विमर्श : गोदी मीडिया के बहाने और निशाने
दयानंद पांडेय ।
इधर कुछ समय से एक जुमला बहुत तेज़ चल रहा है वह है- गोदी मीडिया। ख़ास कर मोदी वार्ड के मरीजों का यह बहुत प्रिय जुमला है। ये मरीज गोदी मीडिया का ज़िक्र ऐसे चिढ़ कर करते हैं गोया उन का सब कुछ छिन गया हो। और कि ऐसे बताते हैं जैसे ऐसा पहली बार हो रहा है कि मीडिया सरकार के सुर में सुर मिला रही हो। मैं तो बहुत पहले से यह लिखता और मानता रहा हूं कि जब जिस की सत्ता, तब तिस का अखबार। और अब तो मीडिया काले धन की गोद में है। कारपोरेट सेक्टर के तहत है। यानी पूरी तरह दुकान है।
नेशनल हेरल्ड, नवजीवन, क़ौमी आवाज़
बहरहाल इमरजेंसी की याद कीजिए। गोदी मीडिया कहने वाले यही लोग तब इंदिरा गांधी के चरणों में साष्टांग लेटे हुए थे। इमरजेंसी के बाद जब जनता पार्टी की सरकार आई तो यही मीडिया फिर जनता सरकार के आगे लेट गई। तब के दिनों में विपक्ष में बैठी इंदिरा गांधी को यही मीडिया बिलकुल नहीं पूछती थी। इंदिरा गांधी बहुत परेशान हो गईं। कभी ब्रिटिश पीरियड में नेहरू भी इसी तरह परेशान थे कि मीडिया उन को भी घास नहीं डालती थी। उपेक्षा करती थी। बेबस हो कर नेहरू ने नेशनल हेरल्ड नाम से अंगरेजी अखबार खुद निकाला। कोआपरेटिव के तहत। बाद में हिंदी अखबार नवजीवन और उर्दू में कौमी आवाज़ भी निकाला। तीनों अखबार शानदार निकले।
बहुत दिन रहा जलवा
बहुत दिनों तक इन अखबारों का जलवा कायम रहा। पर बाद में कांग्रेस और कांग्रेस की निरंतर मिजाजपुर्सी करते-करते इन अखबारों की चमक और धमक फीकी पड़ गई। आहिस्ता-आहिस्ता इन अखबारों की हालत खस्ता हो गई। धीरे-धीरे बंद ही हो गए। या फाइलों में ही छपने लगे। जनता के बीच से गायब। तो जनता सरकार के समय में मीडिया में अपनी छुट्टी होते देख इंदिरा गांधी ने नेशनल हेरल्ड, नवजीवन, कौमी आवाज़ को नया जीवन देने की तैयारी शुरू की। पर जनता सरकार, मोदी सरकार की तरह भाग्यशाली नहीं थी। कुछ कांग्रेस की नज़र लग गई तो कुछ जनता पार्टी के लोगों की आपसी कलह के कारण जनता पार्टी की मोरार जी देसाई सरकार गिर गई।
फिर जनता पार्टी से टूट कर चरण सिंह की सरकार बनी, कांग्रेस के समर्थन से। प्रधानमंत्री चरण सिंह को बतौर प्रधानमंत्री लालकिले से भाषण देने का अवसर तो मिला पर संसद का मुंह देखने का अवसर नहीं मिला। संसद में विश्वास मत पाने का अवसर नहीं मिला। कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया और चरण सिंह सरकार गिर गई। फिर चुनाव हुए और कुल ढाई साल में ही इंदिरा गांधी फिर सत्ताशीन हो गईं।
सत्ता मिली, नेशनल हेरल्ड की ज़रूरत खत्म
एक प्रेस कांफ्रेंस में इंदिरा गांधी से नेशनल हेरल्ड के शुरू करने के बारे में जब पूछा गया तो पहले तो वह टाल गईं इस सवाल को। पर जब कई बार यह सवाल पूछा गया तो अंतत: इंदिरा गांधी ने जवाब दिया। इंदिरा गांधी ने बहुत साफ़ कहा कि अब जब सारे अखबार मेरी बात सुन रहे हैं और छाप रहे हैं तो नेशनल हेरल्ड को फिर से शुरू करने की ज़रूरत ही क्या है। यह वही दिन थे जब कांग्रेस के तत्कालीन कार्यकारी अध्यक्ष देवकांत बरुआ इंदिरा इज इंडिया का नारा दे रहे थे और तब की मीडिया भी खूब खुल कर इंदिरा इज इंडिया के नारे में सुर में सुर मिला रही थी।
‘हां, मैं संजय गांधी का पिट्ठू था’
