#satyadevtripathiसत्यदेव त्रिपाठी।

लीजिए, आज़ादी के अमृत महोत्सव के वर्ष में भी सितम्बर आ गया – हिंदी का महीना। और आज हिंदी दिवस के दिन इस वर्ष भी हर वर्ष की तरह एक तरफ़ हिंदी के विकास के अवरुद्ध होने और उसकी उपेक्षा की तोहमतें लगायी जायेंगी, तो दूसरी तरफ़ हिंदी की शान में क़सीदे काढ़े जाएँगे…। पर कसीदों में एक नया तमग़ा बड़ी शान से सीना फुलायेगा कि आज़ादी के अमृत महोत्सव के इस (पचहत्तरवें) साल में 10 जून, 2022 को शुक्रवार के दिन संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) ने हिंदुस्तान की हिंदी भाषा के प्रस्ताव को मंज़ूरी दे दी है। इससे दुनिया की भाषाओं की चर्चा में हिंदी का परिदृश्य वैश्विक हो गया है।

और इस तमग़े की खबर पर मुझे पुराण की वह कहानी याद आ रही है कि सबसे बड़ा देवता चुनने के लिए त्रिलोक की परिक्रमा करने की होड़ बदी गयी। सभी देवता अपने-अपने तेज वाहनों पर दौड़ पड़े…। लेकिन चूहा वाहन वाले बेचारे गणेश क्या करें… उन्होंने पिता-माता की परिक्रमा कर ली और सर्वश्रेष्ठ देवता माने गये। तब अपनी जड़ों की ऐसी कद्र थी। या यह कथा कहकर पुराणकार हमें अपने मूल से जोड़ने की कोशिश में जुड़ने की सीख दे रहा था।

सारे विकास अंग्रेज़ी में

आज हम भी उन्हीं सब देवताओं की तरह हिंदी की वैश्विक छबि व स्तर के पीछे पड़े हैं और अपने घर में दादा-दादी के समक्ष पिता-माता व बच्चों में हिंदी के क्या हाल हो रहे हैं, इस पर किसी का ध्यान नहीं है। कोई इस पर नहीं सोच रहा…। दो नमूने पेश हैं-

मै स्नान घर में नहाने गया और गरम पानी नहीं आया। चिल्लाके पूछा कि पानी गर्म क्यों नहीं आ रहा? घर में से हाई स्कूल फेल 50 वर्षीय बिटिया ने ज़ोर से जवाब दिया – ‘गीज़र में एयर भर गयी होगी…’। फिर वह आयी देखने, तो मैंने पूछा – ‘एयर भर गयी, हवा नहीं भरी’?

उसका जवाब अपनी सहजता में और अधिक मारक -‘एयर माने हवा…हम्मैं का मालूम’?

उसके बाद की पीढ़ी के हमारे पोते-पोतियाँ अब बताते है -हम लोग टू ब्रदर्स टू सिस्टर्स हैं।

बरवक्त बस, इन दोनो के ज़रिए ही सोचें, तो पहली बात कि सारे विकास अंग्रेज़ी में हो रहे है। जिस दुकान वाले ने गीज़र बेचा होगा, उसे हिंदी-अंग्रेज़ी से लेना-देना नहीं। गीज़र बिकना चाहिए। जो बनाने आया, वह मिस्त्री नही, अब मैकेनिक है। माध्यमिक-उच्चतर माध्यमिक (हाई स्कूल-इंटर) तक पढ़ा होगा…। उसे सिखाने वाले ने ‘एयर’ कहा होगा। वह सिखाने वाला ‘एयर’ के मायने जानता होगा – हवा। शायद यह मिस्त्री भी जाँत हो, क्योंकि सायकल में हवा ही भराते थे और आज भी भराते हैं…। भले अब स्कूटरों-कारों में एयर भरा रहे हों। लेकिन उसने सोचा नहीं। जो सुना, वह बोलने लगा…। लेकिन उसके बोलने के चलन में वही एयर जब मेरी बेटी या किसी आम ग्राहक तक आयी, तो हवा से एयर का सम्बंध टूट गया। एयर अपना काम करने लगा। याने हिंदी को दबेरकर अंग्रेज़ी आने की यह रासायनिक प्रक्रिया है।

‘कोटि जतन कोऊ करे, परे न प्रकृतिहिं बीच’

इसी प्रक्रिया में हमारे शब्द लुप्त होने लगे और अंग्रेज़ी शब्द आने लगे। इसी क्रम में आप फ्रिज-कूलर, टीवी, हीटर, मोबाइल, ट्रैक्टर, पंपिंग सेट, …आदि सारे उपकरणों को देखिए। आज का जीवन गाँव से बाज़ार-शहर-महानगर तक अंग्रेज़ीमय है – भूमंडलीकरण (अरे भाई, वही  ग्लोबलाइज़ेशन…) को धन्यवाद!! लेकिन थोड़ा और आगे-पीछे की ओर चलें…

