियों को झटका।

#pradepsinghप्रदीप सिंह।
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने बुधवार को वन नेशन वन इलेक्शन का प्रस्ताव पास कर दिया। आपको मालूम है कि मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल के आखिरी दिनों में पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई थी। उस कमेटी ने राष्ट्रीय पार्टी की मान्यता वाले, राज्य की पार्टी मान्यता वाले रजिस्टर्ड और रिकॉग्नाइज सभी दलों को इस विषय में परामर्श के लिए बुलाया। ज्यादातर ने उसका जवाब दिया। जितने लोगों ने जवाब दिया और इस प्रक्रिया में शामिल हुए उनमें से दो तिहाई दल सैद्धांतिक रूप से इसके पक्ष में थे। लेकिन कुछ पार्टियां विरोध में भी थीं। विरोध करने वालों में सबसे आगे कांग्रेस पार्टी और तृणमूल कांग्रेस थी। ममता बनर्जी को जिन मुद्दों पर एतराज है इस पर उन्होंने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस भी की थी जिसमें अपनी आपत्तियों पर लिखी चिट्ठी को भी जारी किया था।

अब वन नेशन वन इलेक्शन का मुद्दा कैबिनेट से पास हो गया है और अगले संसद सत्र में इससे संबंधित विधेयक पेश हो सकता है। यह बड़ा पेचीदा मामला है। इसमें बहुत सारे कानूनों में संशोधन करना पड़ेगा। सभी विधानसभाओं के और लोकसभा के चुनाव एक साथ होंगे और 100 दिन बाद स्थानीय निकाय और पंचायत के चुनाव होंगे। सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि जिन विधानसभाओं का कार्यकाल बचा हुआ है उनका क्या होगा? अगर किसी विधानसभा का कार्यकाल 2029 से पहले खत्म हो रहा है तो उसको बढ़ा दिया जाएगा। जिस विधानसभा का कार्यकाल बचा हुआ है वह खत्म हो जाएगा। इस तरह सभी विधानसभाओं का 2029 में एक साथ चुनाव हो जाएगा।

ममता बनर्जी ने बड़ा जायज सवाल उठाया था और बहुत से राजनीतिक दलों के मन में यह प्रश्न था कि अगर लोकसभा या राज्य में विधानसभा के मध्यावधि चुनाव हो गए, फिर तो यह क्रम टूट जाएगा। उसके लिए इस कमेटी ने सुझाव दिया कि अगर लोकसभा या विधानसभा के मध्यावधि चुनाव की नौबत आती है तो जितना कार्यकाल बचा है उतने कार्यकाल के लिए ही चुनाव होगा जिससे यह क्रम बना रहे। कुछ लोग इसके पक्ष में हैं और कुछ खिलाफ हैं। पक्ष में सबसे बड़ी बात यह है कि देश में एक बार चुनाव होगा तो जो हर साल या छह आठ महीने पर चुनाव होता है, आचार संहिता लगती है, काम रुक जाता है, विकास की परियोजनाएं रुक जाती हैं- वह सब नहीं होगा। बड़े पैमाने पर खर्च बचेगा सरकार का और पार्टियों का भी

दूसरा विपक्ष में जो इसका विरोध कर रहे हैं उसमें क्षेत्रीय दल भी हैं। उनका कहना है कि  एक देश एक चुनाव लागू हुआ तो राष्ट्रीय दल अपना वर्चस्व स्थापित कर सकते हैं। यानी राष्ट्रीय मुद्दे हावी हो सकते और क्षेत्रीय मुद्दे गौण हो जाएंगे। कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनका कहना है कि राष्ट्रीय चुनाव भी स्थानीय हो जाएगा। लोकल मुद्दे ज्यादा हावी हो जाएंगे। तो यह ऐसी स्थिति नहीं है कि किसी एक को फायदा हो। अभी भी कई राज्यों में लोकसभा विधानसभा चुनाव साथ-साथ होते हैं। 2019 का उड़ीसा विधानसभा का चुनाव देखिए बीजेपी ने लोकसभा में बहुत अच्छा किया, लेकिन उसी के साथ हुए विधानसभा चुनाव में बीजू जनता दल (बीजद) ने प्रचंड बहुमत हासिल किया।

