चंद्रभूषण ।
माउंट आबू की चढ़ाई के बीचोंबीच एक आधुनिक स्प्रिचुअल डेरे में रात कटी थी। आध्यात्मिकता ही जीवन का अकेला क्षेत्र है जिसमें अपनी कोई गति नहीं। लिहाजा यहां किसी से ठीकठाक बात हो पाएगी, इसकी उम्मीद नहीं थी। दो दिन चैन से एक कोने में पड़े रहेंगे, दांव लगा तो आसपास घूम आएंगे, फिर वापस वही राजधानी की खुराफातें। रात में ही बता दिया गया था कि सुबह की साझा चाय अमुक जगह पी सकते हैं और अगर देर हो जाए तो नीचे वेल-फर्निश्ड किचन है, वहां अपनी मर्जी की चाय खुद बना सकते हैं। मुझे उठने में देर नहीं हुई थी लेकिन मन अपने हाथ की बनाई खूब अदरक वाली चाय पीने का था, सो रसोई का रुख किया। 

‘नो हिंदी’

वहां चाय चढ़ाई ही थी कि एक सज्जन अपने लिए अलग चूल्हा जलाने के जुगाड़ में दिखे। मैंने उन्हें इशारे से रोका और कहा, मैं बना ही रहा हूं आपके लिए भी पानी बढ़ा देता हूं। वे बड़े अंतरंग ढंग से मुस्कराए, पर जब मैंने पूछा कि ज्यादा मीठी तो नहीं पीते तो उन्होंने थोड़ा और मुस्कराते हुए कहा, ‘नो हिंदी’। बात अजीब थी। उनका रंग-ढंग, शक्ल-सूरत सब हिंदुस्तानी। कोशिश करने पर कश्मीर या नॉर्थ-ईस्ट की हल्की छाया खोजी जा सकती थी। लेकिन देश के भीतर गर्व से ‘नो हिंदी’ बोलने का चलन तो तीसेक साल पहले खत्म हो चुका है। माहौल काफी सहज था सो मैंने अंग्रेजी में उनसे पूछा कि वे कौन हैं, क्या नाम है, कहां से आए हैं।
उन्होंने बताया कि वे एक गायक हैं, दक्षिण अफ्रीका से आए हैं और उनका नाम यूसुफ है। मैंने कहा, यूसुफ हैं तो पक्का दो-चार-दस पीढ़ी पहले कहीं इधर से ही जाकर वहां बसे होंगे। फिर यह भी कहा कि सिर्फ यूसुफ तो होगा नहीं, कुछ आगे-पीछे भी होगा। बताएं तो उससे मोटा अंदाजा हो जाएगा कि उनके पुरखे कहां से उठकर दक्षिण अफ्रीका गए होंगे। पिछले साल मॉरिशस की यात्रा से प्रवासी भारतीयों को लेकर ऐसी उत्सुकताएं मेरे मन में ज्यादा ही उठने लगी हैं। लेकिन यूसुफ इस बीच लगातार मुस्कुरा रहे थे और अपनी बात उन्होंने यहां से शुरू की कि उन्हें भय है, वे मुझे निराश करने वाले हैं। उन्होंने बताया कि वे इंडोनेशियाई मूल के हैं और उनका नाम सिर्फ यूसुफ है। न कुछ आगे न पीछे।

काले गोरे का भेद

मेरे लिए यह एक विचित्र कहानी थी। 16वीं सदी में इंडोनेशिया पर हॉलैंड वालों का कब्जा हुआ तो उसके एक छोटे से द्वीप के राजपरिवार को उजाड़ कर उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में अपने कब्जे वाले केपटाउन इलाके के जंगली देहात में फेंक दिया। उनके पास कोई संपत्ति नहीं थी, कोई अधिकार नहीं थे, यहां तक कि अपना कुलनाम जारी रखने की सुविधा भी नहीं थी। गुलामों की तरह जो काम मिले करना, जो खाने को मिले खाना। मैंने यूसुफ से दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के जमीनी मायने समझने की कोशिश की।
उन्होंने बताया, ‘सी-बीच पर गोरे लोग सुबह-शाम अपने कुत्ते टहलाते थे लेकिन कोई काला, सांवला या गेहुएं रंग वाला इंसान वहां अपना सामान बेचने भी नहीं जा सकता था। बसों में सीटें खाली रहती थीं, हम बैठ नहीं सकते थे। पीछे कुछ सीटें गैर-गोरे यात्रियों के लिए होती थीं। उनके भर जाने पर सफर चाहे सौ मील का हो, आपको खड़े ही चलना है। किसी सीट पर कोई गोरा बैठा है तो उससे टेक तक नहीं लेनी।’ मैंने मनोगत दुनिया पर इसके प्रभाव के बारे में पूछा तो यूसुफ ने क्षमताओं से जुड़े कन्फ्यूजन को सबसे बड़ी समस्या बताया।