आज की तरह तब सोशल मीडिया, वायर, कारवां, क्विंट जैसे जहरीले और एकपक्षीय वेबसाइट या एनडीटीवी जैसे तमाम चैनल वगैरह भी नहीं थे। सो तब के दिनों में गलत-सही सरकार जो भी कहे, वही सही था। बतर्ज न खाता, न बही, केसरी जो कहे, वही सही। यह वही दिन थे जब खुशवंत सिंह हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक और राज्यसभा में सदस्य भी थे। यह दोनों सौभाग्य संजय गांधी की कृपा से उन्हें मिले थे। खुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा में बहुत साफ़ लिखा है कि ‘हां , मैं संजय गांधी का पिट्ठू था।’
आज की बात
तो अगर आज की तारीख में मीडिया का एक ख़ास पॉकेट मोदी का पिट्ठू बन गया है तो इसमें अचरज क्या है भला। ब्रिटिश पीरियड से यह परंपरा जैसे भारतीय मीडिया का चलन बन गया है। मीडिया का एक ख़ास पॉकेट तो आज की तारीख में सोनिया और राहुल का भी पिट्ठू है। वामपंथियों का भी पिट्ठू है। जो इंदिरा गांधी के समय में मुमकिन नहीं था। हां, लेकिन पिट्ठू होते हुए भी तब की मीडिया इतनी एकपक्षीय और जहरीली नहीं थी। कुछ लाज-शर्म भी शेष थी तब की मीडिया में, जो अब लगभग मृतप्राय है। अभी आप आ जाइए न सत्ता में, मीडिया आप की।
तो गोदी मीडिया का तराना गाने वाले पतिव्रता टाइप टिप्पणीबाजों के लिए अंजुम रहबर के दो शेर खर्च करने का मन हो रहा है:
इल्जाम आइने पर लगाना फिजूल है
सच मान लीजिए चेहरे पर धूल है।
हां, फिर भी लोग हैं कि चारण-गान में लगे ही रहते हैं तो यह उनका कुसूर नहीं है। अंजुम रहबर का ही दूसरा शेर सुनिए:
जिनके आंगन में अमीरी का शजर लगता है,
उनका हर ऐब भी जमाने को हुनर लगता है।
पत्रकारिता के ग्लैमर का अजगर
रही बात पत्रकारिता की तो आज की पत्रकारिता में कुछ नहीं धरा है। जो भी कुछ है, अब वह सिर्फ़ और सिर्फ़ भडुओं के लिए है। अब उन्हीं के लिए रह गई है पत्रकारिता। अब तो कोई गिरहकट भी अखबार या चैनल चला दे रहा है और एक से एक मेधावी, एक से एक जीनियस वहां पानी भर रहे हैं। एक मास्टर भी बेहतर है आज के किसी पत्रकार से। नौकरी के लिहाज़ से। कब किस की नौकरी चली जाए, कोई नहीं जानता। हर कोई अपनी-अपनी बचाने में लगा है। इसी यातना में जी रहा है। सुविधाओं और ज़रूरतों ने आदमी को कायर और नपुंसक बना दिया है। पत्रकारिता के ग्लैमर का अजगर बडे़-बडे़ प्रतिभावानों को डंस चुका है। किस्से एक नहीं, अनेक हैं।
पत्रकारिता के प्रोडक्ट में तब्दील होते जाने की यह यातना है। यह सब जो जल्दी नहीं रोका गया तो जानिए कि पानी नहीं मिलेगा। इस पतन को पाताल का पता भी नहीं मिलेगा। वास्तव में भड़ुआगिरी वाली पत्रकारिता की नींव इमरजेंसी में ही पड़ गई थी। बहुत कम कुलदीप नैय्यर तब खड़े हो पाए थे। पर सोचिए कि अगर रामनाथ गोयनका न चाहते तो कुलदीप नैय्यर क्या कर लेते? स्पष्ट है कि अगर अखबार या चैनल मालिक न चाहे तो सारी अभिव्यक्ति और उसके खतरे किसी पटवारी के खसरे खतौनी में बिला जाते हैं। जब जनता पार्टी की सरकार आई तो तबके सूचना प्रसारण मंत्री आडवाणी ने बयान दिया था कि इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी में पत्रकारों से बैठने को कहा, पर वह तो लेट गए! पर दिक्कत यह थी कि जनता पार्टी सरकार भी पत्रकारों को लिटाने से बाज़ नहीं आई।
‘किराए की कोख’
