कश्मीर फाइल्स।
दयानंद पांडेय।
पिछली दो रातें ठीक से सो नहीं सका। दिन में सोने की कोशिश की। फिर नहीं सो सका। कश्मीरों पंडितों का नरसंहार सोने नहीं देता। कुछ और सोचने नहीं देता। कश्मीर फ़ाइल्स देखे दो दिन हो गए हैं। लेकिन कश्मीरी पंडितों का दुःख है कि दिल में दुबका हुआ है। किसी मासूम की तरह गोद में दुबका बैठा है। छाती से चिपका हुआ। बहुत कोशिश के बावजूद नहीं जा रहा। इस कश्मीर फ़ाइल्स के बारे में बहुत चाह कर भी लिख नहीं पा रहा था। उनका दुःख लासा की तरह चिपक गया है। क्या करुं। इस फ़िल्म ने रुलाया भी बहुत है। कोई भी भावुक व्यक्ति रो देगा।
प्रसिद्ध फ़िल्मकार विधु विनोद चोपड़ा जो ख़ुद कश्मीरी हैं, की कश्मीर पर बनी फ़िल्म शिकारा: द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ कश्मीरी पंडित भी देखी है। पर वह फैंटेसी थी। व्यावसायिक और बेईमानी भरी फ़िल्म थी। कश्मीरी पंडितों के नरसंहार का आंखों देखा हाल नहीं बताती थी शिकारा। मनोरंजन करने वाली फ़िल्म थी। सो उस में अंतर्विरोध भी बहुत थे। मनोरंजन में दबा डायरेक्टर दुःख बेच तो सकता है, दुःख दिखा नहीं सकता। दुःख महसूस करने की चीज़ होती है। नरसंहार की कहानी में प्यार और प्यार के गाने नहीं फिट हो सकते। कैसे फिट हो सकते हैं भला। तो विधु विनोद चोपड़ा ने प्रेम कहानी परोस दी थी।
सेक्यूलरिज्म के मुर्ग़ मुसल्लम में सबके सब ख़ामोश
कई बार दुःख चीख़ कर सामने आता है तो कई बार चुपचुप। तो कश्मीर फ़ाइल्स चुपचाप चीख़ती है। चीख़ती हुई कश्मीरी पंडितों के नरसंहार की लोमहर्षक कथा कहती है। बिना लाऊड हुए। कश्मीरी पंडितों के लहू में डूबी कथा। क्या स्त्री, क्या बच्चे, क्या बूढ़े, क्या जवान, सबके लहू में डूबी अंतहीन लहू की कथा। जेहाद के क्रूर हाथों और इन जेहादियों को मदद करता सत्ता का सिस्टम। क्या मास्टर, क्या डाक्टर, क्या पत्रकार, क्या पुलिस अफ़सर, क्या आईएएस अफ़सर। हर कोई जेहादियों के निशाने पर है। प्रताड़ित और अपमानित है। नरसंहार का शिकार है। कब कौन बेबात मार दिया जाए, कोई नहीं जानता। लेकिन शारदा पंडित को सबके सामने नंगा कर सार्वजनिक रुप से घुमाना और आरा मशीन में चीर देना, देख कर कलेजा मुंह को आ जाता है।
कुछ समय पहले कश्मीरी पंडित दिलीप कुमार कौल की एक कविता पढ़ी था, शहीद गिरिजा रैना का पोस्टमार्टम। इस कविता में गिरिजा रैना के साथ यही जेहादी सामूहिक बलात्कार कर आरा मशीन में चीर दिया जाता है। यह कविता पढ़ कर भी मैं हिल गया था। नहीं सो पाया था। लेकिन ऐसी ह्रदय विदारक घटनाओं की कश्मीर में तब बाढ़ आई हुई थी। सारे मानवाधिकार संगठन रजाई ओढ़ कर सो गए थे। पूरे देश में जेहादी आतंकवाद मासूम नागरिकों को अपना ग्रास बनाए हुए था। पर सेक्यूलरिज्म के मुर्ग़ मुसल्लम में सबके सब ख़ामोश थे। जब अपने ऊपर आतंकी हमले का लोग प्रतिकार करने में शर्मा रहे थे, कहीं सांप्रदायिक न घोषित कर दिए जाएं, इसलिए लजा रहे थे। तो कश्मीरी पंडितों पर भला कोई क्यों बात करता।
जिहादियों के कुकर्म दिखाना सांप्रदायिक कैसे?
