डॉ. संतोष कुमार तिवारी
स्वामी अखण्डानन्दजी सरस्वती (1911-1987) को अपने जीवन में अनेक सन्त पुरुषों के साथ रहने का सौभाग्य मिला। इन साधु-संतों ने अपने बारे में कभी नहीं लिखा। उनमें से कुछ के बारे में स्वामी अखण्डानन्दजी के अपने अनुभव लिखे जोकि बाद में उनकी पुस्तक ‘पावन प्रसंग’ में प्रकाशित हुए। सत्साहित्य प्रकाशन ट्रस्ट, वृन्दावन द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का द्वितीय संस्करण अप्रैल 2004 में निकला। तब से अब तक इसके और भी संस्करण निकले होंगे।
जिन साधु सन्तों की चर्चा स्वामी अखण्डानन्दजी सरस्वती ने इस पुस्तक में की है उनमें से एक थे चोर बाबा। उनके बारे में स्वामीजी लिखते हैं:
“चोर बाबा का अभी एक-दो वर्ष के भीतर ही वृन्दावन-वास हुआ। उनकी आयु सौ वर्ष के लगभग हो चुकी थी। गौर वर्ण, अत्यन्त सुन्दर शरीर, बदन पर कहीं मिलावट नहीं, रूई के समान श्वेत केश, लम्बी दाढ़ी। मुझे बहुत प्यारे लगते थे और मुझसे प्यार करते थे। बम्बई का अपना बहुत बड़ा व्यापार छोड़ कर आ गये थे। जीवन भर न कुटिया बनायी, न चेला। रात को अपने पास किसी को आने नहीं देते। अकेला! पैसा-कौड़ी पास नहीं। चरण छूने पर डाँटते, भगाते या पीट देते। फोटो नहीं खिंचवाते। अपनी प्रशंसा सुनते नहीं थे। कोई करना चाहे तो, ‘तेरी नानी मरे’ – कह कर, भगवान् की चर्चा करने को बोलते।“ (पावन प्रसंग, द्वितीय संस्करण, पृष्ठ संख्या 290)
स्वामी अखण्डानन्दजी में लेखन का अद्भुत कौशल था। उन्होंने गीता प्रेस के सम्पादकीय विभाग में भी काम किया था। गीता प्रेस के लिए भागवत का संस्कृत से हिन्दी में अनुवाद उन्होंने ही किया था। और भी कई ग्रन्थ उन्होंने लिखे। तब उनका नाम शान्तुनविहारी द्विवेदी था। बाद में जब वह गीता प्रेस की मासिक पत्रिका ‘कल्याण’ के संक्षिप्त महाभारत विशेषांक के लिए इस ग्रन्थ को हिन्दी में लिख रहे थे, तभी बीच में उन्होंने सन्यास ले लिया था। तब से वह स्वामी अखण्डानन्दजी सरस्वती के नाम से विख्यात हुए।
‘कल्याण’ का संक्षिप्त महाभारत विशेषांक दो खण्डों में सन् 1942 में प्रकाशित हुआ। पहला खण्ड 900 पृष्ठों से अधिक का था और दूसरा 800 पृष्ठों से अधिक का। दूसरे खण्ड के प्रारम्भ में गीता प्रेस के संस्थापक श्री जयदयालजी गोयन्दका (1885-1965) ने लिखा:
“अनुवाद का कार्य पूज्य पं. शान्तुनविहारीजी (स्वामी श्रीअखन्डानन्द सरस्वती) के द्वारा प्रारम्भ हुआ था; परन्तु दो पर्वों का ही अनुवाद हो सका; फिर सन्यास ग्रहण कर लेने के कारण वे इस कार्य को आगे नहीं चला सके। इसलिए पं. श्री रामनारायणदत्तजी शास्त्री तथा श्रीयुत मुनिलालजी (स्वामी सनातनदेवजी) ने मिलकर शेष अनुवाद कार्य किया।“
बाद में हिन्दी टीकासहित सम्पूर्ण महाभारत प्रकाशित करने की योजना गीता प्रेस ने बनाई। उन दिनों स्वामी श्रीअखन्डानन्दजी कानपुर में गंगा के किनारे एक कुटी में रह रहे थे। श्री जयदयालजी गोयन्दका चाहते थे कि श्रीअखन्डानन्दजी ही सम्पूर्ण महाभारत का अनुवाद करें। इस कारण से वह कानपुर गए और उन्होंने श्रीअखन्डानन्दजी से आग्रह किया कि आप सम्पूर्ण महाभारतका अनुवाद कर दीजिये। इस पर स्वामीजी का उत्तर था – अब मुझसे इतना विस्तृत कार्य नहीं हो सकेगा। (पावन-प्रसंग पृष्ठ संख्या 231)
श्री जयदयालजी गोयन्दका ने कहा कि हम दस लाख रुपया बैंक में रख देंगे। आप अपने साथ पण्डित रख लीजिये और आपकी जहाँ इच्छा हो, गंगा तट पर रहिये। एक अन्न-क्षेत्र खोल देते हैं, उसमें महात्मा लोग भोजन करते रहें और यह काम कर दीजिये। परन्तु उस समय मेरी रुचि इस काम में नहीं हुई और स्वामी अखन्डानन्दजी ने साफ-साफ इन्कार कर दिया। कानपुर से स्वामीजी वृन्दावन लौटना था। (‘पावन-प्रसंग’ पृष्ठ संख्या 231)
श्री जयदयालजी गोयन्दका पुण्य कार्यों पर इतना धन क्यों खर्च करते थे