अंग्रेज़ी में विकास पहले भी होते थे। जैसे रेडियो आया, तो उसकी हिंदी बनायी गयी – सरकार ने पहल की। पंतजी ने शब्द दिया – आकाशवाणी। चल पड़ा। छोटे से आसान शब्द ‘रेडियो’ के सामने इतना भारी भरकम आकाशवाणी चलता नहीं, पर चलाया गया, तो चला भी, क्योंकि  कोई भी शब्द सरल-कठिन नहीं होता। बोलने से रवाँ होकर आसान हो जाता है और न बोलने से कोई भी आसान शब्द अगूढ हो जाता है। लोग स्टूडेंट बोल रहे हैं, लेकिन उससे बहुत सीधा-सादा ‘छात्र’ नहीं बोलते – बात प्रयोग की है, अभ्यास की है -अनभ्यासे विषम् शास्त्रम्।

यह परम्परा इरादतन व रवायतन चलती हुई 20-25 सालों बाद आये टेलीविजन तक चली। ‘दूरदर्शन’ शब्द भी बनाया गया। चला भी। लेकिन अब बहिष्कृत हो गया, क्योंकि टेलीविजन भी तो अंग्रेज़ी के संक्षिप्त करने (शॉर्ट फ़ॉर्म या इनीशियल) की वृत्ति में ‘टीवी’ हो गया, तो दूरदर्शन ‘बेचारा’ हो गया, हार गया। क्योंकि हमारी भारतीय परम्परा में कटनी-छँटनी (कट-शॉर्ट) का कोई विधान है नहीं – न काम में, न नाम में। तो दूर दर्शन को दू.द. कर नहीं सकते, क्योंकि भारतीय शब्दों की प्रकृति ही संक्षिप्त करने वाली नही। अ.बि. वाजपेयी बोलने चलिए, तो अबि-अबी से अभी होते देर न लगेगी। और आप माफ़ करें, तो इस शैली का एक विद्रूप भी बता दूँ कि इसकी नक़ल करने में जब गुजराती के प्रसिद्ध रचनाकर गुलाब दास ब्रोकर के लिए अख़बार में गु. दा. ब्रोकर छापने चले और गु व दा के बीच की बिंदियाँ छूट गयीं…तो क्या ग़ज़ब हो गया!! लिहाज़ा, सबकी अपनी-अपनी प्रकृति होती है। और रहीम कह गये हैं -‘कोटि जतन कोऊ करे, परे न प्रकृतिहिं बीच’।

रवायतों से कोई मतलब नहीं

फिर तो जब विकास का प्रवाह उमड़ा, तकनीक के आविष्कारों का रेला चला, और भूमण्डलीकरण की शह पर अंग्रेज़ी की सनक (क्रेज़) सवार हुई, तो सब कुछ इसी में बह गया। और सरकारों को अब राष्ट्रीय-सांकृतिक अस्मिता…आदि के कामों के लिए फुर्सत कहाँ? वे तो कुर्सी बचाने में लगे हैं। विरोधियों के छिद्रान्वेषण से उन्हें फ़ुरसत कहाँ?

अब इसी मुक़ाम पर दूसरे उदाहरण को लें कि जिन बच्चों की प्राथमिक किताबों के पहले पन्ने पर लिखा हो – ‘हम देशवासी एक दूसरे के भाई-बहन हैं’। वही बच्चा अपने घर-परिवार के बारे में बताते हुए क्यों कहता है – ‘हम टू ब्रदर्स टू सिस्टर्स हैं’? भाई-बहन के मुक़ाबले ब्रदर-सिस्टर आसान भी नहीं है कि मुख-सुख के लिए ऐसा हो रहा हो। इसे अब आज के एक सांस्कृतिक विकास के समानांतर भी देखना होगा।

हम अपनी बहनों को बहिनी-बहिनी कहते थकते न थे। भाइयों को हर बात में भैया-भैया कहने की सनक होती थी। वह संस्कृति धीरे-धीरे चली गयी। आज गाँव में एक महीने रहने के दौरान मैं इन शब्दों को किसी के घर में बोले जाते नहीं सुन पाता।