यहां तो लव जेहाद के खिलाफ बोलना भी हराम बता दिया गया था। कश्मीरी पंडितों पर आज भी कुछ बोलिए और लिखिए तो विद्वान लोग बताते हैं कि यह तो माहौल ख़राब करना है। इन विद्वानों के दामाद जेहादी जो चाहें, करें। नरसंहार भी करें तो वह मनुष्यता के हामीदार कहलाते हैं। लेकिन इन विद्वानों के दामाद जेहादियों का हत्यारा चेहरा दिखाने वाला सांप्रदायिक क़रार दे दिया जाता है। हिंदू-मुसलमान करने वाला बता दिया जाता है। भाजपाई, संघी और भक्त की गाली से नवाज़ा जाता है। अजब नैरेटिव गढ़ दिया गया है। इसीलिए जो बॉलीवुड कभी हर चार में दो फ़िल्म की शूटिंग कश्मीर में करता था, कम से कम गाने तो करता ही था। इन कश्मीरी पंडितों का नरसंहार भूल गया।
दाऊद की बहन हसीना पार्कर का चेहरा साफ़ करने के लिए हसीना पार्कर पर फ़िल्म बनाना तो याद रहा। पर कश्मीरी पंडितों का नरसंहार और उनको कश्मीर से जेहादियों द्वारा भगा देना भूल गया। हेलमेट, हैदर और मुल्क़ जैसी प्रो टेररिस्ट फ़िल्में लेकिन बनाता रहा यही बॉलीवुड। लेखक, बुद्धिजीवी, पत्रकार ही नहीं, फ़िल्मकार भी सेक्यूलरिज्म और हिप्पोक्रेसी के कैंसर से पीड़ित हैं। कश्मीर फ़ाइल्स फ़िल्म के ख़िलाफ़ फतवा जारी हो गया है कि यह फ़िल्म माहौल ख़राब करने वाली फ़िल्म है। ऐसे जैसे कश्मीर फ़ाइल्स ने इनके नैरेटिव पर हमला कर दिया हो। फ़िल्म देखने के बाद आप पाएंगे कि कश्मीर फ़ाइल्स सचमुच इन हिप्पोक्रेट्स पर बहुत कारगर और क़ामयाब हमला है। इनके सारे नैरेटिव ध्वस्त कर दिए हैं इस अकेली एक फ़िल्म ने। कश्मीर फ़ाइल्स देखने के बाद दो आंखें बारह हाथ फ़िल्म में भरत व्यास का लिखी वह एक प्रार्थना याद आती है : ऐ मालिक तेरे बंदे हम, ऐसे हो हमारे करम/ नेकी पर चले और बदी से टले, ताकी हँसते हुये निकले दम।
अभी तक किसी फ़िल्म में नहीं देखी ऐसी ख़ामोशी
फ़िल्म शुरु होते ही पूरे सिनेमाघर में एक अजीब निस्तब्धता छा जाती है। हाल हाऊसफुल है पर पिन ड्राप साइलेंस। थी। कभी नहीं। शाम सात बजे का शो है। ज़्यादातर लोग परिवार सहित आए हैं। पर कहीं कोई खुसफुस नहीं। फ़िल्म की गति, कथा की यातना ऐसी है, विषय ऐसा है कि कुछ और सोचने का अवकाश ही नहीं मिलता। अचानक इंटरवल होता है। भारी क़दमों से, भारी मन से कुछ लोग उठते हैं। जल्दी ही लौट कर फिर अपनी-अपनी कुर्सियों पर धप्प से बैठ जाते हैं। बिन कुछ बोले। बिना किसी की तरफ देखे।