टाइम्स आफ़ इंडिया की एक कहानी की पत्रिका थी ‘सारिका’। कमलेश्वरजी उसके संपादक थे। सारिका कहानी की पत्रिका थी, राजनीति से उसका कोई सरोकार नहीं था। पर कहानियों का चूंकि समाज से सरोकार होता है और समाज बिना राजनीति के चलता नहीं सो, कमलेश्वर की ‘सारिका’ के भी सरोकार में तब राजनीति समा गई। इस राजनीति की कोख में भी कारण एक कहानी बनी। कहानी थी आलमशाह खान की ‘किराए की कोख’। डा. सुब्रहमन्यम स्वामी ने इसका विरोध किया कि यह ‘किराए की कोख’ देने वाली औरत हिदू ही क्यों है? इसके पहले भी डा. स्वामी और कमलेश्वर की भिड़ंत हो चुकी थी एक बार। उपन्यास ‘काली आंधी’ को लेकर। स्वामी ने कमलेश्वर को बधाई दी थी कि ‘काली आंधी’ में उन्होंने इंदिरा गांधी का बहुत अच्छा चरित्र चित्रण किया है। कमलेश्वर ने उन्हें सूचित किया कि उनके उपन्यास में वह जिसे इंदिरा गांधी समझ रहे हैं, दरअसल वह विजयाराजे सिंधिया हैं। स्वामी भड़क गए थे। फिर बात ‘किराए की कोख’ पर उलझी। बात बढ़ती गई। जनता पार्टी की सरकार आ गई। टकराव बढ़ता गया। मैनेजमेंट का दबाव भी। कमलेश्वर ने ‘सारिका’ के एक संपादकीय में साफ़ लिखा कि यह देश किसी एक मोरार जी देसाई, किसी एक चरण सिंह, किसी एक जगजीवन राम भर का नहीं है। सारिका छप गई। पर यह अंक बाज़ार में नहीं आया। सारिका बंबई से दिल्ली आ गई। बाद में कमलेश्वर की सारिका से भी विदाई हो गई। यह एक लंबी कथा है। पर कमलेश्वर तब नहीं झुके। कमलेश्वर को यह संपादकीय पढाने के लिए एक नई पत्रिका निकालनी पड़ी।
पिटे तो क्या, खबर तो है, पर…
इंदिरा गांधी की हत्या की याद होगी ही आप को। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में पूरे देश में इंदिरा लहर ही नहीं, आंधी चली। पर तबके प्रधानमंत्री राजीव गांधी और उनके मैनेजरों यथा अरूण नेहरू जैसों को फिर भी यकीन नहीं था अमेठी की जनता पर। बूथ कैपचरिंग पर यकीन था। करवाया भी। यह चुनाव कवर करने लखनऊ से भी कुछ पत्रकार गए थे। आज से अजय कुमार, जागरण से वीरेंद्र सक्सेना। बूथ कैपचरिंग की रिपोर्ट करने के चक्कर में सभी पिटे। फ़ोटोग्राफ़र के कैमरे से रील निकाल ली गई। वगैरह-वगैरह। जो-जो होता है ऐसे मौकों पर वह सब हुआ। हालांकि फ़ोटोग्राफ़र ने पहले ही तड़ लिया था कि रील निकाली जा सकती है। कैमरा छीना जा सकता है। सो वह फ़ोटो खींचते जाते थे और रील झाड़ियों में फेंकते जाते थे। और अंतत: हुआ वही। पिटाई-सिटाई के बाद उन्होंने रील बटोर लिया। आए सभी लखनऊ। पिटने का एहसास बड़ी खबर पा लेने के गुमान में धुल गया था। पर जब अपने-अपने आफ़िस पहुंचे ये पत्रकार सीना फ़ुलाए तो वहां भी उनकी धुलाई हो गई। डांटा गया कि आप लोग वहां खबर कवर करने गए थे कि झगड़ा करने? असल में तब तक सभी अखबारों के दफ़्तर में अरूण नेहरू का धमकी भरा फ़ोन आ चुका था। सभी लोगों को कहा गया कि बूथ कैपचरिंग भूल जाइए, प्लेन-सी खबर लिखिए। ‘आज’ अखबार के अजय कुमार तब लगभग रोते हुए बताते थे कि अमेठी में पिटने का बिल्कुल मलाल नहीं था। दिल में तसल्ली थी कि पिटे तो क्या, खबर तो है! पर जब दफ़्तर में भी आ कर डांट खानी पड़ी तो हम टूट गए।
बाद में जनसत्ता के तबके संवाददाता जयप्रकाश शाही को उस फ़ोटोग्राफ़र ने बताया कि उसके पास फ़ोटो है। शाही ने फ़ोटो ली और खबर लिखी। छपी भी तब जनसत्ता में। पर बाद में वह फ़ोटोग्राफ़र, साफ़ कहूं तो बिक गए। और बता दिया कि वह फ़ोटो फ़र्ज़ी है और ऐसी कोई फ़ोटो उन्होंने नहीं खींची। खैर।