एक और बात – ऐसी भी एक प्रथा बाहर से आयी है कि अध्यापक को छात्र भी नाम से बुलाएँ…। यह रवाँ नहीं हुई है, लेकिन हसरत से देखी-सुनी जा रही है। विरोध तो बिलकुल नहीं हो रहा। जैसे सरकार को फुर्सत नहीं, पड़ी नहीं, उसी तरह आज की पढ़ी-लिखी पीढ़ी को भी इन रवायतों से कोई मतलब नहीं। एम.ए., बी.एड. करके माध्यमिक-उच्चतर माध्यमिक में पढ़ा के सेवामुक्त हुए मेरे ख़ास भाई के दो बेटों ने उनके बड़े भाई के बेटे को आजीवन कभी भैया नहीं कहा। गाँव-ख़ानदान की पोतियों को भी बड़ी बहनों को ‘बहिन’ कहते नहीं सुनता…। मेरे तो कान तरस गये इन शब्दों के लिए और इनके पीछे के संस्कार-संस्कृति के लिए और सर्वाधिक तो इन सबसे बनते मन के भावों से व्यक्त होते मानुष भाव के लिए…।

यथा राजा, तथा प्रजा

एक तीसरी बात, जिस सरकार व व्यवस्था का उल्लेख पीछे हुआ – रेडियो के लिए आकाशवाणी बनने में, उसकी भी एक फ़ितरत होती है, जिसका असर कहीं ज़्यादा निर्णायक होता है -‘यथा राजा, तथा प्रजा’ का मुहावरा यूँ ही नहीं बना है। तो इस राजा-प्रजा वाले विकास की कथा भी दैनन्दिन के ऐसे व्यंजक शब्दों के माध्यम से कहूँ…, तो पहले लोग पढ़ने के लिए गुरु-गृह जाते थे  -गुरु-गृह गये पढ़न रघुराई।विद्याश्रम जाते थे। फिर पाठशाला-विद्यालय जाने लगे। फिर मदरसे जाना होने लगा। अब तो स्कूल-कॉलेज जाते हैं…। लिखने में विश्वविद्यालय या विद्यापीठ भले मौजूद हो, है तो बात-व्यवहार में ‘यूनिवर्सिटी’ ही।

-इसी तरह ग्रंथ-पुस्तक पढ़ते थे, फिर किताब पढ़ने लगे। अब तो बस, बुक पढ़ते हैं। बुक का विकल्प ईबुक आया है, जिसमें अब किसी परावर्तन की गुंजाइश भी न बचेगी।

-इसी क्रम में लेखनी से लिखते थे, फिर कलम से लिखने लगे, अब तो पेन ही रह गया है, जिसका कोई विकल्प नहीं। दूसरा कुछ रहा ही नहीं।

इस प्रकार यह बात सिर्फ़ भाषा की नहीं है, सिर्फ़ एक भाषा हिंदी की नहीं है। सभी भारतीय भाषाओं की है और इनके माध्यम से समूची भारतीय संस्कृति की है, परम्पराओं की है, विरासत की है – एक शब्द में कहें, तो भारतीयता की है। कथा देश की है हिंदी के माध्यम से।

इस अपराध को भी कभी समय लिखेगा

कहना यह है कि न जनता कुछ जान-समझ-कर रही है- ‘वह तो भेंड़ है’, न पढ़े-लिखे लोग कुछ कर-करा रहे हैं और जो व्यस्थापक चुन-चुनवा कर गये हैं, जिनका काम ही यही है, वे भी अब शासक हो गये हैं। अपने दायित्व से एकदम ही मुँह मोड़े हुए हैं, बल्कि इस गड्डलिका प्रवाह में आगे-आगे बह रहे हैं। वे लोग नियम-संहिता बनाके भी इस प्रवाह को बदल सकते हैं। लेकिन वे तो खुद इसमें मुब्तिला हैं। उनके बच्चे तो देश को छोड़ के, यही सब कुछ विदेशों में जाके सीख रहे हैं।

ऐसे में वर्तमान सरकार से बड़ी उम्मीदें थीं… कुछ-कुछ क्षेत्रों में कुछ होना शुरू भी हुआ है- ख़ासकर भ्रष्टाचार व धर्म के क्षेत्र में। ध्यातव्य है कि ये गर्म मुद्दे हैं। इनका असर ज़्यादा पड़ता है। उससे जनता के वोट जल्दी मिलते हैं। तो उसे प्राथमिकता दी जाये, इससे कोई गिला-शिकवा नहीं, लेकिन शिक्षा, भाषा, संस्कृति…आदि, जिनके असर धीरे-धीरे, पर दूरगामी होते हैं, स्थायी होते हैं, ऐतिहासिक धरोहर बनकर युगों तक याद किये जाते हैं, उन पर कम ध्यान देना भी इतिहास में दर्ज होगा…और भाषा – उसमें भी हिंदी…! जिस हिंदी के ज़रिए  देश की ग़ुलामी की ज़ंजीरें तोड़ी गयीं, उसी हिंदी को अंग्रेज़ी का ग़ुलाम बनने दिया जाये, परमुखापेक्षी बना दिया जाये…यह कहाँ तक संगत है, इस पर आज सोचना होगा, वरना इस अपराध को भी कभी समय लिखेगा – हिंदी में ही!

(लेखक साहित्य, कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)