डॉ. कुमार विश्वास।
बहुधा कवि-सम्मेलनों से लौटकर तुरंत उस अनुभव पर लिखना मुश्किल होता है, और अगर यात्राएँ अनवरत हों तो बिलकुल भी संभव नहीं हो पाता। पिछले पूरे महीने अनवरत यात्राओं में रहा। कभी अनहद सागर पर तैरते विशालकाय क्रूज़ में राम-रस की सरिता बहती देखी तो कभी भव्य भारत-मंडपम् में देश भर के हिंदी अधिकारियों के सम्मुख अपनी चिंतना लेकर पहुँचा। पर आज चार दिन के अन्तराल पर हुए दो कवि सम्मेलनों का उल्लेख करने का मन है।

पहला अनुभव बडौत का। बागपत ज़िले का एक छोटा सा किंतु बड़े मन का क़स्बा। मेरा यहाँ से नाता मेरे पिता के स्मृतिशेष गुरु आचार्य डॉ हरीन्द्र शास्त्री जी के कारण है जो हिंदी के उद्भट विद्वान व जाट कॉलेज बडौत के प्राचार्य थे। हम बच्चे उन्हें बाबा कहते थे। बचपन में, पिलखुवा के हमारे घर पर उनका आना एक त्योहार सरीखा होता था। बेहद अपनापन, सरल ह्रदय, अत्यन्त विशाल स्मृतिकोष व हमारे क्षेत्र व अपनी मेहनती जातिगत पहचान से उपजा सहज हास्यबोध उन्हें एक उत्सव में बदल देता था। जीवन भर बाबा हम सबके लिए उतने ही पूजनीय रहे जितने हमारे सगे पितामह।

मुझे छत्तीस बरस पहले सत्रह साल की कच्ची उम्र और अधपकी कविताई के साथ (जो कि आज भी कच्ची ही है) जैन समाज बडौत ने 17 सितम्बर 1988 को बडौत आमंत्रित किया गया था। बाद में माँ वागीशा की कृपा बरसी, आप लोगों का अपार प्यार मिला तो बडौत के कवि-सम्मेलन की अर्थ-सीमाओं से मेरी व्यस्तता की परछाइयाँ बाहर जाने लगीं। टीम व प्रबंधकों ने अनेक बार रोका-टोका कि “जब मानदेय नहीं मिल रहा तो फ़्री में क्यूँ रात भर बडौत जाकर खपते हो।” पर मन उसी चौराहे के प्यार व श्रोताओं के अपार जन-ज्वार से बंधा रहा। तब से आज तक बडौत लगातार जाता हूँ। खाली हाथ और भरा मन लेकर लौटता हूँ।

इस बार तो मामला ऐतिहासिक रहा। बडौत पहुँचा तो झमाझम बारिश हो रही थी और आयोजन बीच चौराहे पर होता ही है। कवियों की टीम सहित मैं स्वयं दस बजे तक होटल में ही बैठा रहा। उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्री, बडौत के विधायक प्रिय भाई केपी मलिक आ गए तो और आधा घंटा बीत गया। तभी आयोजक आए और बोले कि “मंच पर चलिए, दूर-दूर के गाँवों से ट्रौली भर भरकर आए हज़ारों श्रोता स्थानीय नागरिकों के साथ भरपूर बारिश में मंच के सामने डटे हैं और आपको सुने बिना जाने को तैयार नहीं हैं।” साथ चलने वाले डाक्टर साहब ने रोका कि ऐसे खुले में रात भर आपका भीगना स्वास्थ्य व आने वाले आयोजनों के लिए ठीक नहीं होगा। पर अपने राम ने फिर वही किया जो हर बार करता हूँ। यानि अंदर की पुकार सुनी और जा पहुँचा मंच पर। फिर क्या था। दोनों तरफ़ थी आग बराबर लगी हुई। रात तीन बजे तक न बारिश रुकी, न कवि थके, न जनता हटी।

दूसरा अनुभव रहा चार दिन बाद, देश के सबसे भव्य भारत मंडपम् में देश की एक प्रतिष्ठित संस्था “राउंड टेबल” द्वारा आयोजित कवि-सम्मेलन में। पाँच हज़ार का टिकिट ख़रीदकर आए दिल्ली व आसपास के बेहद सुसंस्कृत, रुचिपूर्ण आठ हज़ार से अधिक श्रोता-समूह की उपस्थिति। बाहर बड़ी-बडी गाड़ियों की भरमार, अंदर एकदम नियोजित, अनुशासन से भरे अत्यंत उत्साही श्रोता। हर योग्य पंक्ति पर प्रतिक्रिया और कवियों को पलकों पर बिठा लेने वाला लाड़। क्या ही ऊर्जा उस मंडप में खेल रही थी। कृतकृत्य हुआ।

सोचता हूँ कि कितना विराट पाट है हमारी भाषा के महासागर का, कितना मीठा जल है कि तृप्ति के ओरछोर स्वयं भी पानी पीने पहुँच जाते हैं। हमारी भाषा-भारती का आँचल हम बालकों के शीश पर यूँ ही लहराता रहे।

(लेखक प्रख्यात कवि, आध्यात्मिक वक्ता और समाजसेवी हैं)