श्री जयदयालजी गोयन्दका को सत्संग करने-कराने का विशेष शौक था। इस बारे में श्रीअखन्डानन्दजी ने अपनी पुस्तक ‘पावन प्रसंग’ के पृष्ठ संख्या 221 पर लिखा “एक बार मैं गीता-भवन के सत्संग-हाल में बैठा हुआ था। दो-चार सत्संगी भी होंगे। (श्री जयदयालजी गोयन्दका) उठकर खड़े हो गये और कहने लगे कि कई भाई कहते हैं कि (आप) सत्संग पर इतना धन-व्यय क्यों करते हैं? प्रतिवर्ष हजारों लोगों का आना-जाना, खाना-पीना, रहना-सहना, सब प्रबन्ध करना पड़ता है। क्या आवश्यकता है? मैं यह कहता हूँ कि यह मेरा शौक है। सब लोग अपने-अपने शौक के लिए क्या-क्या नहीं करते हैं? सिनेमा पर कितना खर्च होता है! मैं तो सत्संग पर खर्च करता हूँ। उस समय उनके चेहरे पर उत्साह एवं उल्लासके भाव स्पष्ट रूप से चमक रहे थे।“ (‘पावन-प्रसंग’ पृष्ठ संख्या 221)
हाँ, तो बात चल रही थी चोर बाबा की।
चोर बाबा को एक-ही व्यसन था
चोर बाबा के बारे में स्वामी अखण्डानन्दजी आगे लिखते हैं: उन्हें एक-ही व्यसन था – कहीं से भी अच्छे-अच्छे फूल चुनकर वृन्दावन के श्रीबाँकेबिहारीजी आदि मन्दिरों में या रासलीला के स्वरूपों के शृंगार में लगाना। इस फूल-चोरी के अपराध में, सेठ लोगों ने उन्हें कई बार पिटवाया। परन्तु वे मानते नहीं थे। बगीचे में नहर के पानी घुसने के रास्ते में भी प्रवेश कर जाते। ताले लगाये गये। पहरे बैठाये गये। परन्तु वे फूल चुराने का काम नहीं छोड़ते थे। एक बार उनकी पीठ पर लाठी लगी थी। मेरे पास चिल्लाते आये – ‘देख-देख ! तेरे राज में मेरी यह हालत!’ उनके मन में किसी के प्रति राग-द्वेष, पक्षपात सर्वथा नहीं था। (‘पावन-प्रसंग’ पृष्ठ संख्या 290)
उनका नियम था, एक घर से एक रोटी लेना
वृन्दावन से उनका बहुत प्यार था। पर सत्संग और रासलीला के प्रलोभन पर वृन्दावन के बाहर भी जाया करते। नियम था, एक घर से एक रोटी लेना। खड़े-खड़े खाना और पाँच घरों तक जाना। एक बार बम्बई गये। भिक्षा के समय किसी के फ्लैट पर जाकर घण्टी बजायी। स्त्री ने किवाड़ खोल कर बाबा को देखा – डर गयी। झट किवाड़ बन्द करके पुलिस को फोन किया। (‘पावन-प्रसंग’ पृष्ठ संख्या 290)
बाबा को पुलिस पकड़ ले गई
पुलिस आयी। ‘बाबा’ पकड़े गये। थाने में ले जाकर बैठा दिया। थानेदार से बोले – ‘बाबा, एक रोटी तू ही दे दे।‘ खा कर सो गये। जब मेरे सायंकालीन प्रवचन का समय हुआ तब थानेदार से बोले कि यदि तेरा विश्वास हो तो मुझे प्रवचन में जाने दे। मैं लौटकर आ जाऊँगा। विश्वास न हो, तो तू भी मेरे साथ चल। प्रवचन सुनकर साथ-साथ आ जाना। थानेदार ने कह दिया – ‘बाबा, तुम जाओ। लौटकर आने की कोई आवश्यकता नहीं।‘ हाँ, वे रात- रात भर जगते थे। सन्तों की वाणी पढ़ते थे। रात को भी मट्ठा पीते थे और अपने आप में मुस्कराते रहते थे। कोई-कोई सेवा के लिए जाय तो गाली देते। मार भी देते। भगवान् पर इतना विश्वास, इतनी निष्ठा कि ढूँढ़े भी नहीं मिले।
वृन्दावन के इस शतायु सन्त को नर्मदा-तट का ‘राम-नामी’ सन्त अपनी ओर खींच लिया करता था। (‘पावन-प्रसंग’ पृष्ठ संख्या 290)
स्वामी अखण्डानन्दजी ने अपनी पुस्तक ‘पावन-प्रसंग’ में जिन सन्त पुरुषों की चर्चा की है उनमें शामिल हैं: गीता प्रेस के संस्थापक श्री जयदयालजी गोयन्दका (1885-1965), कल्याण के आदि सम्पादक श्री हनुमान प्रसादजी पोद्दार (1892-1971), उड़िया बाबा (1875-1948), हरि बाबा (1885-1970), स्वामी करपात्रीजी (1907-1980), श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारीजी (1885-1990), आदि साधु- सन्तों के बारे में स्वामी अखण्डानन्दजी ने अपने अनुभव बताए हैं। ‘पावन-प्रसंग’ पुस्तक की प्राप्ति का पता है:
स्वामी श्रीअखण्डानन्द पुस्तकालय, आनन्द कुटीर, मोती झील, वृन्दावन -281121
(लेखक झारखण्ड केन्द्रीय विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं)