हर ओर रंग और उमंग के त्योहार होली की धूम मचने लगी है। आठ मार्च को मनाए जाने वाले होली को लेकर बाजार सज गए हैं। हर गांव-हर घर में तैयारी शुरू हो गई है। बच्चे और युवा ही नहीं, बुजुर्गों ने भी होली के दिन की प्लानिंग शुरू कर दी है। होली एक ऐसा पर्व है जो बुराइयों को भस्म कर खुशनुमा वातावरण बनाने का संदेश देता है।

होली में अमीर-गरीब, ऊंच-नीच, छोटा-बड़ा जैसी सभी दूरियां सिमट जाती है, समरसता और सद्भाव का सुन्दर वातावरण विनिर्मित होता है। यह मनोविनोद के सहारे मनोमालिन्य मिटाने का पर्व है। आपस के मनमुटाव को भुलाकर एक-दूसरे के गले मिलने का पर्व है। हालांकि पारंपरिक होली अब विलुप्त होती जा रही है। द्विअर्थी होली गीत और नशा के जाल में उलझ कर लो होली के संदेश को बदलने लगे हैं।

लेकिन इन सबके बीच बिहार के बेगूसराय में एक गांव ऐसा होली मनाता है, जिसका इंतजार लोग एक साल तक करते हैं। जहां लोग बाल्टी या ड्रम में रंग नहीं घोलते, बल्कि कुआं में ही रंग घोल दिया जाता है और पूरे गांव के लोग एक जगह जमा होकर रंग डालो प्रतियोगिता करते हैं। कई दशक से हो रहे इस अनोखे होली की इस बार भी व्यापक तैयारी की गई है।

मटिहानी गांव के इस चर्चित होली में लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती है। गांव के लोग जहां होली खेलते हैं, वहीं इस अनोखे होली को देखने के लिए दूर-दूर से लोग जमा होते हैं। यहां हजारों लोग एक जगह जुटकर ब्रज की लठमार होली नहीं, बल्कि रंगों के बरसात की प्रतियोगिता में शामिल होते हैं। मटिहानी गांव में यह होली एक दिन नहीं, बल्कि दो दिन मनाई जाती है। खास बात यह है कि कथित आधुनिकता के युग जहां कुआं विलुप्त हो गया है तो, यहां उसे जिंदा रखा गया है और कुआं पर ही सामूहिक होली खेली जाती है।

पहले दिन सभी लोग चार कुआं पर जमा होते हैं तथा दो कतार में कई ड्रम, नांद एवं अन्य बड़े बर्तन में रंग रखा जाता है। इसके बाद दो पक्ष में बंटकर लोग अलग-अलग कतार में रंग के भरे बर्तन के सामने खड़े होकर तथा एक पक्ष दूसरे पक्ष पर पिचकारी से रंग डालते हैं। जो पक्ष दूसरे को रंग डालकर भागने पर मजबूर कर देगा, वह विजेता घोषित होता। यही सिलसिला होली के दूसरे दिन दो कुआं पर चलने के बाद विजेता एवं उप विजेता घोषित किया जाता।

रंगों की बरसात प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए बेहतर पिचकारी की आवश्यकता होती है। बाजार में बिकने वाली बड़ी पिचकारी की बात तो दूर प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए लोगों ने साइकिल में हवा देने वाले पंप एवं बांस की पिचकारी भी तैयार कर लिया है। गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि इस गांव में वर्षों पूर्व राजस्थान से आए माड़वार समाज के एक परिवार रहते थे, जो राजस्थान से पिचकारी लेकर यहां आए थे। पहली बार उन्होंने ही दो पक्ष में बांटकर कुआं पर होली की शुरूआत कराई।

माड़वार समाज का वह परिवार अब यहां नहीं है। लेकिन वह परंपरा आज भी चल रहा है। इस होली में सिर्फ आम ही नहीं, बल्कि खास लोग भी शामिल होते हैं। गांव से बाहर रहने वाले लोग भी होली के अवसर पर गांव पहुंचते हैं तथा होली में शामिल होकर पर्व का आनंद लेते हैं। होली में परदेस से आए लोग पर्व के बाद फिर वापस परदेस जाने लगते हैं तो परिवार और समाज के लोग कुछ कहें या ना कहें, अगले होली में फिर आने की बात जरूर कहते हैं।

गांव के बुजुर्गों का कहना है कि आज जब लोग समाजवाद और परिवारवाद को छोड़कर एकात्म को अपना रहे हैं तो ऐसे में हम कोशिश करेंगे कि सामाजिक एकता की यह परंपरा सदियों तक चलती रहे। हम अपनी अगली पीढ़ी को इसके ऐतिहासिकता की कहानी सुना रहे हैं। वह भी अपने अगली पीढी को जब यह सुनाएंगे दिखाएंगे तो निश्चित रूप से हमारी परंपरा चलती रहेगी। (एएमएपी)