रमेश शर्मा।

अयोध्या में रामजन्म स्थान मुक्ति के लिये सशस्त्र संघर्ष और बलिदान का ही सबसे लंबा इतिहास नहीं है । इतनी लंबी अवधि तक चलने वाली कानूनी लड़ाई का उदाहरण भी दुनियाँ में दूसरा नहीं है । कोई पाँच सौ वर्षों के कुल संघर्ष में लगभग एक सौ साठ साल कानूनी लड़ाई के हैं । रामजन्म स्थान पर पक्के निर्माण के लिये पहली बार 1858 में प्रशासन को आवेदन दिया गया था और अदालत में पहला मुकदमा 1885 में दायर हुआ था । यह सारे विवरण लखनऊ और फैजाबाद के गजेटियर में मौजूद हैं।बाबर काल में रामजन्म स्थान मंदिर को ध्वस्त कर मस्जिद बनाये जाने के बाद अकबर काल में हिन्दुओं को एक चबूतरा बनाकर कर भजन करने की अनुमति मिल गई थी । वह चबूतरा औरंगजेब काल में नष्ट कर दिया गया किंतु अवध के नबाब सदाअत अली के समय चबूतरा पुनः बहाल हो गया था । समय के साथ भारत की सभी स्थानीय सत्ताएँ अंग्रेजों के आधीन हो गई थीं। तब 1858 में अंग्रेज कलेक्टर के समक्ष इस चबूतरे पर छत डालने की अनुमति देने के लिये आवेदन दिया गया था । इसका उल्लेख “अयोध्या रिविजिटेड” नामक पुस्तक में इसके अनुसार कलेक्टर ने रिपोर्ट मांगी जो एक दिसंबर 1858 को प्रस्तुत हुई । रिपोर्ट में चबूतरा और पूजन का विवरण है । माँगी गई अनुमति तो नहीं मिली लेकिन तारों की एक बाड़ लगाकर विवादित भूमि परिसर में मुस्लिमों और हिंदुओं को अलग-अलग पूजा और नमाज की इजाजत दी गई।

अदालत में पहली बार

इसके 27 वर्ष बाद 1885 में पहली बार मामला अदालत पहुँचा। निर्मोही अखाड़े के मंहत रघुबर दास ने फैजाबाद के जिला न्यायालय में एक याचिका दायर की थी । उन्होंने अदालत से दो माँगें कीं थीं। एक बाबरी ढांचे के बाहरी भाग में स्थित राम चबूतरे पर बने अस्थायी मंदिर को पक्का बनाकर छत डालने की और दूसरी मांग इस स्थल के स्वामित्व देने की थी। यह मुकदमा लगभग दो वर्ष चला । जज ने हिंदुओं को पूजा-अर्चना का अधिकार तो दिया है, किंतु वहाँ कोई पक्का निर्माण करने या स्वरूप में किसी भी प्रकार के परिवर्तन की अनुमति देने से इंकार कर दिया । साथ ही स्वामित्व देने की माँग भी खारिज कर दी । लेकिन जज ने यह टिप्पणी अवश्य की कि “जो हुआ था वह अनुचित था” इस याचिका के बाद अंग्रेज सरकार ने दोनों परिसरों की सीमा बना दी । इससे कुछ वर्ष शाँति रही और दोनों पक्ष अपने अपने परिसरों में पूजन भजन एवं नमाज पढ़ते रहे । लेकिन यहाँ शाँति अधिक दिनों तक न रह सकी ।

संतों और राम सेवकों का अंतिम संघर्ष आरंभ

1885 के न्यायालयीन निर्णय से पहले तो स्थिति सामान्य रही लेकिन कुछ समय बाद कट्टरपंथी उत्पाती तत्व पुनः सक्रिय हुये और पूजन भजन में बाधा डालने लगे। इसका संतों ने प्रतिकार किया । इससे आये दिन थोड़ा बहुत विवाद होने लगा । तब निर्मोही अखाड़ा और गोरक्ष पीठ के आव्हान पर साधु संत को एकत्र हुये और रामजन्म स्थान की सुरक्षा का दायित्व संभाला। 1934 में संतों ने चबूतरे का विस्तार और मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा का प्रयास हुआ जो पुलिस ने असफल कर दिया । 1935 में गोरक्षपीठ पर दिग्विजयनाथ आसीन हुये । उन्होंने इस सत्याग्रह संघर्ष को आगे बढ़ाया। विवाद बढ़ा तो अंग्रेज सरकार ने यह पूरे क्षेत्र को अपने अधिकार में ले लिया तथा नमाज एवं पूजन दोनों पर प्रतिबंध लगा दिया । 1946 में बाबरी मस्जिद पर शिया संगठन ने भी दावा किया किन्तु निर्णय हुआ कि बाबर सुन्नी मुसलमान था इसलिए यह मस्जिद सुन्नीयों की है ।

