प्रदीप सिंह।

विरोधी इस सच को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं कि राजनीति में हाशिये पर पड़े विकास के मुद्दे को मोदी मुख्यधारा में ले आए हैं। देश के लोगों ने इस बदलाव को न केवल स्वीकार कर लिया है बल्कि उन्हें यह रास भी आ रहा है। इसलिए जातीय अस्मिता की राजनीति लगातार भोथरी होती जा रही है।


 

ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गीता के इस उपदेश को जीवन में उतार लिया है कि कर्म करो, फल की इच्छा मत करो। शायद फल की इच्छा किए बिना काम में लगे रहने की प्रवृत्ति ही हैजो उन्हें लीक से हटकर चलाती है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का चौथा आम बजट यही कहता है। मोदी सरकार ने तात्कालिक राजनीतिक लाभ के प्रलोभन से परहेज किया। सरकार चाहती तो चुनावी फायदे के लिए लोकलुभावन घोषणाएं कर सकती थी, लेकिन देश और अर्थव्यवस्था के व्यापक हित को तरजीह देना बेहतर समझा गया। मोदी सरकार के इस बजट में पूंजी निवेश को प्राथमिकता दी गई है। पूंजी निवेश से विकास दर को बढ़ाना और रोजगार के नए अवसर जुटाना सरकार की प्राथमिकता है, पर जैसा कि पिछले करीब सात साल का चलन है, विरोध के लिए विरोध विपक्ष का एकमात्र हथियार है।

विपक्ष की नजर में मोदी और उनकी सरकार की कोई विश्वसनीयता नहीं है। इसके उलट जनता की नजरों में मोदी से ज्यादा कोई विश्वसनीय नेता देश में नहीं है। वास्तव में यह संघर्ष मोदी-भाजपा बनाम विपक्ष नहीं है। यह देश के आम लोगों और विपक्ष के बीच का संघर्ष है। मोदी को तो लड़ने की जरूरत ही नहीं पड़ रही है। मोदी पर हर हमले का जवाब तो जनता ही दे रही है। जवाब जनता दे रही है, इसका मतलब यह नहीं कि भाजपा हर चुनाव जीत रही है या जीतेगी। राज्यों में चुनावी हार-जीत कोई बड़ी बात नहीं है। उससे मोदी का विजय रथ रुकता नहीं है। यह युद्ध के बीच में लड़ी जाने वाली छोटी लड़ाइयां हैं, जिनमें हार-जीत की अहमियत महज तात्कालिक है। बंगाल के चुनाव को ही देख लीजिए। सारे मोदी विरोधियों की जुबान पर एक ही बात है। मोदी-भाजपा चुनाव हार गए। हारता वह हैजो अपना राज्य और ऐतिहासिक संदर्भ में कहें तो राजपाट हार जाता है। बंगाल में भाजपा का कभी राज था ही नहीं। जिन दो पार्टियों का करीब तीस-तीस साल तक राज रहा, उनकी हार पर आपको एक शब्द सुनने को नहीं मिलेगा। तो पिछले लगभग सात साल में हार-जीत की परिभाषा बदल गई है। इस अवधि में मोदी सरकार ने आर्थिक, सामाजिक क्षेत्र में इतने बड़े-बड़े काम किए हैंजो आम लोगों को तो दिखाई देते हैं, लेकिन एक वर्ग को दिखता ही नहीं। हालत यह है कि यदि मोदी कह दें कि सूरज पूरब से उगता है तो उनके विरोधी कहेंगे, प्रमाण दो। हम कैसे मान लें? वे मान कर चलते हैं कि मोदी कह रहे हैं तो गलत ही होगा। भला मोदी कोई सही बात या काम कर कैसे सकते हैं?