एक चीज होती है स्प्लिट वोटिंग। देश का मतदाता जानता है कि किन लोगों को राज्य की जिम्मेदारी सौंपनी है और किनको केंद्र सरकार की जिम्मेदारी सौपनी है। पार्टियों के मन में इसको लेकर संदेह हो सकता है, भ्रम हो सकता है- मतदाता के मन में नहीं है। यह ऐसा मुद्दा है जिसमें किसी पार्टी को फायदा होगा किसी को नुकसान होगा। लेकिन कुल मिलाकर फायदा नुकसान एक तरह से बराबर हो जाएगा। जहां किसी को नुकसान होगा दूसरी जगह उसको फायदा हो जाएगा। क्षेत्रीय दलों को फायदा यह होगा कि उनके स्थानीय मुद्दे प्रभावी हो सकते हैं। राष्ट्रीय दल को यह फायदा होगा उसके राष्ट्रीय मुद्दे प्रभावी हो सकते हैं।

लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होने का सिलसिला 1952 में शुरू हुआ था। 1952, 1957, 1962 और 1967 तक ये चुनाव हुआ। इस बीच में केवल एक अपवाद था केरल का। केरल में 1959 में इंदिरा गांधी के दबाव में जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने सीपीएम की सरकार को बर्खास्त कर दिया था, भंग कर दिया था और राष्ट्रपति शासन लगा दिया था। वरना 1967 तक लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ हो रहे थे। इंदिरा गांधी ने 1971 में लोकसभा का मध्यावधि चुनाव करा दिया। तब से यह क्रम टूट गया। 1971 से पहले 1967 से 1969 के बीच में राज्यों में कई सरकारें गिरीं। संयुक्त विधायक दल (संविद) सरकारें बनी तो वहां भी राष्ट्रपति शासन लगे या वैकल्पिक सरकार बनी तो वह भी ज्यादा समय नहीं चली। यह सिलसिला चलता रहा। इसलिए वन नेशन वन इलेक्शन कोई ऐसी व्यवस्था नहीं है जिसको आजमाया ना गया हो, जिसके फायदे नुकसान पता ना हों।

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दूसरी लॉजिस्टिक्स की बात उठाई जाती है कि इतनी बड़ी संख्या में ईवीएम की जरूरत पड़ेगी, वो कैसे बनेंगी? जो भारत हथियार का इंपोर्टर था, वह अब बड़ा एक्सपोर्टर बन गया है। इतनी चीजें बन रही हैं। हम मोबाइल इक्विपमेंट बनाने में दुनिया में नंबर एक की स्थिति में आ गए हैं। ऐसे बहुत सारे उदाहरण हैं। तो यह सब कोई बड़ा मुद्दा नहीं है। इस प्रकार से चुनाव का सिलसिला 2029 से शुरू होगा। एक ही वोटर लिस्ट होगी। अभी आपने देखा होगा कि हर चुनाव में लोकसभा में अलग वोटर लिस्ट होती है, विधानसभा में अलग होती है, स्थानीय निकाय, पंचायत चुनाव में अलग वोटर लिस्ट होती है। किसी को पता चलता है कि लोकसभा में नाम था लेकिन विधानसभा में नाम कट गया। वो स्थिति नहीं आने वाली है।

लेकिन आज हम ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ से इतर एक बड़े मुद्दे पर बात कर रहे हैं। सन्दर्भ के लिए 2024 के लोकसभा चुनाव का नतीजा देखें। भारतीय जनता पार्टी जो 2019 में लोकसभा की 303 सीटें जीती थी 2024 में घटकर उसकी सीटें 240 हो गयीं। जब सबसे शक्तिशाली व्यक्ति कमजोर होता हुआ दिखता है तो बाहर के दुश्मनों को तो अवसर नजर आता ही है, अंदर के जो दुश्मन (चाहे विरोधी कह लें) उनको भी लगता है कि यही मौका है हमला करने का। इसी समय हमला करने से और कमजोर किया जा सकता है या गिराया जा सकता है।

