प्रदीप सिंह।
चिराग पासवान के सपने बड़े हसीन हैं। बहुत बड़े-बड़े सपने हैं। सपने बड़े होने में कोई हर्ज नहीं है लेकिन उनकी ताबीर के लिए आपके पास आवश्यक क्षमता, साधन और इच्छाशक्ति भी होनी चाहिए। वह आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी के रास्ते पर चलना चाहते हैं। जगन रेड्डी के पिता पिता वाई एस राजशेखर रेड्डी भी आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। चिराग पासवान 5 जुलाई से- जो कि उनके पिता का जन्मदिन है- एक आशीर्वाद यात्रा पर निकलना चाहते हैं। जनतंत्र या चुनावी राजनीति में नेता का जनता के बीच जाना, मिलना जुलना, फीडबैक लेना अच्छा होता है। लेकिन चिराग पासवान इन बातों के लिए नहीं जाने जाते। उन्हें राजनीति विरासत में थाली में परोस कर मिली है। इस विरासत को भी वह संभाल पाएंगे- इस बात पर अब सवाल उठने लगे हैं। अपने चाचा पारस पासवान से उनका मतभेद हो गया। उनकी लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के 6 सांसद थे। इनमें से पांच ने एक अलग गुट बना लिया। उनके चाचा संसदीय दल के नेता और बाद में पार्टी के अध्यक्ष भी हो गए। अब कानूनी लड़ाई चल रही है और राजनीतिक लड़ाई भी चल रही है।
मकसद गलतफहमी फैलाना
इस बीच चिराग पासवान ने एक और काम किया। उन्होंने एक अंग्रेजी दैनिक को दिए इंटरव्यू में यह बताने की कोशिश की कि बिहार विधानसभा चुनाव अकेले लड़ने के उनके फैसले को भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी की सहमति थी। इतना ही नहीं बल्कि (जनता दल यूनाइटेड ) जेडीयू के खिलाफ उम्मीदवार खड़ा करने के उनके फैसले को भी बीजेपी की सहमति थी। इस बात को कहने का उनके पास कोई प्रमाण नहीं है। कुछ तथ्य हैं जो सही है और उनके आधार पर वह यह कहानी गढ़ रहे हैं। इसके पीछे चिराग पासवान का मकसद है कि बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान वह जो नहीं कर पाए उसे चुनाव के बाद यानी अब करें। वह मकसद है बीजेपी और जेडीयू के बीच में गलतफहमी की दीवार खड़ी करना।
एलजेपी -बीजेपी में सहमति की चर्चा
जब से चिराग पासवान ने बिहार विधानसभा का चुनाव अलग लड़ने का निर्णय लिया, तबसे राजनीतिक हलकों में चर्चा थी कि कि कहीं ना कहीं बीजेपी और उनके बीच कोई आपसी सहमति (अंडरस्टैंडिंग) है। कारण यह था कि चिराग पासवान ने बीजेपी के ज्यादातर उम्मीदवारों के खिलाफ अपने उम्मीदवार खड़े नहीं किए। इसके अलावा बीजेपी ने भी पूरे चुनाव के दौरान उनके खिलाफ कोई व्यक्तिगत टिप्पणी नहीं की। हालांकि बीजेपी के चिराग पासवान के खिलाफ सख्त टिप्पणी ना करने के पीछे दूसरे कारण हैं। एक कारण तो यह है कि एलजेपी ने बीजेपी के प्रत्याशियों के खिलाफ अपने उम्मीदवार खड़े नहीं किए इसलिए विरोध करने का कोई बड़ा आधार नहीं था। दूसरा कारण यह था कि चिराग पासवान के पिता रामविलास पासवान के भाजपा और खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ बहुत गहरे संबंध थे। इस बार जब वह एनडीए में आए तो बड़ी मजबूती से गठबंधन के साथ खड़े रहे। जब जब दलितों के कुछ मुद्दों पर भाजपा और सरकार को घेरा गया तो ऐसे हर मौके पर वह सरकार और प्रधानमंत्री मोदी के साथ खड़े दिखाई दिए। बिहार विधानसभा चुनाव के कुछ ही पहले उनका निधन हुआ था। उनके साथ सहानुभूति के कारण भी बीजेपी चुप थी। चिराग पासवान इसका फायदा उठाया और दो बातें कहीं। एक- जेडीयू की सीटें बीजेपी से कम कर देंगे और दूसरी- नीतीश कुमार को बिहार का मुख्यमंत्री नहीं बनने देंगे।
राजद से संबंध
चिराग भले कह रहे हों कि उनकी बीजेपी के साथ अंडरस्टैंडिंग थी- लेकिन तथ्यों के आधार पर उनके लिए इस बात से इनकार करना संभव नहीं होगा कि उनके राजद के साथ कोई संबंध नहीं थे। उन्होंने तेजस्वी यादव और तेजप्रताप यादव दोनों के खिलाफ ऐसे उम्मीदवार खड़े किए जो उनकी मदद करने वाले थे, न कि नुकसान करने वाले। संभवतः यह बात उनको समझ आ रही थी कि अगर वह एनडीए से बाहर जा रहे हैं- या बीजेपी और जेडीयू के गठबंधन से बाहर निकल गए हैं और नीतीश कुमार के खिलाफ कोई स्टैंड ले लिया है- तो फिर उनके सामने दो ही विकल्प बचते हैं। या तो अकेले राजनीति करें या राजद से गठबंधन कर लें।
चिराग बनाम जगन
अभी हम बात कर रहे हैं चिराग पासवान द्वारा जगनमोहन रेड्डी की नकल किए जाने की। यह बिल्कुल साफ है कि दोनों में व्यक्तिगत स्तर या राजनीति की दृष्टि से कोई तुलना नहीं की जा सकती। चिराग पासवान बिहार में जिस जाति समूह से आते हैं, 2011 की जनगणना के अनुसार उनकी संख्या लगभग 50 लाख है। बिहार की आबादी की तुलना में यह बहुत छोटी संख्या है। वहीं आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी जिस समुदाय से आते हैं उनकी संख्या वहां की कुल आबादी का 8 फ़ीसदी है। इस प्रकार उनका दायरा या केचमेंट एरिया काफी बड़ा है। जगन मोहन रेड्डी के पिता वाई एस राजशेखर रेड्डी आंध्र प्रदेश के दो बार मुख्यमंत्री रहे और लंबे समय से राजनीति में काफी प्रभावी भूमिका में थे। उनके मुकाबले रामविलास पासवान बिहार की राजनीति में एक छोटी भूमिका में थे। पूर्वी उत्तर प्रदेश में तराजू के एक बाट को पासंग कहते हैं जो दोनों पलड़ों को बराबर करने के काम आता है। बिहार की राजनीति में उनकी वैसे ही भूमिका थी। जिस दल या पक्ष में कुछ कमी हो, अगर उधर खड़े हो गए तो उसके पास सत्ता आ गई। रामविलास पासवान इस भूमिका को बखूबी निभाते रहे। इसी कारण लालू प्रसाद यादव ने उन्हें ‘मौसम विज्ञानी’ की उपाधि दी थी। रामविलास पासवान को पता रहता था कि इस बार किसकी सरकार बनेगी… कौन सत्ता में आने वाला है? उस हिसाब से वो पाला बदलते रहते थे। जगनमोहन रेड्डी के पक्ष में एक बात और है। आंध्र प्रदेश में रेड्डी समुदाय की आबादी भले 8 फ़ीसदी हो लेकिन प्रभाव के मामले में वे उससे कहीं ज्यादा असरदार हैं। इसका प्रमाण यह है कि आंध्र प्रदेश में अब तक जो 16 मुख्यमंत्री बने हैं उनमें से 10 रेड्डी समुदाय से रहे हैं। ऐसे में चिराग पासवान और जगन मोहन रेड्डी में कोई तुलना नहीं है।