कश्मीर फ़ाइल में फ्लैश बैक बहुत है। कहीं कोई उपकथा या क्षेपक नहीं है। पूरी फ़िल्म में एक गहरी उदासी है। निर्मम और ठहरी हुई उदासी। पतझर जैसी। बर्फ़ में गलती हुई। ठहर-ठहर कर अतीत को देखती हुई। डल झील में जमती और पिघलती बर्फ़ की तरह। वर्तमान से जोड़ती हुई। कोई शिकारा जैसे पानी को चीरता हुआ चले। किसी हाऊस बोट की तरफ। फिर लौट-लौट आए। दुःख के और-और, ओर-छोर लेकर। कश्मीरी पंडितों के अपमान, दुराचार और नरसंहार को टटोलती हुई। जैसे कोई निर्धन बच्चा नदी के जल में कोई सिक्का खोजे। फ़िल्म कश्मीरी पंडितों की पीड़ा, उनकी यातना की इबारत उसी तरह खोजती और बांचती मिलती है। अकथनीय दुःख को दृश्य और शब्द देती हुई। कई बार बच्चा कोई सिक्का पा जाता है। कभी नहीं भी पाता। पर लगा रहता है।
हर सड़क पर कश्मीरी पंडितों पर काल मंडरा रहा
मास्टर पुष्कर नाथ भट्ट शिवरात्रि के नाटक की तैयारी में है। उनका छोटा पोता शिवा क्रिकेट खेल रहा होता है। बर्फ़ीले मैदान में। रेडियो पर क्रिकेट की कमेंट्री और बच्चों का खेल एक साथ जारी है। अचानक सचिन तेंदुलकर का नाम रेडियो पर आता है। शिवा भी सचिन-सचिन चिल्लाने लगता है। जेहादी यह सुनते हुए उसे दौड़ा लेते हैं मारने के लिए। शिवा अपने दोस्त के साथ भागता है। भागता जाता है। सड़कों पर जेहादी बेवजह सब को मौत के घाट उतारते जाते हैं। बेहिसाब। मौत के घाट उतरते जा रहे यह कश्मीरी पंडित हैं। सारे जेहादी चूंकि स्थानीय हैं, सो सब को पहचानते हैं। कौन अपना है, कौन कश्मीरी पंडित।
छुपते-छुपाते शिवा अपने दोस्त के साथ इधर-उधर भटकता रहता है। हर सड़क पर कश्मीरी पंडितों पर काल मंडरा रहा है। पुष्कर नाथ भट्ट शंकर जी के मेकअप में बैठे हुए हैं कि उनके घर से फ़ोन आता है। वह मेकअप बिना उतारे, शिव बने, स्कूटर लेकर शिवा को खोजने निकल पड़ते हैं। शिवा मिल जाता है। पर सड़क पर तो कोहराम है। अचानक एक पुलिस जीप आती है। पुष्कर नाथ भट्ट के पास। पुलिस वाला कहता है, मास्टर जी कहां ऐसे माहौल में आप निकल पड़े हैं। आइए मेरे साथ। वह पुलिस जीप के पीछे-पीछे चलने का इशारा करता है। मास्टर जी पुलिस जीप के पीछे-पीछे चल पड़ते हैं। अचानक पुलिस जीप को जेहादी बम फेंक कर उड़ा देते हैं। मास्टर जी शिवा को स्कूटर पर लिए रास्ता बदल लेते हैं।
इधर मास्टर के घर पर भी जेहादी हमला बोल चुके हैं। मास्टर पुष्कर नाथ भट्ट का पड़ोसी पहले ही उनके बेटे को घर छोड़ कर जाने की सलाह दे चुका है। माहौल बहुत ख़राब है कह कर कहता है, आपका घर मैं देख लूंगा। कब्जा करने की नीयत साफ़ दिखती है। पर मास्टर का बेटा घर छोड़ कर नहीं जाता। अचानक पड़ोसी की शह पर जेहादी घर पर हमला बोल देते हैं। बीवी के कहने पर मास्टर का बेटा, न-न कहते हुए, चावल के ड्रम में छुप जाता है। एक पल के लिए मौत टल जाती है। मास्टर पुष्कर नाथ भट्ट भी शिवा को लेकर घर आ जाते हैं। पर पड़ोसी के इशारे पर जेहादी फिर लौटते हैं। पड़ोसी इशारे से बता देता है, चावल के ड्रम में।