तो 4 जून को 2024 के नतीजे आने के बाद से दो बातें लगातार कही जा रही थीं। एक- नरेंद्र मोदी के विरोधी और पार्टी के भीतर के कुछ लोग (जो कहने को तो उनके समर्थक हैं, पार्टी में एकजुट हैं लेकिन अंदर से उनका विरोध करते हैं) नरेंद्र मोदी को गठबंधन की सरकार चलाने का कोई अनुभव नहीं है। गुजरात में मुख्यमंत्री रहे तो पूर्ण बहुमत की सरकार चलाई। 2014, 2019 में लोकसभा में राष्ट्रीय स्तर पर सरकार बनाई, प्रधानमंत्री बने तो पूर्ण बहुमत की सरकार चलाई। पहली बार वह गठबंधन की सरकार चलाने जा रहे हैं। इसका उनको अनुभव नहीं है इसलिए चला नहीं पाएंगे। नरेंद्र मोदी के सामने ऐसी चुनौती जब भी आई है वह और ज्यादा ताकतवर होकर उभरे हैं। उनके अंदर के विरोधियों को लग रहा था कि यह मौका है और आलोचना, धीरे-धीरे सुगबुगाहट, कानाफूसी यह सब शुरू हो गई थी। उधर विरोधी तो खुलकर हमला कर रहे थे। राहुल गांधी देश से लेकर विदेश तक कहते घूम रहे थे कि हमने साइकोलॉजिकली नरेंद्र मोदी को डिस्ट्रॉय कर दिया है, उनका कॉन्फिडेंस चला गया है, पहले सीना चौड़ा करके आते थे सदन में, अब उनके कंधे झुके हुए होते हैं। इस तरह की तमाम बातें कही जाती थीं। पार्टी के अंदर लोगों का कहना था कि जिस तरह से उन्होंने पहले काम कर लिया अब नहीं कर पाएंगे। जिस तरह से नोटबंदी, जीएसटी, बालाकोट एयर स्ट्राइक का मामला हो या इस तरह के जो भी फैसले किए, उस तरह से अब काम नहीं कर पाएंगे।

दरअसल यह सब बातें कहनेवाले दुर्भाग्य से अभी तक नरेंद्र मोदी के स्वभाव को समझ नहीं पाए हैं। वह किस मिट्टी के बने हैं इसका उनको अंदाजा नहीं है। उनकी ओर से पहला जवाबी वार तब हुआ जब वक़्फ़ पर संशोधन विधेयक आया और जेपीसी को चला गया। लोगों ने कहा मजबूरी में हारकर जेपीसी में चला गया। बहुत सारे मोदी समर्थक कहने लगे कि यह तो खाली बहाना था इनको लाना वाना नहीं था। इनको भी मालूम था कि वक़्फ़ विधेयक पास नहीं करवा पाएंगे इसलिए जेपीसी में भेज दिया। यह केवल दिखाने के लिए था। विपक्ष बड़ा खुश था कि देखिए जेपीसी में भिजवा दिया। अगर जेपीसी में किसी विधेयक का जाना सरकार की हार है तो मुझे लगता है कि कांग्रेस के जमाने में जितनी जेपीसी बनी या सिलेक्ट कमेटी को जो भी बिल गए, वो उस समय की सत्ताधारी पार्टी की हार कहे जाएंगे। ये संसदीय नियम है, परंपरा है। इसका फायदा भी है। फायदा यह है कि जब भी कोई मुद्दा सिलेक्ट कमेटी में या जॉइंट पार्लियामेंट्री कमेटी में जाता है तो उसके अंदर अगर विवादित मुद्दा हो तो उसके अंदर का पूरा जहर निकल जाता है। जिसको उसके विरोध में जितना बोलना होता है उस कमेटी की बैठकों में बोल लेता है। जिसको लिखित में देना होता है लिखित में दे देता है। जो सहमत नहीं है वह अपना डिसेंट नोट दे देता है। तो वह अपने समर्थकों के बीच में अपनी कांस्टेंसी में बता देता है कि देखिए हमारा स्टैंड यह था। हम झुके नहीं और हमने अपना स्टैंड बरकरार रखा। बाद में जब संसद में वह विधेयक आता है तो उसके खिलाफ बोलने के लिए उनके पास ज्यादा कुछ रह नहीं जाता। इसलिए सरकार को उसे पास कराने में ज्यादा आसानी हो जाती है क्योंकि उसमें कुछ डिसेंट नोट के अलावा और कुछ होता नहीं है।

