सुरेंद्र किशोर।
लेखक, सुप्रीम कोर्ट के जाने माने वकील और संविधानविद अब्दुल गफूर मजीद नूरानी ने अस्सी के दशक में अपने शोध के जरिए यह साबित कर दिया था कि सन 1962 में चीन ने सोवियत संघ की पूर्व अनुमति के बाद ही हम पर चढ़ाई की थी। ए.जी.नूरानी द्वारा किए गए उस शोध के बाद इस देश में चल रहे यह प्रचार ध्वस्त हो गया कि सोवियत संघ हमारा हर मौसम का दोस्त है। 16 सितम्बर 1930 को जन्मे ए.जी. नूरानी का पिछले दिनों 29 अगस्त 2024 को निधन हो गया।

सन 1987 में लेखक एजी.नूरानी ने चीनी दस्तावेजों और सोवियत प्रकाशन का संदर्भ देते हुए ‘इलेस्ट्रटेड वीकली ऑफ़ इंडिया’ में  लिखा था, ‘‘जब चीनी नेताओं ने सोवियत संघ के नेता निकिता खु्रश्चेव को बताया कि सीमा पर भारत का रुख आक्रामक है तो उन्होंने भारत के खिलाफ चीनी कार्रवाई को मंजूरी दे दी।’’ वकील नूरानी के अनुसार  2 नवंबर, 1963 के चीनी अखबार ‘द पीपुल्स डेली’ ने लिखा था कि ‘‘8 अक्तूबर 1962 को चीनी नेता ने सोवियत राजदूत से कहा कि भारत हम पर हमला करने वाला है और यदि ऐसा हुआ तो चीन खुद अपनी रक्षा करेगा।’’
13 अक्तूबर, 1962 को खु्रश्चेव ने चीनी राजदूत से कहा कि ‘हमें भी ऐसी जानकारी मिली है और यदि हम चीन की जगह होते तो हम भी वैसा ही कदम उठाते जैसा कदम उठाने को वह सोच रहा है।’ इसके बाद  20 अक्तूबर 1962 को चीन ने भारत पर हमला कर दिया।

सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के अखबार ‘प्रावदा’ ने 25 अक्तूबर 1962 को संपादकीय में लिखा कि चीन मैकमोहन रेखा को नहीं मानता और हम इस मामले में चीन का समर्थन करते हैं।
5 नवंबर, 1962 को इसी अखबार ने लिखा कि ‘‘भारत को चाहिए कि वह चीन की शर्त को मान ले।’’
चीनी हमले के समय हमारी सेना के पास न तो गर्म कपड़े थे और न ही जूते। समुचित हथियारों की बात कौन कहे! जब चीन ने हमला किया तो भारतीय सेना ने कैसे मुकाबला किया? तब के युद्ध संवाददाता मनमोहन शर्मा ने भारतीय सेना की साधनहीनता पर विस्तार से लिखा है।
उससे पहले रक्षा मंत्रालय ने वित्त मंत्रालय से एक करोड़ रुपए की मांग की थी,पर वह भी नहीं मिला। हमारी तब की सरकार शांति के कबूतर उड़ा कर काम चला लेना चाहती थी।
14 नवंबर, 1962 को रक्षा मंत्री वाई.बी. चव्हाण ने पुणे में कहा था, ‘हमें यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि चीन के खिलाफ सोवियत संघ हमारा साथ देगा।’ कुल मिलाकर अतीत में जब हमने सही दोस्त का चयन नहीं किया और न ही रक्षा तैयारियां ंकीं तो हम हारे।

