#pradepsinghप्रदीप सिंह।

बुकर पुरस्कार विजेता मशहूर लेखक सलमान रश्दी की दो किताबें बहुत मशहूर हैं। एक मिडनाइट्स चिल्ड्रेन, दूसरा सैटेनिक वर्सेज। मिडनाइट्स चिल्ड्रेन को वर्ष 2008 में बुकर ऑफ द बुकर्स पुरस्कार मिला तो सैटेनिक वर्सेज के लिए उनकी जिंदगी खतरे में है। 12 अगस्त, 2022 को उन पर जानलेवा हमला हुआ। वे न्यूयॉर्क से 400 किलोमीटर दूर एक कार्यक्रम में बोलने के लिए गए थे। वहां हमलावर ने उनकी गर्दन पर हमला किया। सर तन से जुदा की तरह ही हमला करके उनकी गर्दन काटने की कोशिश हुई। जिसने यह हमला किया उस युवक की उम्र सिर्फ 24 साल है जबकि उनकी किताब 34 साल पहले 1988 में आई थी। उस लड़के के मन में इतनी नफरत किसने और कैसे भरी, वह कौन सा मजहब, कौन सी ऐसी शिक्षा है जो ऐसी नफरत सिखाता है कि किताब से असहमत होने के कारण आप उसके लेखक की हत्या कर दें या करने की कोशिश करें।

अब जरा मैं सलमान रश्दी की किताब की क्रोनोलॉजी और इसे लेकर भारत में मुस्लिम तुष्टीकरण की पराकाष्ठा के बारे में बताता हूं कि कैसे मुस्लिम कट्टरपंथियों को खुश करने की कोशिश की गई। पहले क्रोनोलॉजी, इसकी दो तारीखों की बात बाद में करूंगा। 26 सितंबर, 1988 को सैटेनिक वर्सेज छपी। 12 फरवरी, 1989 को ईरान के अयातुल्ला खुमैनी ने सलमान रश्दी के खिलाफ फतवा जारी किया। फतवे में उनकी हत्या करने वाले को 30 लाख डॉलर इनाम देने का ऐलान किया गया। इसके बाद अगस्त 1989 में उन पर पहला हमला हुआ। 10 अक्टूबर, 1989 को फिर से उन्हें धमकी मिली। अब देखिए कि कैसे कट्टरपंथ फैलता है। अयातुल्ला खुमैनी ने जब फतवा जारी किया तो उस समय की खबरों के मुताबिक तब तक उन्होंने यह किताब पढ़ी भी नहीं थी। जो किताब आपने पढ़ी नहीं, उसमें क्या लिखा है इसके बारे में आपको मालूम नहीं, केवल सुनी-सुनाई बातों और दूसरों की राय के आधार पर आपने किसी व्यक्ति को मारने का फतवा जारी कर दिया। उस फतवे का तमाम इस्लामी देशों से समर्थन होने लगा। इसके बाद 1991 में इस किताब के अनुवादक की हत्या कर दी गई। वर्ष 2007 में ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ ने रश्दी को नाइटहुड सम्मान से सम्मानित किया।

विरोध के चलते भारत नहीं आ पाए रश्दी

फतवा जारी होने के बाद 10 साल तक सलमान रश्दी अज्ञातवास में जोसेफ एंटन के नाम से रहे। अपने अज्ञातवास को लेकर उन्होंने किताब भी लिखी है। 10 साल तक वे छिपे रहे और उसके 6 साल बाद लंदन में एक कार्यक्रम में सार्वजनिक रूप से दिखे। बीच में वे सुरक्षित जगहों पर रहते रहे, अलग-अलग सरकारें उन्हें सुरक्षा देती रहीं और उनकी पहचान छुपाने की कोशिश होती रही। एक लेखक के किताब लिखने के कारण किस तरह से उनकी जान पर बन आई और सरकारें उन्हें सुरक्षा देती रहीं। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं नफरत का स्तर क्या है। इससे पहले 1990 में उन्होंने अपनी किताब का बचाव करने की कोशिश की। न्यूजवीक में लिखे एक आर्टिकल के जरिये उन्होंने यह बचाव करने की कोशिश की थी कि उन्होंने किताब क्यों लिखी, उनका मकसद क्या था। मगर उसका कोई असर हुआ नहीं। सलमान रश्दी मुंबई के रहने वाले हैं। 1999 में वे अपने घर और अपने शहर मुंबई आना चाहते थे। तब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी जिसने उनको वीजा जारी कर दिया। मगर उनके यहां आने का विरोध होने लगा तो वे नहीं आ पाए। वर्ष 2009 में ईरान ने कहा कि जो फतवा उसने 1989 में जारी किया था वह अभी भी लागू है, उसमें कुछ नहीं बदला है। अमेरिका में 24 साल रहने के बाद 2016 में उन्हें अमेरिका की नागरिकता मिल गई। ये तो बात हुई सलमान रश्दी और उनकी किताब की कि कब उनके साथ क्या हुआ।