आतंकवादियों को हीरो बना कर जहरीला नैरेटिव स्थापित करता रहा बॉलीवुड
जेहादियों का नेता भट्ट का विद्यार्थी
जेहादी चावल के ड्रम पर इतनी गोली मारते हैं कि चावल कम, लहू ज़्यादा बहने लगता है, ड्रम से। लहू में सना चावल पुष्कर नाथ की बहू शारदा पंडित को जेहादी जबरिया खिलाता है। कहता है दो ही रास्ता है। मेरे साथ चल या यह चावल खा। यह जेहादियों का नेता है। कमांडर है। पुष्कर नाथ भट्ट का विद्यार्थी रहा है। मास्टर से कहता है, पढ़ाया था, इसलिए छोड़ रहा हूं तुम को। लेकिन मास्टर पुष्कर को और बहू शारदा को मारता बहुत है। बंदूक़ की बट से मारता है। पति के लहू में सना चावल खा कर किसी तरह जान बचती है।
ऐसा एक विवरण पढ़ा है पहले भी। दो बेटों की हत्या कर उनके खून में भात सान कर उनकी मां को खिलाया गया था। वामपंथियों ने ऐसा किया था कोलकाता में। और ऐसा करने वाले लोग बरसों मंत्री पद भी भोगते रहे, वाम शासन में। पश्चिम बंगाल का चरित्र ही रक्तपात का बना दिया गया। जो हाल-फ़िलहाल जाता नहीं दीखता। अब की यह विवरण भले फ़िल्म में सही, नंगी आंखों से देख रहा था।
शारदा पंडित और पुष्कर नाथ को बेटे के लहू में सना चावल खाते देख कर… देख रहा था और दहल रहा था। कहते हैं यह शारदा पंडित और पुष्कर नाथ सच्चे चरित्र हैं। सच्ची घटना है। आप ऐसी घटना देख कर कैसे सो सकते हैं। हां, आप कम्युनिस्ट हैं, जेहादी हैं तो फिर कोई बात नहीं। आपका तो यह नित्य का अभ्यास है। यही लक्ष्य है आपका। फिर मास्टर का परिवार घर छोड़ कर दूसरी जगह शरण ले लेते हैं। शरण देने वाले को ही जेहादी उस के घर से उठा ले जाते हैं। इस घर में कई कश्मीरी पंडित शरणार्थी हैं।
रातोरात एक ट्रक से जम्मू के लिए चल देते हैं सभी के सभी। अचानक रास्ते में एक लड़की को पेशाब लगती है। बहुत चिल्लाने पर भी ट्रक नहीं रुकता। ट्रक में स्त्री-पुरुष खचाखच भरे पड़े हैं। दो कंबल की आड़ में दो स्त्रियां ट्रक के आख़िरी छोर पर पेशाब करवाती हैं। पेशाब कर के वह लड़की उठती है और चीख़ पड़ती है। सड़क किनारे पेड़ों पर लाशें टंगी पड़ी हैं। सबके सब चीख़ पड़ते हैं। यह कश्मीरी पंडितों की सामूहिक चीख़ है। जिसे किसी सरकार, किसी पार्टी, किसी मानवाधिकार, किसी लेखक, किसी पत्रकार ने कभी नहीं सुनी। बर्फ़ से घिरी सड़कों और वृक्षों ने, जमी हुई बर्फ़ ने भी जाने यह चीत्कार कभी सुनी कि नहीं। ट्रक भी कैसे सुनता भला।