अमेरिका के सामने गिड़गिड़ाए नेहरू

चीन के हाथों पराजय से हतप्रभ नेहरू ने मदद के लिए अमेरिका की ओर रुख किया। उन दिनों बी.के. नेहरू अमेरिका में भारत के राजदूत थे। नेहरू ने अमरीकी राष्ट्रपति जाॅन एफ. कैनेडी को जो त्राहिमाम संदेश भेजा था, वह इतना दयनीय और समर्पणकारी था कि नेहरू  के रिश्तेदार बी.के. नेहरू कुछ क्षणों के लिए इस द्विविधा में पड़ गये थे कि इस पत्र को व्हाइट हाउस तक पहुंचाया जाए भी या नहीं। पर, उन्होंने बेमन से पहुंचा दिया।
दरअसल उस पत्र में अपनाया गया रूख उससे पहले के जवाहर लाल नेहरू के विचारों के ठीक विपरीत था।
दरअसल नेहरू इस पत्र के साथ अपनी गलत विदेश व घरेलू नीतियों को खुद ही बदल देने की भूमिका तैयार कर रहे थे। अपनी जिन गलतियों के कारण चीन के साथ-साथ सोवियत संघ से उन्हें जोरदार झटके मिले थे, उन्हें वे सुधारने की कोशिश कर रहे थे। कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि यदि जवाहर लाल नेहरू कुछ और साल जीवित रहते तो वे अपनी नीतियों को जरूर पूरी बदल देते। पर, चीन के हाथों भारी पराजय के मात्र 18 महीने के बाद ही उनका निधन हो गया।वे भीतर से पूरी तरह टूट चुके थे।

कैनेडी के नाम नेहरू की चिटठी का एक अंश

anuj.dhar@axl on X: "Historic letter: King George VI approves Prime Minister Jawaharlal Nehru's proposal to appoint C Rajagopalachari as India's second Governor General in 1948 after Lord Louis Mountbatten, who was free

जवाहरलाल नेहरू ने 19 नवंबर 1962 को कैनेडी को लिखा था कि ‘‘न सिर्फ हम लोकतंत्र की रक्षा के लिए बल्कि इस देश के ही अस्तित्व की रक्षा के लिए भी चीन से हारता हुआ युद्ध लड़ रहे हैं जिसमें आपकी तत्काल सैन्य मदद की हमें सख्त जरूरत है।’’
दूसरी ओर अमेरिका के राष्ट्रपति कैनेडी से नेहरू की एक पिछली मुलाकात के बारे में खुद कैनेडी ने एक बार कहा था कि ‘‘नेहरू का व्यवहार काफी ठंडा रहा।’’
पंचशील के प्रवर्तक नेहरू ने हालांकि खुद को गुट निरपेक्ष घोषित किया, पर उनका मन सोवियत संघ व उसकी कुछ नीतियों में ही बसता था। याद रहे कि 19 नवंबर 1962 को नेहरू ने भारी तनाव, चिंता और डरावनी स्थिति के बीच कैनेडी को कुछ ही घंटे के बीच दो-दो चिट्ठियां लिख दीं। इन चिट्ठियों को हाल तक गुप्त ही रखा गया था ताकि नेहरू की दयनीयता देश के सामने न आ पाये। नेहरू भक्त मर्माहत न हों ! आखिरकार उनकी फोटोकाॅपी इंडियन एक्सप्रेस में छप ही गई।

जांच रिपोर्ट दबाई

चीन के हाथों 1962 में पराजय के कारणों की भारत सरकार ने जांच कराई। जांचकर्ता थे- भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट जनरल हैंडरसन ब्रुक्स और ब्रिगेडियर पी.एस. भगत। जांच रपट को भारत सरकार ने दबा दिया।
2014 के मार्च में वह रिपोर्ट सामने आई। ऑस्ट्रेलियाई पत्रकार नेवेल मैक्सवेल ने इस रिपोर्ट के सौ पेज अपनी वेबसाइट पर डाल दिए। उस रिपोर्ट के अनुसार भारत की हार के लिए जवाहरलाल नेहरू जिम्मेदार थे।
मैक्सवेल ने भारत-चीन युद्ध पर 1971 में अपनी किताब प्रकाशित की थी। मैक्सवेल भारत में संवाददाता थे। मैंने पहली बार मैक्सवेल का नाम सन 1967 में तब जाना था जब उन्होंने डा.राममनोहर लोहिया के निधन पर एक बहुत अच्छा लेख लिखा था।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)