शुद्ध संस्कृत में शांतिपाठ

शौक गाने-बजाने का था लेकिन कंपनी लॉ में डॉक्ट्रेट कर डाली। रंगभेद खत्म होने पर लगा, इस पढ़ाई का कोई मतलब नहीं है तो म्यूजिकोलॉजी में दाखिला लिया। फिर मैंने यूसुफ का गाना सुना- ठेठ अरबी शैली और शुद्ध संस्कृत में लहराता हुआ शांतिपाठ! पूछा, यह चमत्कार कैसे? बोले, शांतिपाठ तो इस आध्यात्मिक समूह से सम्पर्क की देन है, रही बात स्टाइल की तो इंडोनेशिया में गायन की जो ‘ज़िक्र’ शैली अरबी सौदागरों ने पहुंचाई है, यह उसी का प्रभाव है।

आध्यात्मिक बेचैनियों को लेकर लंबी बात

वह दिन वाकई मेरे लिए अद्भुत निकला। रूसी गायिका लैरिसा लुस्ता से उनकी सामाजिक और आध्यात्मिक बेचैनियों को लेकर लंबी बात हुई। आश्चर्य यह कि इस बातचीत का जरिया बने मेरे प्रिय उपन्यासकार फ्योदोर दोस्तोयेव्स्की, जिनके शहर सेंट पीटर्सबर्ग में ही लैरिसा की भी रिहाइश है। मैंने उनसे कहा कि उनका शहर निश्चय ही उनके लिए कुछ और होगा। उनके जीवन को घेरे हुए एक ठोस वर्तमान। पर मेरे लिए तो वह आत्मा में बसी एक अनजानी गंध है, जो ‘ईडियट’ और ‘ब्रदर्स करमाजोव’ के पन्नों से होती हुई मुझ तक पहुंची है।
अनुवादक शाशा की भी तारीफ करनी होगी कि वे मेरी कामचलाऊ अंग्रेजी और लैरिसा की काव्यात्मक रूसी के बीच लगातार एक विनम्र, समर्पित हरकारे जैसी फुर्तीली आवाजाही में जुटे रहे। लैरिसा की कथा में कम्यूनिज्म और आध्यात्मिकता, दोनों से दिली लगाव की एक विचित्र संगत थी। उन्होंने बताया कि अभी का पूतिनवादी रूस उनके बुजुर्ग पिता की समझ में बिल्कुल नहीं आता लेकिन वे खुद संगीत के जरिये इसमें जिंदा रहने का भीतरी-बाहरी रास्ता टटोल रही हैं।

बाकी जगह तो कोई सुनता ही नहीं

सिर्फ चार घंटे के अंदर यूसुफ और लैरिसा से बातचीत एक संयोग ही थी। यह अंतरंग संवाद किसी अजेंडा का हिस्सा नहीं था। न तो किसी ने मुझसे इसके लिए कहा था, न ही मैंने पहले से ऐसा कुछ सोच रखा था। लेकिन रूस में कम्यूनिस्ट सिस्टम का पराभव और दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी गोरे शासन का खात्मा मेरे लिखने-पढ़ने के शुरुआती दौर की दो ऐसी घटनाएं थीं, जिन्होंने रातोंरात दुनिया में हर विमर्श का मुहावरा बदल दिया था। इनका कोई आध्यात्मिक आयाम भी है, यह बात कभी मेरे दिमाग में ही नहीं आई थी।
इन बंद तालों की कोई चाभी हिंदुस्तान में हो सकती है, यह तो मेरी कल्पना से भी परे था। मैंने दोनों से कहा, यह देश खुद अध्यात्म के मामले में भारी कन्फ्यूजन से गुजर रहा है, कई बड़े आध्यात्मिक पुरुष अभी जेल में हैं। लेकिन उनका कहना था कि पंथ और पाखंड से परे यहां बहुत गुंजाइश है। बाकी जगहों पर तो कोई कुछ सुनता ही नहीं। मैंने कहा, भारतीय अध्यात्म की एक लहर मेरे बचपन में हिप्पियों के साथ किंचित निराशा में विदा हुई थी। उन दोनों के लिए यह या तो कोई सूचना नहीं थी, या उनके यहां इसका कोई अर्थ नहीं था।
(फेसबुक वॉल से साभार)