श्रीनगर का कमिश्नर
श्रीनगर का कमिश्नर ब्रह्मदत्त, पुष्करनाथ भट्ट का दोस्त है। सबसे बड़ा पुलिस अफ़सर भी पुष्कर का दोस्त है। एक डाक्टर भी और दूरदर्शन का एक पत्रकार भी। कोई एक पुष्कर की मदद नहीं कर पाता। चाह कर भी नहीं। आईएएस अफ़सर जो श्रीनगर का कमिश्नर है, उससे एक सब्जी दुकानदार भी नहीं डरता। कमिश्नर के सामने ही वह पाकिस्तान का रुपया वापसी में मास्टर को देता है। और कहता है कि यहां रहना है तो पाकिस्तान का रुपया ही लेना होगा। एक गोल्ड मेडलिस्ट लड़की है। कमिश्नर से कहती है कि राशन दुकानदार उसे इसलिए राशन नहीं बेच रहा है कि वह कश्मीरी पंडित है। कमिश्नर के कहने पर भी उसे राशन नहीं मिलता। कमिश्नर के सामने ही एयर फ़ोर्स के कुछ अफ़सर सरे आम मार दिए जाते हैं, जेहादियों द्वारा।
कमिश्नर अवाक देखता रह जाता है। वहां उपस्थित पुलिस वालों से कमिश्नर कहता है, मुंह क्या देख रहे हो। पकड़ो इन्हें। पुलिस वाले सिर झुका कर खड़े रह जाते हैं। कमिश्नर के सामने ही भारतीय तिरंगा हटा कर पाकिस्तानी झंडा लगा दिया जाता है। ऐसी अनगिन कहानियों, दुःख और नरसंहार से कश्मीर फ़ाइल्स भरी पड़ी है। मुख्यमंत्री से जब कमिश्नर यह सब बताता है तो मुख्यमंत्री कमिश्नर से कहता है यू, थोड़ा रुकता है और कहता है, आर सस्पेंडेड। यह फ़ारुख़ अब्दुल्ला है। जो एक जेहादी से मिलने को बेक़रार है। जेहादी मुख्यमंत्री आवास के लॉन में सामने ही कुर्सी पर बैठा हुआ है। मय हथियार के। बगल में खड़े पुलिस अफ़सर की कमर में लगी पिस्तौल निकाल कर कमिश्नर ब्रह्मदत्त उस जेहादी को वहीं शूट कर देता है। मुख्यमंत्री लाचार खड़ा देखता रह जाता है।
कमिश्नर ब्रह्मदत्त की यह लाजवाब भूमिका मिथुन चक्रवर्ती के हिस्से आई है। मिथुन का अभिनय पूरी फ़िल्म में बेमिसाल है। आदत के मुताबिक़ वह किसी भी दृश्य या संवाद में लाऊड नहीं हुए हैं। गुरु फ़िल्म से ही उनकी फ़िल्मोग्राफ़ी जो बदली है, वह निरंतर निखरती गई है। कश्मीर फ़ाइल्स में आईएएस अफ़सर जिस की छवि समाज में ख़ुदा की सी है। परम शक्तिशाली की है। उस अफ़सर की लाचारी और बेबसी को अभिनय में बेसाख़्ता परोसना बहुत आसान नहीं था। बहुत जटिल भूमिका को आहिस्ता-आहिस्ता कश्मीर की बर्फ़ में गला कर सख़्त किया है मिथुन ने। जम्मू में कश्मीरी पंडितों के कैंप में केंद्रीय गृह मंत्री के साथ बतौर राज्यपाल के सलाहकार रुप में उपस्थित हैं मिथुन । मुफ़्ती मुहम्मद सईद कश्मीरी पंडितों के लिए अपमानजनक तंज के साथ उपस्थित है। यहां मास्टर पुष्कर नाथ भट्ट को अचानक देख कर वह परेशान होते हैं।
नई पीढ़ी का ब्रेनवाश!