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नरेंद्र मोदी ने वक्फ बिल जेपीसी को इसलिए नहीं भेजा कि उसको ठंडे बस्ते में डाल देना था। अभी दो तीन दिन पहले केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा भी है कि वक़्फ़ संशोधन विधेयक जल्दी ही पास होगा और इस बात की पूरी संभावना है कि संसद के शीतकालीन सत्र में यह विधेयक पास हो जाएगा। इसमें बहुत से लोगों का विरोध है, ऐतराज है- उन सब पर विचार किया जाएगा। सरकार उसे संसद से पास कराएगी, कानून में संशोधन कराएगी। नया कानून नहीं बन रहा है, 1995 में नरसिम्हाराव सरकार के समय जो कानून बना था उसमें संशोधन हो रहा है। करीब 42 या 44 संशोधन हो रहे हैं और उन संशोधनों के बाद जो उस कानून में सांप का जहर भरा गया था उसको विष हीन कर दिया जाएगा। वो कानून रहेगा पर उसमें डसने की क्षमता नहीं रह जाएगी।

एक देश एक चुनाव विधेयक को लागू होना है 2029 में। तो सरकार को कोई जल्दी नहीं है। यह विधेयक संसद में पेश होगा और पूरी उम्मीद है कि यह भी जेपीसी को या सिलेक्ट कमेटी को चला जाएगा। विधेयक पर व्यापक विचार विमर्श होने से अंततः सरकार को ही फायदा होता है। मेरा अभी भी मानना है कि जो तीनों कृषि कानून थे वे सीधे पास होने की बजाय सिलेक्ट कमेटी या जेपीसी से आए होते और पास होते तो शायद इतना विरोध करने का मौका उसके विरोधियों को ना मिलता। लेकिन अब वह अतीत की बात हो गई। उसको छोड़ देते हैं।

वन नेशन वन इलेक्शन कानून पर सरकार दृढ़ प्रतिज्ञ है। पार्टी के मेनिफेस्टो में भी था और नई लोकसभा के गठन के बाद जब दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन को राष्ट्रपति द्रौपदी मुरमू जी ने संबोधित किया तब भी उसमें वन नेशन वन इलेक्शन का जिक्र था। उस समय लोग मजाक उड़ा रहे थे कि सपनों की दुनिया में जी रहे हैं। आप पुरानी बात भूल जाइए। यह 303 सीट वाली सरकार नहीं है, ये 240 सीट वाली सरकार है। कांग्रेस पार्टी कहने लगी कि ये सरकार कितने दिन चलेगी, पता नहीं- कब गिर जाएगी, पता नहीं… हम इसको चलने नहीं देंगे। और नितिन गडकरी तो कह रहे हैं इसको बनने ही नहीं देना था विपक्ष को। नितिन गडकरी के बारे में विपक्ष को अंदाजा था कि अगर किसी को फोड़ा जा सकता है तो इस व्यक्ति को फोड़ा जा सकता है तो उसी पर डोरे डालने की कोशिश की। लेकिन नितिन गडकरी महत्वाकांक्षी हो सकते हैं, राजनीतिक रूप से नासमझ नहीं हैं। उनको भी मालूम था कि अगर प्रधानमंत्री बनने के लिए उनका समर्थन लेंगे तो यहां से समर्थन देने वाले पांच सांसद भी नहीं होंगे। उनके अपने प्रदेश महाराष्ट्र से शायद ही कोई सांसद उनके समर्थन में आता। उनको पता था कि इसका नतीजा क्या होने वाला है।