जिस सरकार ने जीएसटी, दीवालिया कानून, रेरा, बेनामी संपत्ति, अर्थव्यवस्था का बड़े पैमाने पर डिजिटलीकरण, जनधन, आधार, मोबाइल यानी जैम के जरिये गरीबों को खाते में सीधे पैसे भेजने जैसे तमाम सुधार किए हों और आजादी के बाद से सामाजिक सुरक्षा के सबसे अधिक कदम उठाएं हों, उसकी निंदा करने में थोड़ा तो संकोच होना चाहिए, लेकिन नहीं है। मोदी सरकार ने कश्मीर का नासूर अनुच्छेद 370 हटा दिया, तीन पड़ोसी इस्लामी देशों में रहने वाले वहां के अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए नागरिकता कानून में संशोधन किया, तीन तलाक के खिलाफ कानून बनाया। विपक्ष ने इन सबका विरोध किया। सेंट्रल विस्टा का भी हर स्तर पर और हर तरीके से विरोध हुआ। हालांकि इस पर आम सहमति है कि विभिन्न मंत्रालय जिन भवनों से चलते हैं और मौजूदा संसद भवन की जगह नए निर्माण की जरूरत है, फिर भी विरोध केवल इसलिए हुआ कि यह काम मोदी कर रहे हैं।

मोदी समर्थकों को इस पर हैरत होती है कि आखिर प्रधानमंत्री अपने विरोधियों को जवाब क्यों नहीं देते? नेपोलियन बोनापार्ट ने कहा था कि जब आपका दुश्मन गलती कर रहा हो तो आपको खामोश रहना चाहिए। मोदी की यह खामोशी उनकी ताकत और विश्वसनीयता, दोनों बढ़ाते हैं। उनके विरोधी नफरत के इस दलदल में जितना जोर-जोर से कूदते हैं, उतना ही गहरे धंसते जाते हैं। हाल में एक अंग्रेजी पत्रिका ने अपने सर्वेक्षण में बताया कि मोदी की लोकप्रियता अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी नेता से करीब आठ गुना अधिक है। मोदी देश के इतिहास में अकेले ऐसे नेता हैंजो 20 साल से लगातार सत्ता में हैं। इतने लंबे अरसे में लोगों का भरोसा कभी डिगा नहीं। राष्ट्रीय राजनीति में आने के बाद से वह अपने विरोधियों को करीब सात साल का समय दे चुके हैं, पर अभी तक जिसने भी उन्हें गिराने की कोशिश की, वह औंधे मुंह गिरा है।

लंबे समय तक देश का वंचित वर्ग कांग्रेस के नारे, वादे और भविष्य के सपने पर उसके साथ रहा। मोदी ने पिछले लगभग सात साल में उस वर्ग को लाभार्थी वर्ग में तब्दील कर दिया है। मोदी के नारे और वादे हकीकत की ठोस शक्ल ले चुके हैं और समाज के वंचित वर्ग के सपने अब बड़े हो गए हैं। अब वह जो मिल गया, उसे अपना प्रारब्ध मानकर संतुष्ट होने को तैयार नहीं है। उसकी महत्वाकांक्षा बढ़ती जा रही है। उसकी आकांक्षा को पूरा करने में उसे सरकार का साथ मिल रहा है। इसलिए यह जुगलबंदी दिनों दिन मजबूत होती जा रही है। विपक्ष इसे जातीय अस्मिता की तलवार से काटना चाहता है, पर उसके हाथ नाकामी ही लग रही है। मोदी विरोधी इस सच्चाई को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं कि देश की राजनीति मंडल और कमंडल के विमर्श से आगे निकल चुकी है। राजनीति में, और खासतौर से चुनावी राजनीति में हाशिये पर पड़े विकास के मुद्दे को मोदी मुख्यधारा में ले आए हैं। देश के लोगों ने इस बदलाव को न केवल स्वीकार कर लिया है, बल्कि उन्हें यह रास भी आ रहा है। इसलिए जातीय अस्मिता की राजनीति लगातार भोथरी होती जा रही है। मोदी हिंदुत्व को भी राजनीति की मुख्यधारा में लाने में सफल रहे हैं। वह भी ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ नारे के साथ। अब हिंदू विरोध राजनीतिक विकल्प नहीं रह गया है। सारे मोदी विरोधी आजकल मंदिरों की परिक्रमा कर रहे हैं। विरोधियों ने पंथनिरपेक्षता की अपनी ही बनाई हुई परिभाषा से पल्ला झाड़ लिया है, लेकिन वे इस बदलाव को औपचारिक और सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं कर पा रहे।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं। आलेख ‘दैनिक जागरण’ से साभार)