पुष्कर लगभग विक्षिप्त हो रहे हैं। रिफ्यूजी कैम्प के टेंट में गरमी और विपन्नता उनकी साथी है। मिथुन कश्मीर में उनकी वापसी का प्रबंध करते हैं। एक आरा मशीन में नौकरी का प्रबंध भी। और यहीं उनकी बहू शारदा पंडित को सबके सामने नंगा कर आरा मशीन में लगा कर चीर दिया जाता है। इसी के बाद गिन कर चौबीस कश्मीरी पंडितों को लाइन से खड़ा कर गोली मार देते हैं जेहादी। मास्टर का पोता शिवा सबसे छोटा बच्चा है, इस नरसंहार में। मास्टर शिवा के छोटे भाई कृष्ण को लेकर दिल्ली में हैं अब। पेट काट-काट कर वह उसे पढ़ाते हैं। बड़ा होता है तो जेएनयू में दाखिला लेता है। छात्र संघ की राजनीति में पड़ जाता है। जेहादियों की संगत में आ जाता है। छात्र संघ के अध्यक्ष का चुनाव लड़ता है। प्रोफेसर राधिका मेनन के आज़ादी, आज़ादी, ले के रहेंगे आज़ादी के जादू में आ जाता है। पुष्कर नाथ उसे बहुत समझाते हैं पर कृष्णा किसी सूरत नहीं समझता।
प्रोफ़ेसर राधिका मेनन ने उस का पूरी तरह ब्रेन वाश कर दिया है। इतना कि उसे अपने ग्रैंड फ़ादर की बातें जहर लगती हैं। उसे बता दिया है राधिका ने कि कश्मीरी पंडितों ने कश्मीरी लोगों का इतना शोषण किया कि उनके ख़िलाफ़ क्रांति हो गई। और उन्हें कश्मीर से भागना पड़ा। कि कश्मीरी जेहादी फ्रीडम फाइटर हैं। बुरहान वानी हमारा हीरो है। अफजल हम शर्मिंदा हैं, तेरे कातिल ज़िंदा हैं जैसे नारे लगाने लगता है कृष्णा। बात-बेबात वह इस मसले पर घर में मास्टर पुष्कर नाथ से लड़ जाता है। पुष्कर नाथ भट्ट की ग़लती यह है कि उन्होंने कृष्णा के माता-पिता और भाई शिवा को जेहादियों ने नरसंहार में मार दिया बताने के बजाय स्कूटर दुर्घटना में मारा बताया होता है। ताकि उस के मन पर विपरीत प्रभाव न पड़े। दर्शन कुमार ने कृष्णा का यह अंतर्विरोधी चरित्र जिया है।
अचानक जब पुष्कर का निधन हो जाता है तो जेएनयू का यह कृष्णा पुष्कर की अस्थियां लेकर कश्मीर जाने को होता है। पुष्कर नाथ भट्ट की इच्छा है कि उनकी अस्थियां उनके कश्मीर वाले घर में ही बिखेर दी जाएं। उनके कुछ मित्रों की उपस्थिति में। तब तक अनुच्छेद 370 हट चुका है। कश्मीर में नेट बंद है। राधिका मेनन, कृष्णा को 370 हटाने के ख़िलाफ़, इंटरनेट बंद होने के ख़िलाफ़ ब्रेन वाश कर के कश्मीर भेजती है। अपने कुछ संपर्क के सूत्र देती है। फोन नंबर देती है कि जाओ इनसे मिलो। इनकी कहानी इनसे सुनो। इन पर कितना अत्याचार हुआ है, ख़ुद देखो। और यह कहानी लाकर ख़ुद सुनाओ।
कृष्णा पहुंचता है आईएएस अफ़सर ब्रह्मदत्त के घर। सारे मित्र इकट्ठे होते हैं। पुरानी यादों में खो जाते हैं। फ्लैश बैक में आते-जाते रहते हैं। फिल्म की यह एक बड़ी कमी है कि बहुत सारी बातें, अत्याचार और नरसंहार की बातें दृश्य में कम, संवाद में ज़्यादा हैं। बहुत से विवरण संवादों के मार्फ़त परोसे गए हैं। दृश्य में होते तो और ज़्यादा प्रभावी होते। संवाद लेकिन असर डालते हैं। जैसे दूरदर्शन के रिपोर्टर को जब डाक्टर बात-बात में आस्तीन का सांप कह देता है। दोनों गुत्थमगुत्था हो जाते हैं। दूरदर्शन का रिपोर्टर अपनी ख़बरों में सरकार के निर्देश पर झूठ बहुत परोसता है। आंखों देखा झूठ। लेकिन पुलिस अफ़सर की भूमिका में पुनीत इस्सर अचानक रिपोर्टर को डाक्टर से अलग कर झटक देता है।