जब आप अपने विरोधी के खिलाफ रणनीति बनाते हैं तो उसकी कमजोरी ढूंढते हैं। तो इन लोगों को लगा कि भाजपा की कमजोरी नितिन गडकरी हैं। लेकिन आज का मुद्दा नितिन गडकरी नहीं हैं। आज का मुद्दा यह है कि मोदी ने बताया कि 303 सीट हो या 240 हो- काम तो इसी तरह से करेंगे। किसी फिल्म का डायलॉग है- हम तो ऐसे ही हैं। तो नरेंद्र मोदी का भी कहना कि हम तो भैया ऐसे ही हैं। ऐसे ही काम करते थे ऐसे ही काम कर रहे हैं और ऐसे ही काम करते रहेंगे। जिस मुद्दे के बारे में हमारा कन्विक्शन है, हमारा भरोसा है कि यह देशहित में है उससे पीछे नहीं हटेंगे। वरना अगर बहुमत की, संसद में अपने समर्थक सदस्यों की चिंता की होती तो अनुच्छेद 370 को शिथिल करने का प्रस्ताव आता क्या? 35-ए हटाने का प्रस्ताव आता क्या? जीएसटी का प्रस्ताव आता क्या? लोकसभा में उस समय भले ही बहुमत था, राज्यसभा में तो बिल्कुल नहीं था। संख्या की दृष्टि से बड़ी दयनीय स्थिति थी। विपक्ष ने उस समय अपने सबसे घटिया व्यवहार का प्रदर्शन किया जब राष्ट्रपति के अभिभाषण में राज्यसभा से संशोधन प्रस्ताव पास कराए क्योंकि राज्यसभा में विपक्ष का बहुमत था। तो विपक्ष किस हद तक जा सकता है इसका अंदाजा आप लगा सकते हैं। उस संशोधन प्रस्ताव से सरकार गिरने वाली नहीं थी। सरकार पर कोई असर पड़ने वाला नहीं था। लेकिन उनको विषवमन करना था और उन्होंने किया।

तो पार्टी से बाहर के लोग और पार्टी के अंदर के लोग- जो शेरवानी सिलवाकर बैठे थे कि अब मौका आने वाला है। जो नरेंद्र मोदी का वह चेहरा देखना चाहते थे जब नरेंद्र मोदी विवश हों, हताश हों, निराश और कमजोर नजर आ रहे हों, उनके लिए यह 880 वोल्ट का झटका है- या उससे भी ज्यादा जितने वोल्ट का होता हो। उनको कतई उम्मीद नहीं रही होगी कि नरेंद्र मोदी तीसरे कार्यकाल के 100 दिन पूरा होते ही वन नेशन वन इलेक्शन का प्रस्ताव कैबिनेट से पास करा देंगे। उनको उम्मीद वक़्फ़ संशोधन विधेयक की भी नहीं रही होगी।

सरकार जो करने जा रही है, जिसकी तैयारी कर रही है- यह मेरी नजर में अभी शुरुआत है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह तीसरा कार्यकाल है। आप मानकर चलिए सीट जितनी भी हों नरेंद्र मोदी अपने सबसे प्रभावी रूप में इसी कार्यकाल में दिखेंगे, जब उनको कमजोर समझा जा रहा है। जितने बड़े फैसले पिछले 10 साल में हुए हैं उससे ज्यादा बड़े फैसले इन पांच सालों में होने वाले हैं। तो मोदी ने अपने पार्टी के अंदर और पार्टी के बाहर के विरोधियों को संदेश दिया है। यह वन नेशन वन इलेक्शन का जो प्रस्ताव कैबिनेट से पास हुआ है इसकी कोई जल्दी नहीं थी। 2029 से लागू होना है। वो दो महीने, चार महीने, छह महीने रुक भी सकते थे। लेकिन उनको मैसेज देना था, संदेश देना था, बताना था कि किससे पंगा ले रहे हो… 240 आ गयीं इसलिए घर में बैठ जाएंगे मुंह छिपा के ऐसा नहीं होने वाला है। तो मुझे लगता है कई लोगों की शेरवानियाँ बक्से में रखी रह जाएंगी, कभी पहनने का मौका नहीं मिलेगा उनको।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अख़बार’ के संपादक हैं)