हिंदू, वायर, कारवां, क्विंट आदि…
राफेल पर राहुल गांधी के चौकीदार चोर है के सुर में सुर मिलाते हुए हिंदू, वायर, कारवां, क्विंट जैसे तमाम मीडिया की छापेमारी और उसका नतीजा तो आप अभी नहीं ही भूले होंगे। अगर गोदी मीडिया ही है, तो यह मामला इतना उछला कैसे भला? बहरहाल जनता ने राफेल पर अपने निर्णय से मोदी वार्ड के इन मरीजों की बोलती बंद कर दी। अच्छा बोफ़ोर्स की याद है आप सब को? तब जिस तरह कुछ अखबार मालिकों ने लगभग पार्टी बंदी कर अखबारों का इस्तेमाल किया, यह भी याद है ना? फिर तो अखबारों को हथियार बना लिया गया। जब जिस की सत्ता तब तिस के अखबार।
राजा का बाजा
2 जून , 1995 को लखनऊ में मुलायम सिंह ने सुबह-सुबह जिस तरह अपने गुंडों को मायावती पर हमले के लिए भेजा था, मुख्यमंत्री रहते हुए भी, वह तो अश्लील था ही, अपने पत्रकारों ने उससे भी ज़्यादा अश्लीलता बरती। पी.टी.आई. ने इतनी बड़ी घटना को सिर्फ़ दो टेक में निपटा दिया तो टाइम्स आफ़ इंडिया ने दो कॉलम की छोटी सी खबर में अंडरप्ले करके दिया। बाद में इसके कारणों की पड़ताल की गई तो पाया गया कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि पी.टी.आई के व्यूरो चीफ़ और टाइम्स के तत्कालीन रेज़ीडेंट एडीटर ने मुलायम शासनकाल में विवेकाधीन कोष से लाखों रुपए खाए हुए थे। तमाम और पत्रकारों ने भी लाखों रुपए खाए थे। और वो जो कहते हैं कि राजा का बाजा बजा! तो भैय्या लोगों ने राजा का बाजा बजाया। आज भी बजा रहे हैं।
सो राजा लोगों का दिमाग खराब हो जाता है। अब जैसे अखबार या चैनल प्रोड्क्ट में तब्दील हैं, वैसे ही अपने नेता भी राजा में तब्दील हैं। सामंती आचरण में लथ-पथ हैं। वो चाहे ममता बनर्जी ही क्यों न हों? ममता बनर्जी को कोई यह बताने वाला नहीं है कि सिर्फ़ हवाई चप्पल और सूती साड़ी पहनने या कुछ कविताएं या लेख लिखने, कुछ इंटेलेक्चुअल्स के साथ बैठ लेने भर से या गरीबों की बात या मुद्दे भर उठा लेने से कोई प्रजातांत्रिक नहीं हो जाता, जब तक वह व्यवहार में भी न दिखे। नहीं तो वज़ह क्या है कि दबे कुचलों की बात करने वाले तमाम नेता आज सरेआम तानाशाही और सामंती रौबदाब में आकंठ डूबते-उतराते दिखते हैं। वह चाहे ममता बनर्जी हों, मायावती हों, लालू या मुलायम हों। शालीनता या शिष्टता से जैसे इन सब का कोई सरोकार ही नहीं दीखता !
ऐसा शायद इसलिए कि भडुआगिरी में न्यस्त हमारी पत्रकारिता राजा का बाजा बजाने में न्यस्त भी है और ध्वस्त भी। हमारी एक समस्या यह भी है कि हम पैकेजिंग में सजी दुकानों में पत्रकारिता नाम के आदर्श का खिलौना ढूंढ रहे हैं। जब कि हम जानते हैं कि यह नहीं होना है अब किसी भी सूरत में। पर हमारी ज़िद है कि- मैया मैं तो चंद्र खिलौना लैहों। किसी बंधु को मिले यह चंद्र खिलौना तो भैय्या हमें भी बताना। दूध भात लेकर आ जाऊंगा।
अभी और अभी तो बस राजा का बाजा बजा! फर्क बस यही है कि किसी का राजा मोदी है, किसी का राहुल गांधी, किसी का लालू, मुलायम। अब प्रजातंत्र है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, सोशल मीडिया है तो आप भी अपने मन के राजा हैं। जिस का मन करे उस का बाजा बजाइए। जिस का मन करे उस की बैंड बजाइए। धन्य-धन्य लोग और धन्य-धन्य गोदी मीडिया का जुमला!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार हैं। आलेख उनकी फेसबुक वॉल से साभार)