पुनीत इस्सर ने अपनी भूमिका को बहुत जीवंत ढंग से जिया है। पुष्कर नाथ भट्ट की भूमिका में अनुपम खेर ने अभिनय लाजवाब किया है। लेकिन लेखक निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ने पुष्कर नाथ के चरित्र को ठीक से लिखा नहीं है। टुकड़ों-टुकड़ों में बांट दिया है। जो तारतम्यता और कसावट पुष्कर जैसे चरित्र में अपेक्षित थी निर्देशक और लेखक नहीं दे पाए हैं। चूक गए हैं। कृष्णा की भूमिका में दर्शन शुरु में चरित्र में ठीक से समा नहीं पाते। कश्मीर में भी कृष्णा का चरित्र बहुत प्रभाव नहीं छोड़ता। एक स्प्लिट व्यक्तित्व की भूमिका वैसे भी कठिन होती है। कृष्णा का ब्रेनवाश बहुत बढ़िया से किया गया है। यह स्क्रिप्ट में है, निर्देशन और संवाद में भी है। भरपूर है। पर अभिनय में बहुत लचर।
जेएनयू में कृष्णा का भाषण
कश्मीर से लौट कर जब कृष्णा जेएनयू में अपना भाषण देता है, तब जा कर कहीं दर्शन के अभिनय में आंच आती है। कश्मीर के इतिहास और कश्मीरी पंडितों के गुणों और उनकी विद्वता का आख्यान और उसका व्याख्यान जिस तरह दर्शन ने अपने अभिनय में परोसा है, वह अप्रतिम है। एरियन तक को कोट किया है। ऋषि कश्यप, आदि शंकराचार्य आदि सबके योगदान को रेखांकित करते हुए कश्मीर का सारा वैभव बताते हुए बताया है कि क्यों जन्नत कहा गया है, कश्मीर को। जिसे जेहादियों ने जहन्नुम बना दिया। जेहादियों की पैरवी का सारा ब्रेनवाश राधिका का धरा का धरा रह जाता है।
अरबन नक्सल की भूमिका में पल्लवी जोशी का अभिनय बाकमाल है। जेएनयू में ले के रहेंगे आज़ादी के माहौल पर निर्देशक ने जो प्रहार किया है, अभूतपूर्व है। कभी नक्सलाइट रहे मिथुन चक्रवर्ती वामपंथी मृणाल सेन जैसे निर्देशक के अभिनेता रहे हैं। कश्मीर फ़ाइल्स में मास्टर पुष्कर नाथ भट्ट के घर में जेहादियों द्वारा लगाए गए पाकिस्तानी झंडे को हटा कर अचानक देखते हैं कि शिवलिंग को नीचे गिरा दिया गया है। वह शिवलिंग को बड़ी श्रद्धा से उठा कर फिर प्रतिष्ठापित करते हैं, यह देखना भी विस्मयकारी था।
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म, लाजिम है कि हम भी देखेंगे- अर्बन नक्सल की पसंदीदा नज़्म है। इसमें भी नज़्म को पल्लवी जोशी पर बहुत शानदार ढंग से फ़िल्माया गया है। इस नज़्म को अभी तक वामपंथी अपने कार्यक्रमों में बहुत सलीक़े से किसी हथियार की तरह इस्तेमाल करते रहे हैं। लेकिन कश्मीर फ़ाइल्स में फ़ैज़ की इस नज़्म को वामपंथियों और जेहादियों के ख़िलाफ़ भरपूर प्रहार की तरह इस्तेमाल किया गया है। इसलिए भी शायद कहा जा रहा है कि यह फ़िल्म माहौल ख़राब करने के लिए बनाई गई है। जबकि ऐसा बिलकुल नहीं है। कश्मीर फ़ाइल्स देख कर कश्मीरी पंडितों के लिए गहरी संवेदना और सहानुभूति उमगती है दिल में। कई बार रोंगटे खड़े हो जाते हैं। वहीं यह फ़िल्म जेहादियों को उनकी बेहिसाब और बेवज़ह हिंसा के लिए कोसती है। बहुत ग़ुस्सा दिलाती है। जो कि दिलानी चाहिए।
सिनेमाघर में मोदी-योगी ज़िंदाबाद- के नारे