रामलला का प्रकटीकरण

जुलाई 1949 में संतों ने मस्जिद के बाहर राम चबूतरे पर एक छोटा मंदिर बनाने का प्रयास किया । इस पर स्थानीय प्रशासन की सहमति तो नहीं दी पर आपत्ति भी न की ।  इससे राम चबूतरे पर अस्थाई राम मंदिर बनाने का काम आरंभ हो गया । इसका विरोध हुआ तो प्रशासन ने हस्तक्षेप करके निर्माण रुकवा दिया । कुछ महीने काम रुका रहा लेकिन 22 और 23 दिसंबर की रात मस्जिद परिसर में राम सीता और लक्ष्मण की मूर्तियां प्रकट हुई । एक पक्ष का कहना था कि रामलला स्वयं प्रकट हुये जबकि दूसरे पक्ष का कहना था कि मस्जिद पर अधिकार करने के लिये रात में यह मूर्तियाँ रख दीं गईं । इस पर भारी हंगामा हुआ और प्रशासन ने 29 दिसंबर को यह परिसर अपने अधिकार में लेकर रिसीवर बिठा दिया गया । प्रशासन की इस कार्रवाई का मुस्लिम पक्ष ने समर्थन किया और हिन्दू पक्ष ने विरोध ।

यह विरोध दिल्ली तक पहुँचा। विवाद को सुलझाने के लिये प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री गोविन्द वल्लभ पंत को मूर्तियाँ हटाकर यथास्थिति बनाये रखने  का पत्र लिखा । पर भारी जन विरोध को देखकर कलेक्टर कोई कड़ा कदम न उठा सके । और मामला अदालत चला गया जिससे मूर्तियाँ यथास्थान रहीं ।

16 जनवरी 1950 को एक याचिका अदालत में प्रस्तुत हुई जिसमें मूर्तियाँ न हटाने और नियमित पूजन की अनुमति माँगी गई। याचिका में परिसर का स्वामित्व भी माँगा गया । यह याचिका गोपाल दास विशारत ने प्रस्तुत की थी । अदालत ने मूर्तियां यथा स्थान बनाये रखने, केवल पुजारी द्वारा नियमित पूजन करने और जन सामान्य द्वारा केवल बाहर से दर्शन करने का आदेश दिया । इसके साथ प्रशासन द्वारा की गई ताला बंदी को भी यथावत रखने का आदेश दिया लेकिन स्वामित्व का मुकदमा विचारधीन रखा ।  इसी बीच स्वामित्व एवं ताला खोलने और जनसाधारण को भीतर से दर्शन करने का एक और वाद महंत रामचरणदास जी की ओर से दायर हुआ । जिला अदालत में दोनों मामले लंबित रहे । शीघ्र निर्णय करने की याचिका इलाहाबाद उच्च न्यायालय में लगी ।

1955 में उच्च न्यायालय ने दोनों मुकदमों को जल्द निस्तारित करने के निर्देश दिये । अब तक मुस्लिम पक्ष की ओर से न तो किसी ने परिसर पर दावा प्रस्तुत किया था और न मुकदमें में कोई हस्तक्षेप ही किया था । दोनों याचिका कर्ताओं ने जो माँग की जा रही थी, वह शासन से ही थी ।

1959 में निर्मोही अखाड़े ने अदालत में इस परिसर पर अपना मालिकाना हक होने का दावा पेश किया। अखाड़े का तर्क दिया कि 1885 में इस स्थान पर राम चबूतरे पर निर्माण तथा छत्र लगाने का दावा करने वाले महंत रघुवर दास निर्मोही अखाड़े के थे अतएव पूरे परिसर पर उसी का स्वामित्व प्रमाणित है।

दिसम्बर 1961 में विशारद एवं महंत रामचरणदास परमहंस द्वारा दायर याचिकाओं को बारह वर्ष पूरे होने में केवल चार दिन शेष थे । यह प्रावधान है कि यदि किसी स्वामित्व की याचिका में बारह वर्षों तक किसी कोई आपत्ति न हो तो वादी के पक्ष में निर्णय माना जाता है । दोनों याचिका कर्ताओं को अपने पक्ष में निर्णय होने की उम्मीद बन गई थी तभी बारह वर्ष में केवल चार दिन पहले सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड की तरफ से मोहम्मद हाशिम अंसारी ने पूरे परिसर पर मालिकना हक होने का दावा प्रस्तुत कर दिया है।

हाशिम अंसारी ने मांग की कि रामलला की मूर्ति हटाकर ढांचे को हिंदुओं के अधिकार से लेकर मुसलमानों को सौंपा जाए। इस तरह 1950 से लेकर 1961 तक इस स्थल पर  मंदिर और मस्जिद को लेकर कुल चार मुकदमे हो चुके थे। इसमें एक मस्जिद के दावे का और तीन मंदिर के।

