पुरानी चुनाव प्रणाली
अगर मोदी सरकार ऐसा करती भी है तो यह पहली बार नहीं होगा, जब देशभर में एकसाथ लोकसभा और विधानसभा के चुनाव होंगे। इससे पहले भी देश का पहला आम चुनाव यानी 1952, 1957, 1962 और 1967 के चार संसदीय चुनाव लगातार राज्यों के विधानसभा चुनावों के साथ हो चुके हैं। हालांकि, यह परंपरा 1968-69 में बंद कर दी गई, क्योंकि तब कुछ विधान सभाओं को समय से पहले ही भंग कर दिया गया था। तब से भारत की यह पुरानी चुनाव प्रणाली बदल गई और इसे फिर से लागू करने की पुरजोर कोशिश होती रही है लेकिन राजनीतिक दलों के बीच इस पर सहमति नहीं बन पा रही है।

ऐसा रहा था चुनाव का हाल
देश में पहली बार चुनाव 25 अक्टूबर 1951 से 21 फरवरी 1952 के बीच हुए थे। तब लोकसभा के साथ-साथ विधानसभा के भी चुनाव हुए थे। उस वक्त लोकसभा में 494 सीटें हुआ करती थीं। पहली लोकसभा के लिए हुए आम चुनावों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को 365, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया को 16,सोस्लिस्ट पार्टी को 12, किसान मजदूर पार्टी को 9,पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट को 7, गणतंत्र परिषद् को 6, हिन्दू महासभा को 4 सीट और निर्दलीयों को 37 सीटें मिली थीं। जवाहर लाल नेहरू तब निर्वाचित होकर प्रधानमंत्री बने थे।
इंदिरा गांधी ने तोड़ी थी परंपरा
इसके बाद हुए 1957 और 1962 के आम चुनावों में भी कांग्रेस ने बहुमत पाई थी और पंडित नेहरू प्रधानमंत्री बने थे। 1967 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व में भी ऐसा ही वन नेशन, वन इलेक्शन हो चुका था लेकिन 1970 में पार्टी के अंदर बगावत की वजह से इंदिरा गांधी की सरकार अल्पमत में आ गई थी। इसके बाद उन्होंने दिसंबर 1970 में लोकसभा भंग करने की सिफारिश कर दी थी। 1971 के मार्च में पहली बार पांचवीं लोकसभा के लिए समय पूर्व चुनाव हुए और इंदिरा गांधी गरीबी हटाओं का नारा देकर 352 सीटों पर प्रचंड बहुमत से जीती थीं।

समझे, क्या है वन नेशन, वन इलेक्शन
भारत में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के आम चुनाव 5 साल के अंतराल पर होते हैं। जम्मू-कश्मीर में अब तक छह साल पर विधानसभा चुनाव होते आए हैं। इसके अतिरिक्त कुछ राज्यों में विधानसभाओं के चुनाव समय पूर्व भी कराए जाते रहे हैं। कई बार केंद्र की सरकारों ने भी समय पूर्व चुनाव कराए हैं। इससे सरकारी खजाने पर भारी बोझ पड़ता है। अब नरेंद्र मोदी की एनडीए सरकार 5 साल के अंतराल में पूरे देश में सिर्फ एक चुनाव कराना चाहती है। सरकार का तर्क है कि इससे सरकारी खजाने पर बोझ घटेगा और सरकारी कर्मचारियों पर काम का बोझ भी कम हो सकेगा।(एएमएपी)