पूरी फ़िल्म सभी दर्शक जैसे सांस रोके, निस्तब्ध हो कर देखते रहे। लेकिन आख़िर में जब कश्मीरी पंडितों को जेहादी लाइन से खड़ा कर गोली मारने लगते हैं तभी अचानक सारी निस्तब्धता तोड़ कर मोदी-योगी, ज़िंदाबाद के नारे हाल में लगने लगते हैं। बहुत ज़ोर से। उधर परदे पर गोलियां चलती रहती हैं, इधर मोदी-योगी ज़िंदाबाद- के नारे! अचानक यह नारा जैसे समवेत हो गया। स्त्रियों का स्वर भी इसमें मिल गया। मिलता गया। ऐसे जैसे कोई बड़ा फोड़ा फूट गया हो। उसका सारा मवाद बाहर आ गया हो। इस नारे में इतना गुस्सा और जोश मिला-जुला था। अचानक मैं अवाक रह गया। मुझे लगा, जैसे सिनेमाघर में नहीं, किसी राजनीतिक रैली में हूं। परदे पर कश्मीरी पंडितों की लाश बिछ चुकी थी, एक गड्ढे में। एक के ऊपर एक।
मोदी-योगी का नारा मद्धिम पड़ ही रहा था कि सबसे छोटे बच्चे शिवा को ज्यों गोली मारी गई और वह जा कर लाशों के बीच गिर गया। कि तभी जेहादियों के लिए भद्दी-भद्दी गालियां शुरु हो गईं। तेज़-तेज़। जाहिर है अब तक सभी दर्शकों का खून लेखक, निर्देशक और अभिनेता लोग खौला चुके थे। तब जब कि सात स्क्रीन वाला यह सिनेपोलिस सिनेमा घर लखनऊ के पॉश इलाक़े गोमती नगर के विभूति खंड में स्थित है। लेकिन सिनेमा घर में यह दृश्य देख कर लगा कि यह फ़िल्म दो-तीन महीने लेट आई। अगर तीन महीने पहले आई होती तो उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के परिणाम में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ पड़ गया होता।
‘अपने को कनवर्ट करो, मर जाओ या भाग जाओ’
कुल मिलाकर कश्मीर फ़ाइल्स एक भावनात्मक और बहुत ही क़ामयाब फ़िल्म है। लेखक, निर्देशक ने स्क्रिप्ट, निर्देशन और फ़ोटोग्राफ़ी में अगर कंप्रोमाइज नहीं किया होता, थोड़ी और मेहनत की होती, थोड़ा और पैसा ख़र्च कर लिया होता तो कश्मीर फ़ाइल्स एक क्लासिक फ़िल्म भी बन सकती थी। महाकाव्यात्मक आख्यान बन गई होती। जो नहीं बन पाई, इस का अफ़सोस रहेगा। फ़िल्म में कई जगह कश्मीरी में कुछ गानों का इस्तेमाल अंगरेजी कैप्शन के साथ किया गया है। कश्मीरी स्पष्ट है कि मुझे बिलकुल नहीं मालूम। लेकिन वह सारे गीत कश्मीरी पंडितों के दुःख को द्विगुणित करते रहे। उनकी यातना और बेवतनी की विभीषिका को बांचते रहे। अनुपम खेर के अभिनय में बर्फ़ की तरह गलते रहे। उनकी यातना को मन में सुई की तरह चुभोते रहे। निरंतर। ऐसे जैसे मन में कोई कांटा चुभे और चुभता ही रहे निरंतर।
इन गीतों की तासीर और मद्धम सुर अभी भी मन में मंदिर की घंटियों की तरह बज रहे हैं। कुछ संवाद भी कश्मीरी में थे, अंगरेजी कैप्शन के साथ। जैसे जेहादियों का एक नारा, कश्मीरी पंडितों को संबोधित था और बार-बार, ‘रलिव गलिव चलिव!’ यानी अपने को कनवर्ट करो, मर जाओ या भाग जाओ! एक और नारा है, “असि गछि पाकिस्तान, बटव रोअस त बटनेव सान” यानी “हमें पाकिस्तान चाहिए और हिंदू औरतें भी लेकिन अपने मर्दों के बग़ैर।” जेहादियों की यह धमकी, कश्मीरी न समझ आने के बावजूद अभी तक कान में किसी तलवार की तरह कान को चीर रही है। चीरती ही जा रही है।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार हैं। ये लेखक के अपने विचार हैं)