1 अप्रैल 1984 दिल्ली के विज्ञान भवन में प्रथम संसद में 575 धर्माचार्य उपस्थित हुये। धर्म संसद में मथुरा काशी और अयोध्या तीन तीर्थस्थलों की मुक्ति की माँग हुई ।
7 सितम्बर 1984 बिहार के सीतामढ़ी में जन जाग्रति के लिये राम जानकी रथ यात्रा निकाली गई
1 फरवरी 1986  को फैजाबाद के जिला अदालत ने जन्मभूमि का ताला खुलवा के पूजा की अनुमति दे दी
1986 में जिला अदालत के इस निर्णय के विरुद्ध मस्जिद के पक्ष में आगे की कानूनी लड़ाई लड़ने के लिये बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का गठन हुआ
1989 प्रयागराज महाकुंभ में तृतीय धर्म संसद और श्रीराम जन्म भूमि न्यास का गठन हुआ और देशभर में राम शिला पूजन आरंभ हुई ।
1989 में विश्व हिन्दु परिषद ने सक्रियता के साथ खुलकर अपनी भागीदारी घोषित की और उनकी ओर से देवकीनंदन अग्रवाल ने याचिका दायर की । यह याचिका रामलला को प्रतीक मानकर दायर की गई थी ।
नवंबर 1889 में मस्जिद से थोड़ी दूर पर राम मंदिर के लिये शिलान्यास किया गया ।
जून 1990 हरिद्वार में मार्गदर्शक मंडल की बैठक और कारसेवा का निर्णय
अगस्त 1990 में पत्थर तराशने का कार्य आरंभ
सितम्बर 1990 भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता श्रीलालकृष्ण आडवाणी द्वारा सोमनाथ से राममंदिर जन जागरण यात्रा आरंभ आरंभ
23 अक्टूबर 1990 बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के आदेश पर यात्रा प्रतिबिंबित और लाल कृष्ण आडवाणी गिरफ्तार
अक्टूबर नवम्बर 1990 में कारसेवा आरंभ, कारसेवक मस्जिद के गुम्बद पर चढ़े, गुम्बद पर भगवा ध्वज फहराया, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के आदेश पर गोली चालन हुआ । 12 कारसेवकों का बलिदान
30-31 अक्टूबर 1991 को धर्म संसद में पुनः कारसेवा की घोषणा
नवम्बर 1992 में देश भर से लाखों कारसेवकों अयोध्या पहुँचे।
6 दिसम्बर 1992 को 11 बजकर 50 मिनट पर कारसेवकों का पहला जत्था विवादित परिसर की गुम्बद पर पहुंचा। गुम्बदों का गिरना आरंभ हुआ और लगभग 4.30 बजे तीसरा गुम्बद भी गिर गया ।
8 दिसंबर को सुरक्षाबलों ने संपूर्ण परिसर पर अधिकार और उनकी देखरेख में पूजा अर्चना आरंभ
21 दिसंबर 1992 अधिवक्ता हरिशंकर जैन ने पूजा अर्चना का का काम हिन्दू समाज द्वारा किये जाने की याचिका दायर की ।
1 जनवरी 1993 को हिन्दू समाज को पूजा अर्चना एवं भोग लगाने का अधिकार मिला
2003 में विवादित स्थल पर पुरातात्विक शोध आरंभ हुआ ताकि यह प्रमाण मिल सके कि इस स्थल पर पहले क्या था
2005  में आतंकवादी हमला लेकिन कोई विशेष क्षति नहीं
2010 इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने विवादित परिसर को रामलला विराजमान, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड तीनों में बराबर-बराबर बांटने का आदेश दिया जिसे तीनों ने अस्वीकार किया और उच्चतम न्यायालय में याचिका
2011 में उच्चतम न्यायालय द्वारा  2010 में विवादित स्थल पर हाई कोर्ट के फैसले को निरस्त किया
8 मार्च 2019 उच्चतम न्यायालय ने बातचीत से सुलझाने के लिए तीन सदस्यीय मध्यस्थता समिति का गठित की । इस समिति में जस्टिस खलीफुल्ला, श्री श्री रविशंकर और वरिष्ठ वकील श्रीराम पंचू  थे ।
9 नवम्बर 2019  को उच्चतम न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने पूरी विवादित जमीन हिन्दुओं को देने और मुस्लिम पक्ष को मस्जिद के लिये इस परिसर से दूर भूमि देने का आदेश दिया ।
5 अगस्त 2020 को राम मंदिर के लिए भूमि पूजन । इसमें प्रधानमंत्री श्रीनरेंद्र मोदी, महंत नृत्यगोपाल दास, राज्यपाल आनंदी बेन पटेल और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ शामिल हुए ।
22 जनवरी 2024 नए राम मंदिर में रामलला का प्राण प्रतिष्ठा समारोह।  इसमें प्रधानमंत्री श्रीनरेंद्र मोदी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ उपस्थित थे ।
दरअसल यह शुभ घड़ी हिन्दुओं के संकल्प और संघर्ष शीलता के कारण आ सकी । समय बदला, पीढ़ियाँ बदलीं पर संकल्प यथावत रहा और अब रामलला भव्य मंदिर में विराजमान हो रहे हैं।(एएमएपी)