सबसे पहले भारत में लगी किताब पर पाबंदी

अब आप लौटकर आईए उन दो तरीखों पर जिसका जिक्र मैंने ऊपर नहीं किया। किताब आई 26 सितंबर, 1988 को और उसके ठीक 10 दिन बाद 6 अक्टूबर, 1988 को भारत सरकार ने किताब पर प्रतिबंध लगा दिया। तब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे और शाहबानो का मामला हो चुका था। शाहबानो के मामले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए जिस तरह से संसद में बहुमत का इस्तेमाल किया गया वह केवल कट्टरपंथियों को खुश करने के लिए था। उनको यह संदेश देने के लिए था कि आपकी हर मांग हम मानने को तैयार हैं। किताब पर प्रतिबंध लगने के बावजूद 14 फरवरी, 1989 को मुंबई में इसके खिलाफ प्रदर्शन हुआ। भारत में किताब आई नहीं, किसी ने पढ़ी नहीं, किसी ने उस पर न तो चर्चा की और न बयान दिया, इसके बावजूद प्रदर्शन हुआ क्योंकि 12 फरवरी को ईरान ने फतवा जारी किया था। भारत के मुसलमानों की नजर हमेशा इस्लामी देशों पर रहती है कि वहां क्या हो रहा है और वहां से क्या कहा जा रहा है। वह अपने देश की ओर नहीं देखता है। अपने देश के नेताओं और यहां तक कि अपने कौम के नेताओं तक की ओर भी नहीं देखता है। अयातुल्ला खुमैनी के फतवे का भारत से कोई लेना-देना नहीं था। मुंबई में हुआ प्रदर्शन जब एक सीमा के बाद आगे बढ़ने लगा तो पुलिस ने उसे रोका। इसके विरोध में प्रदर्शनकारियों ने पुलिस पर फायरिंग कर दी। पुलिस को आत्मरक्षा में गोली चलानी पड़ी और 12 लोग मारे गए। इस हिंसा के लिए कौन जिम्मेदार हैं, वे लोग जिन्होंने किताब पढ़ी नहीं।

कट्टरपंथ बढ़ाने में कांग्रेस रही अगुवा

किताब पर प्रतिबंध लगाने की खबर सलमान रश्दी को सबसे पहले सलमान हैदर ने दी। हैदर उस समय लंदन में भारत के डिप्टी हाई कमिश्नर थे और उनके दोस्त भी थे। अब आप देखिए कि इस्लामी देशों से कोई प्रतिक्रियाभी नहीं आई थी, उससे पहले ही भारत सरकार ने किताब को प्रतिबंधित कर दिया बिना पढ़े। कांग्रेस का मुस्लिम तुष्टीकरण का जिस तरह का रवैया रहा है, देश में जो सांप्रदायिक सौहार्द का माहौल बिगड़ा है, जो कट्टरपंथ बढ़ा है उसमें सबसे बड़ा योगदान कांग्रेस पार्टी का रहा है। इस मामले में हर बार शाहबानो मामले का बड़ा जिक्र होता है। जब भी चर्चा होती है शाहबानो मामले की चर्चा होती है लेकिन कभी सलमान रश्दी के किताब की चर्चा नहीं होती। ये वो लोग हैं जो आज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बात करते हैं, ये वो लोग हैं जो कहते हैं कि आपको कोई किताब बुरी लग रही है तो मत पढ़िए, कोई फिल्म बुरी लग रही है तो मत देखिए, कोई आपको मजबूर तो नहीं कर रहा है। जबकि एक किताब को पढ़े बिना उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। उसका मकसद सिर्फ मुसलमानों को खुश करना था। अभिव्यक्ति की आजादी के खिलाफ इससे बड़ा मामला और क्या होगा। जो आज अभिव्यक्ति की आजादी का ढोल पीट रहे हैं, उसकी मांग कर रहे हैं और कह रहे हैं कि उसको कुचला जा रहा है, तानाशाही आ गई है, तो सवाल ये है कि क्या किताब पर प्रतिबंध लगाकर अभिव्यक्ति की आजादी की ताकत बढ़ाने की कोशिश हुई थी? आखिर संदेश क्या देना चाहती थी कांग्रेस की राजीव गांधी सरकार, आज लोग ये जानना चाहते हैं।

हमले के बाद फिर रश्दी मामला चर्चा में

रश्दी पर हमले के बाद फिर से यह मुद्दा चर्चा में है। फिर से यहां पर इस तरह का माहौल बनाने की कोशिश हो रही है। इसकी तुलना जरा आप नुपुर शर्मा के मामले से कर लीजिए, ठीक यही मॉडसऑपरेंडी है। नुपुर शर्मा के टेलीविजन पर बयान देने के बाद कुछ दिन तक कहीं कोई प्रतिक्रिया नहीं होती है और उसके बाद एक माहौल बनाया जाता है। रश्दी मामले के समय सोशल मीडिया नहीं था इसलिए समय लगा माहौल बनाने में। नुपुर शर्मा के मामले में जल्दी हो गया। नुपुर शर्मा और भारत सरकार के खिलाफ तो बात समझ में आती है लेकिन भारत के खिलाफ भी माहौल बनाने की कोशिश हुई। कुछ मुस्लिम देशों को इसके लिए मजबूर किया गया कि वे इसके विरोध में बोलें। सबसे पहले कतर ने इस बारे मेंबोला। दूसरे इस्लामी देशों को लगा कि वे क्यों पीछे रह जाएं तो उन्होंने भी बोला। बात ये है कि जिस तरह से यहां एक लेफ्ट-लिबरल इकोसिस्टम काम कर रहा है वह लगातार कोशिश कर रहा है कि भारत में अराजकता, अशांति फैले, सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़े- आज से नहीं आजादी के बाद से ही। गिनना शुरू करें तो बहुत सारे उदाहरण मिलेंगे लेकिन यहां बात कांग्रेस की, गांधी परिवार की कर रहा हूं। उस समय राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे तो यह भी नहीं कह सकते कि परिवार का व्यक्ति प्रधानमंत्री नहीं था। उन्होंने इस किताब को क्यों प्रतिबंधित किया, इसका जवाब कांग्रेस पार्टी को आज देना चाहिए। शाहबानो के मामले पर कांग्रेस सरकार का कदम क्या सही था। सरकार के उस फैसले का नतीजा क्या हुआ, उस पर जनमानस में क्या प्रतिक्रिया हुई यह बताने की जरूरत नहीं है।

पहला संविधान संशोधन

दोनों फैसलों के बाद कांग्रेस पार्टी को इस बात का कोई नैतिक व राजनीतिक अधिकार नहीं रह जाता है कि वह ऐसे मुद्दों पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सवाल उठाए। जवाहरलाल नेहरु की सरकार ने संविधान में जो पहला संशोधन किया वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने के लिए ही किया। कांग्रेस पार्टी का जो ट्रैक रिकॉर्ड है वह पूरे देश के सामने है। वह पार्टी जब कहती है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में है तो फिर सवाल उठता है कि भाई ये बोल कौन रहा है। सलमान रश्दी पर हुए हमले ने एक बार फिर से इस बहस को, उन तथ्यों को उजागर करने पर मजबूर कर दिया है। इन तथ्यों की रोशनी में सोचिए कि देश में कट्टरपंथियों को बढ़ावा क्यों, कैसे और कौन दे रहा है?