‘चिराग’ में तेल कम और संघर्ष लम्बा
अभी लोकसभा चुनाव होने में लगभग तीन साल और बिहार विधानसभा के चुनाव होने में साढ़े चार साल का समय बाकी है। चिराग पासवान को इतने लंबे समय तक संघर्ष करना पड़ेगा तब जाकर उनको चुनाव लड़ने या लगवाने का मौका मिलेगा। इतने समय तक पार्टी और संगठन को बनाए रखना- चिराग पासवान के अब तक के रवैए, राजनीति करने के ढंग और जीवन शैली को देखते हुए- बड़ा मुश्किल नजर आता है। इसके अलावा उनका स्वभाव भी ऐसा नहीं है। रामविलास पासवान ने अपने जीवित रहते ही उन्हें एलजेपी का अध्यक्ष बना दिया था। जब कोई पार्टी संबंधी या गठबंधन को लेकर बात करने जाता था तो वह कहते थे कि चिराग से बात कर लीजिए। कोई चिराग से बात करने को तैयार नहीं होता था। चिराग पासवान का स्वभाव, उनकी अब तक की राजनीति और जीवन शैली को देखते हुए उनसे कोई राजनीति की बात या सलाह मशवरा हो ही नहीं सकता है। वह फिल्मों में गए। सफल नहीं हुए तो लौट आए और क्योंकि उनके पिता राजनीति में थे इसलिए राजनीति में आ गए। इसके अलावा उनका और कोई योगदान नहीं रहा है। उनकी राजनीति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 6 सांसदों की पार्टी को वह एक नहीं रख पाए। जो 5 लोग अलग चले गए उनमें एक उनके चाचा और एक उनका चचेरा भाई है। जो व्यक्ति अपने पिता की बनाई पार्टी को एक नहीं रख पाया। अपने चाचा और चचेरे भाई को साथ में नहीं रख पाया। उसके लिए पार्टी को नए सिरे से खड़ा करना संघर्ष करना यह बहुत दूर की कौड़ी है। जावेद अख्तर का शेर है : इन चिरागों में तेल ही कम था , क्यूं गिला फिर हमें हवा से रहे।
जगन रेड्डी की स्थिति
एक और बात जो चिराग पासवान शायद भूल जाते हैं, वह यह कि जगनमोहन रेड्डी के साथ हुआ क्या था? उन्होंने सहानुभूति यात्रा पर जाने का फैसला किया तो कांग्रेस पार्टी ने (उस समय वह कांग्रेस में थे) उन्हें रोकने का कोशिश की। जब नहीं रुके तो उन्हें पार्टी से निकाल दिया। बात यहीं पर नहीं रुकी। उसके बाद उनके खिलाफ आय से अधिक संपत्ति और कुछ दूसरे घपले-घोटालों के तमाम मुकदमे दायर हो गए। नतीजा यह हुआ कि सीबीआई और ईडी के छह-सात केस उनके खिलाफ अभी भी चल रहे हैं और वह किसी भी दिन जेल जा सकते हैं। जिस तरह आय से अधिक संपत्ति और चारा घोटाले के मामले में लालू प्रसाद यादव को जेल हुई उसी तरह के मामले में जगनमोहन रेड्डी को भी जेल हो सकती है। मुकदमा जिस स्थिति में है उसे देखते हुए यह नहीं लगता कि इसमें बहुत लंबा समय लगेगा। यह कभी भी हो सकता है।
तो मुश्किल बढ़ जाएगी
चिराग पासवान यह भूल भी जाते हैं कि बिहार में नीतीश कुमार की सरकार है। एक स्थिति के बाद जब वह बीजेपी के भी खिलाफ जाएंगे अगर उस समय बीजेपी और जेडीयू ने तय कर लिया कि उनको निपटाना है या उनको उनकी जगह दिखाना है- उस दिन चिराग पासवान के लिए और मुश्किल खड़ी हो जाएगी। वह कोई व्यापार-व्यवसाय नहीं करते- कोई नौकरी नहीं की है- जिन फिल्मों में काम किया उनसे कितना पैसा मिला या नहीं मिला यह कहना मुश्किल है… लेकिन उनकी संपत्ति है को लेकर सवाल उठ सकते हैं। उनके वह दोस्त भी, जिनको केंद्र और राज्य सरकार से मदद मिलती रही है- मुश्किल में आ सकते हैं।
पासवान वोट किधर
यह तो कहा जा सकता है कि आज भी पासवान समुदाय का वोट चिराग पासवान को जाएगा- अगर उनके पास उसे लेने का साधन होगा। यहां साधन का मतलब है संगठन। चिराग के पास संगठन होगा तो वह पासवान समुदाय के वोट को ले सकते हैं। लेकिन चिराग पासवान रहेंगे किसके साथ? एनडीए से वह बाहर जा चुके हैं। वे जिस तरह से जदयू और बीजेपी के बीच मतभेद पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं उससे एक बात साफ नजर आती है कि वह एनडीए के साथ रहने वाले नहीं हैं और अपना आगे का रास्ता तलाश रहे हैं। वह कह तो रहे हैं कि आगे का रास्ता तलाश लेंगे… पर रास्ता क्या है? राजद के पास जाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा है। चिराग पासवान मुख्यमंत्री के रूप में कामकाज को लेकर नीतीश कुमार के खिलाफ आरोप लगा रहे थे। नीतीश कुमार जैसे भी हों- आप उनसे सहमत असहमत हो सकते हैं- उनकी सरकार के कामकाज से संतुष्ट या असंतुष्ट भी हो सकते हैं- लेकिन यह नहीं कह सकते कि वह लालू प्रसाद यादव से बुरे मुख्यमंत्री हैं। उनसे लाख दर्जे बेहतर मुख्यमंत्री हैं वह। बिहार का जितना भी कम विकास हुआ हो- लालू प्रसाद यादव के राज में हुए विकास से बहुत ज्यादा है। नीतीश कुमार के बारे में कोई यह कह सकता है कि इससे ज्यादा विकास हो सकता था। लेकिन यह तो किसी भी सरकार या जननेता के बारे में कहा जा सकता है कि इससे भी ज्यादा विकास होने की गुंजाइश थी।
फिल्म की शूटिंग नहीं है राजनीति
चिराग पासवान को देखकर लगता है जैसे किसी फिल्म की स्क्रिप्ट पढ़ रहे हैं। वह उसी तरह के भाषण और बयान दे रहे हैं। विधानसभा का चुनाव भी उसी अंदाज में लड़े जैसे किसी फिल्म की शूटिंग चल रही हो। उनको लग रहा था कि वह बस चुनाव में उतरे और छा जाएंगे… किंग मेकर बन जाएंगे। बड़े-बड़े दावे कर रहे थे कि मेरे पास चाबी होगी सरकार की! अगली सरकार किसकी बनेगी या अगला मुख्यमंत्री कौन बनेगा- यह मैं तय करूंगा। उनके इरादों को देखकर वह कहावत याद आती है कि चौबे जी छब्बे बनने के चक्कर में दूबे बन गए! चिराग पासवान का हश्र वही होता हुआ दिखाई दे रहा है। हालांकि राजनीति में कोई भविष्यवाणी नहीं करनी चाहिए कि कौन क्या बन जाएगा और क्या नहीं बन पाएगा। लेकिन अभी तक की स्थिति और उनकी क्षमता को देखते हुए कहा जा सकता है कि उनके लिए एकला चलो संभव नहीं लगता।